15 सितम्बर को पैदा हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना हिन्दी के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार हैं। वह बाल साहित्य पर ध्यान देना चाहते थे और बाल पत्रिका पराग के संपादक भी थे। वह तीसरा सप्तक के प्रमुख कवियों में से एक हैं।
ईश्वर
बहुत बड़ी जेबों वाला कोट पहने
ईश्वर मेरे पास आया था,
मेरी मां, मेरे पिता,
मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को
खिलौनों की तरह,
जेब में डालकर चला गया
और कहा गया,
बहुत बडी दुनिया है
तुम्हारे मन बहलाने के लिए।
मैंने सुना है,
उसने कहीं खोल रक्खी है
खिलौनों की दुकान,
अभागे के पास
कितनी जरा-सी पूंजी है
रोजगार चलाने के लिए।
जब-जब सिर उठाया
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
दरवाजे घट गए या
मैं ही बडा हो गया,
दर्द के क्षणों मेंकुछ
समझ नहीं पाया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
‘शीश झुका आओ बोला
बाहर का आसमान,
‘शीश झुका आओ बोली
भीतर की दीवारें,
दोनों ने ही मुझे
छोटा करना चाहा,
बुरा किया मैंने जो
यह घर बनाया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
सब कुछ कह लेने के बाद
सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,
अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना।
सुर्ख़ हथेलियाँ
पहली बार
मैंने देखा
भौंरे को कमल में
बदलते हुए,
फिर कमल को बदलते
नीले जल में,
फिर नीले जल को
असंख्य श्वेत पक्षियों में,
फिर श्वेत पक्षियों को बदलते
सुर्ख़ आकाश में,
फिर आकाश को बदलते
तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बन्द करते
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते
पहली बार मैंने देखा ।
अजनबी देश है यह
अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है
जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है
होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है
शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा
कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है
देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,
फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है
हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में
रास्ता है कि कहीं और चला जाता है
दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की
आप ही रोता है औ आप ही समझाता है ।
प्यार : एक छाता
विपदाएँ आते ही,
खुलकर तन जाता है
हटते ही
चुपचाप सिमट ढीला होता है;
वर्षा से बचकर
कोने में कहीं टिका दो,
प्यार एक छाता है
आश्रय देता है गीला होता है।
व्यंग्य मत बोलो
व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
अंधों का साथ हो जाये तो
खुद भी आँखें बंद कर लो
जैसे सब टटोलते हैं
राह तुम भी टटोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
क्या रखा है कुरेदने में
हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में
सत्य के लिए
निरस्त्र टूटा पहिया ले
लड़ने से बेहतर है
जैसी है दुनिया
उसके साथ होलो
व्यंग्य मत बोलो।
भीतर कौन देखता है
बाहर रहो चिकने
यह मत भूलो
यह बाज़ार है
सभी आए हैं बिकने
राम राम कहो
और माखन मिश्री घोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
हँसा ज़ोर से जब
हँसा ज़ोर से जब, तब दुनिया
बोली इसका पेट भरा है
और फूट कर रोया जब
तब बोली नाटक है नखरा है
जब गुमसुम रह गया, लगाई
तब उसने तोहमत घमंड की
कभी नहीं वह समझी इसके
भीतर कितना दर्द भरा है
दोस्त कठिन है यहाँ किसी को भी
अपनी पीड़ा समझाना
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना
लाजवाब कविताएं।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जोशी जी
Deleteदिल को छूने वाली कविताएं
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