आज शिवरात्रि है , शिव और शक्ति के विवाह की तिथि, सभी शिवालय लोगों के हुजूम से भरे हुए रहे । आम दिनों में बिखरे पड़े रहने वाले बेलपत्रों की आज कीमत कई गुना बढ़ गई । कांवडि़यों के जत्थे शिवालयों पर अपना प्रथम अधिकार जताने में लगे रहे । आज पूरे दिन के व्रत का समापन रात्रि में जागरण कर अनुष्ठानों के साथ होगा। तांत्रिकों के लिए अपनी साधना सिद्धि वाली शुभ घड़ी आई है।
कुल मिलाकर धर्म का बड़ा बाजार सजा है मगर जिस ईश्वर और उसकी भक्ति के लिए ये सब सजाया गया है , लोग पागलों की भांति चीख रहे हैं , चिल्ला रहे हैं... वही ईश्वर अपने रचाए नाटक की इस परिणति पर मुस्कुरा रहा है... कि कितनी सफाई से भक्ति से लेकर भाव तक , पूजा से लेकर पूजन सामिग्री तक सब कमीशन की भभूति में लपेट दिया गया है।
इस सजे हुए बाजार के प्रेरणास्रोत संत- महात्माओं ने जिस माया से बचकर निकलने की बात कहकर माया का ही बाजार लगवा दिया और स्व-पूजन की महात्वाकांक्षा में ईश्वर को भी लपेट लिया, निश्चित ही वे अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो गए हैं । ईश्वर की अनुपस्थिति में उसी की आराधना का भ्रम तैयार करना , भ्रम से ही उपजे भय को व्यापक बनाना और भय जितना व्यापक होगा , बाजार की संभावनायें उतनी ही ज्यादा होंगी।
ये एक चक्र है महात्वाकांक्षा, भय , भ्रम और बाजार का जिसने स्वयं को स्वयं से ही दूर कर दिया और इस दूरी का लाभ मिला उन लोगों को, जो उंगली पकड़कर अपने अपने ईश्वर का पता बताने में जुटे रहे और उनका अभियान अब भी जारी है।
ये भय के बाजार नियामक यह नहीं बताते कि शिव-लिंग की पूजा का अर्थ है स्वयं की कामनाओं पर विजय हेतु संकल्प साधना। मानसिक व शारीरिक कामनाओं की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों को क्या हम रोजाना के बलात्कारों में देख नहीं रहे।
धर्म - बाजार के ये नियामक यह भी नहीं बताते कि बेलपत्र को मंदिरों में अर्पित करने की बजाय यदि इसका सेवन कर लिया जाए तो हृदय रोग व उदर रोगों से मुक्ति मिल जाएगी और शक्ति बढ़ेगी। शक्ति बढ़ने से दूषित सोच समाप्त होगी और धर्म स्वयमेव स्थापित हो जाएगा ।
एक बेलपत्र से धर्म तक जाने का इतना आसान रास्ता उनके सारे आडंबरों पर पानी फेर सकता है।
इसी भय के बाजार ने अनगढ़ अमूर्त और अजन्मे शिव को एक मूर्ति या उसके शिवलिंग के रूप में समेटकर धर्म के वास्तविक ज्ञान से आमजन को दूर रखा।
इस संबंध में ऋषि शांडिल्य का सूत्र है -
' भजनीयेन अद्वितीयम् इदं, कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।। '
जिसका पहला भाग है ' भजनीयेन अद्वितीयम् इदं... अर्थात्---
यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तियां बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, हमारा सारा अस्तित्व ही मंदिर है।
भगवान हर जगह है, मंदिर के बाहर भी है, मंदिर में भी है। मंदिर भगवान में है ना कि भगवान मंदिर में । यानि सारा अस्तित्व भगवान में हैं। पूजा का खयाल उठते ही हम मंदिर की ओर भागते हैं परंतु वह क्या है जो मंदिर में नहीं है और शेष रह गया ?
मंदिरों तक ईश्वर को समेट देने के कारण यह सारा जीवन वंचित हो गया। परमात्मा सिकुड़ गया, छोटा हो गया। उसकी मूर्तियां बना लीं, पवित्र तीर्थस्थल बना लिये और इन तीर्थ स्थलों के अलावा सब कुछ अपवित्र की श्रेणी में रख दिया गया। जबकि यह सारा आकाश तीर्थ है, सब नदियां गंगाएं हैं और सारी पृथ्वी पवित्र है। सब रूपों में वही है।
ऋषि शांडिल्य के इसी सूत्र का अगला भाग है '' ... कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।।'' अर्थात्
शांडिल्य कहते हैं—वह संपूर्ण में छाया हुआ है। भगवान सबमें है। इसलिए विश्व भजनीय है। भजन करो विश्व का।
तो अब दूसरे किसका भजन करना? भजन करने को कहीं जाने की जरूरत ही कहां है? जहां आंख खोलो, जिस पर आंख पड़ जाए, वही भजनीय है। जहां सुनो और जो सुनायी पड़ जाए, वही ओंकार का नाद है। जिसे छुओ और जो छूने में आए, वही ईश है। जिसे तुम अछूत कहते हो, उसमें भी तुम उसीको छूते हो। अस्पृश्य में भी उसी का स्पर्श होता है। जिसको तुम जड़ कहते हो, उसमें भी वही सोया है। जिसको तुम चेतना कहते हो, उसमें भी वही जागा है। इस विराट की प्रतीति जितनी सघन हो जाए, उतना शुभ।
यह सूत्र बड़ा अदभुत है। ऐसी भजन की परिभाषा किसी ने भी नहीं की जैसी शांडिल्य ने की है परंतु धर्म , पूजा और भक्ति के तरीकों पर अपने अपने एकाधिकार को लड़ने वाले संत व महात्मा क्योंकर बतायेंगे इस सच को ।
बहरहाल अब भी धर्म के इन व्यापारियों का सच जानने की बजाय उनका अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति, क्या हमें बार बार सचेत नहीं कर रही कि ...ऐसा क्यों हुआ कि मंदिरों में जितनी भीड़ बढ़ी है उतना ही या उससे कहीं ज्यादा अधर्म भी बढ़ा है ... ।
सैकड़ों चैनलों पर गंडे ताबीजों से लेकर वो सब काम कराये जा रहे हैं लोगों से जिनसे वे स्वयं को जान ही ना सकें। वो स्वयं को जान लेंगे तो धर्म का बाजार ठप्प हो जाने का पूरा पूरा खतरा है।
क्या हम तकनीक के इस सर्वज्ञाता युग में भी यह जानने का प्रयास नहीं करेंगे कि आखिर ... बेलपत्र, शिवलिंग और शक्ति बढ़ाने को व्रत रखने वाले उपायों के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तथ्य क्या हैं। मन, शरीर और प्रकृति से दूर हम कब तक एक लकीर के फकीर बने रहेंगे और भय के बाजार व इन्हें संचालित करने वालों की उंगलियों पर नाचने लगेंगे।
- अलकनंदा सिंह
कुल मिलाकर धर्म का बड़ा बाजार सजा है मगर जिस ईश्वर और उसकी भक्ति के लिए ये सब सजाया गया है , लोग पागलों की भांति चीख रहे हैं , चिल्ला रहे हैं... वही ईश्वर अपने रचाए नाटक की इस परिणति पर मुस्कुरा रहा है... कि कितनी सफाई से भक्ति से लेकर भाव तक , पूजा से लेकर पूजन सामिग्री तक सब कमीशन की भभूति में लपेट दिया गया है।
इस सजे हुए बाजार के प्रेरणास्रोत संत- महात्माओं ने जिस माया से बचकर निकलने की बात कहकर माया का ही बाजार लगवा दिया और स्व-पूजन की महात्वाकांक्षा में ईश्वर को भी लपेट लिया, निश्चित ही वे अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो गए हैं । ईश्वर की अनुपस्थिति में उसी की आराधना का भ्रम तैयार करना , भ्रम से ही उपजे भय को व्यापक बनाना और भय जितना व्यापक होगा , बाजार की संभावनायें उतनी ही ज्यादा होंगी।
ये एक चक्र है महात्वाकांक्षा, भय , भ्रम और बाजार का जिसने स्वयं को स्वयं से ही दूर कर दिया और इस दूरी का लाभ मिला उन लोगों को, जो उंगली पकड़कर अपने अपने ईश्वर का पता बताने में जुटे रहे और उनका अभियान अब भी जारी है।
ये भय के बाजार नियामक यह नहीं बताते कि शिव-लिंग की पूजा का अर्थ है स्वयं की कामनाओं पर विजय हेतु संकल्प साधना। मानसिक व शारीरिक कामनाओं की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों को क्या हम रोजाना के बलात्कारों में देख नहीं रहे।
धर्म - बाजार के ये नियामक यह भी नहीं बताते कि बेलपत्र को मंदिरों में अर्पित करने की बजाय यदि इसका सेवन कर लिया जाए तो हृदय रोग व उदर रोगों से मुक्ति मिल जाएगी और शक्ति बढ़ेगी। शक्ति बढ़ने से दूषित सोच समाप्त होगी और धर्म स्वयमेव स्थापित हो जाएगा ।
एक बेलपत्र से धर्म तक जाने का इतना आसान रास्ता उनके सारे आडंबरों पर पानी फेर सकता है।
इसी भय के बाजार ने अनगढ़ अमूर्त और अजन्मे शिव को एक मूर्ति या उसके शिवलिंग के रूप में समेटकर धर्म के वास्तविक ज्ञान से आमजन को दूर रखा।
इस संबंध में ऋषि शांडिल्य का सूत्र है -
' भजनीयेन अद्वितीयम् इदं, कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।। '
जिसका पहला भाग है ' भजनीयेन अद्वितीयम् इदं... अर्थात्---
यहां जो भी है, वही है। यहां प्रत्येक वस्तु आराध्य है। यहां और मूर्तियां बनाने की जरूरत नहीं है, सभी मूर्तियां उसकी हैं। यहां मंदिर खड़े करना व्यर्थ है, हमारा सारा अस्तित्व ही मंदिर है।
भगवान हर जगह है, मंदिर के बाहर भी है, मंदिर में भी है। मंदिर भगवान में है ना कि भगवान मंदिर में । यानि सारा अस्तित्व भगवान में हैं। पूजा का खयाल उठते ही हम मंदिर की ओर भागते हैं परंतु वह क्या है जो मंदिर में नहीं है और शेष रह गया ?
मंदिरों तक ईश्वर को समेट देने के कारण यह सारा जीवन वंचित हो गया। परमात्मा सिकुड़ गया, छोटा हो गया। उसकी मूर्तियां बना लीं, पवित्र तीर्थस्थल बना लिये और इन तीर्थ स्थलों के अलावा सब कुछ अपवित्र की श्रेणी में रख दिया गया। जबकि यह सारा आकाश तीर्थ है, सब नदियां गंगाएं हैं और सारी पृथ्वी पवित्र है। सब रूपों में वही है।
ऋषि शांडिल्य के इसी सूत्र का अगला भाग है '' ... कृत्स्नस्य तत् स्वरूपत्वात्।।'' अर्थात्
शांडिल्य कहते हैं—वह संपूर्ण में छाया हुआ है। भगवान सबमें है। इसलिए विश्व भजनीय है। भजन करो विश्व का।
तो अब दूसरे किसका भजन करना? भजन करने को कहीं जाने की जरूरत ही कहां है? जहां आंख खोलो, जिस पर आंख पड़ जाए, वही भजनीय है। जहां सुनो और जो सुनायी पड़ जाए, वही ओंकार का नाद है। जिसे छुओ और जो छूने में आए, वही ईश है। जिसे तुम अछूत कहते हो, उसमें भी तुम उसीको छूते हो। अस्पृश्य में भी उसी का स्पर्श होता है। जिसको तुम जड़ कहते हो, उसमें भी वही सोया है। जिसको तुम चेतना कहते हो, उसमें भी वही जागा है। इस विराट की प्रतीति जितनी सघन हो जाए, उतना शुभ।
यह सूत्र बड़ा अदभुत है। ऐसी भजन की परिभाषा किसी ने भी नहीं की जैसी शांडिल्य ने की है परंतु धर्म , पूजा और भक्ति के तरीकों पर अपने अपने एकाधिकार को लड़ने वाले संत व महात्मा क्योंकर बतायेंगे इस सच को ।
बहरहाल अब भी धर्म के इन व्यापारियों का सच जानने की बजाय उनका अंधानुकरण करने की प्रवृत्ति, क्या हमें बार बार सचेत नहीं कर रही कि ...ऐसा क्यों हुआ कि मंदिरों में जितनी भीड़ बढ़ी है उतना ही या उससे कहीं ज्यादा अधर्म भी बढ़ा है ... ।
सैकड़ों चैनलों पर गंडे ताबीजों से लेकर वो सब काम कराये जा रहे हैं लोगों से जिनसे वे स्वयं को जान ही ना सकें। वो स्वयं को जान लेंगे तो धर्म का बाजार ठप्प हो जाने का पूरा पूरा खतरा है।
क्या हम तकनीक के इस सर्वज्ञाता युग में भी यह जानने का प्रयास नहीं करेंगे कि आखिर ... बेलपत्र, शिवलिंग और शक्ति बढ़ाने को व्रत रखने वाले उपायों के पीछे आध्यात्मिक और वैज्ञानिक तथ्य क्या हैं। मन, शरीर और प्रकृति से दूर हम कब तक एक लकीर के फकीर बने रहेंगे और भय के बाजार व इन्हें संचालित करने वालों की उंगलियों पर नाचने लगेंगे।
- अलकनंदा सिंह