एक दिन ठाकुर जी अत्यंत प्रसन्न होकर मुस्कुरा रहे थे । श्री प्रिया जी ने पूछा की प्रियतम क्या बात है जो आप अकेले अकेले मुस्कुरा रहे है ? ठाकुर जी बोले नारद जी ने कलयुग मे कप प्रतिज्ञा की थी वह पूरी होते हुए दिखाई दे रही है । नारद जी ने प्रतिज्ञा की थी की मै विविध उत्सवों के माध्यम से (रामनवमी, झूलन उत्सव, चंदन लेपन, अन्नकूट महोत्सव आदी) कलयुग में घर घर मे भक्ति की स्थापना करुंगा । यदि मैने ऐसा नही किया तो मै श्रीहरि का दास नही । इस कराल कलिकाल मे भी कितने जीव तीव्र गति से मेरे चरणों तक पहुंच रहे है । प्रिया जी ने कहा - आप तक पहुंचने का रास्ता तो आपने खोल दिया है ।
यदि कोई जीव सखी सहचरी बनकर निज महल की सेवा प्राप्त करना चाहे, उस मार्ग को तो आपने खोला ही नही । उसको आपने गुप्त ही रखा है । ठाकुर जी ने कहा की यह रस तो आपकी सहचरियों की कृपा करुणा के आधीन है । सहचरी अनुग्रह न करे तो मुझे भी श्रीमहल की टहल दुर्लभ है ।
जब श्री श्यामा श्याम मे यह रसमयी वार्ता चल रही थी उसी समय वहां श्री ललिता जी पधारी । एकसाथ युगल की प्रेमपूर्ण दृष्टि ललिता जी पर पड़ी । ललिता जी ने कहा की आज आप दोनों बड़ी स्नेहभरी दृष्टि से मुझे निहार रहे है, इस दासी के लिए क्या आज्ञा है?
युगल ने कहा - तुम एक अंश से पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करो और महल टहल की प्राप्ति का अत्यंत दुर्लभ मार्ग खोलो ।
जन्म और दीक्षा -
वृंदावन से आधे कोस दूर राजपुर गांव मे सं १५३७ वि को इनका जन्म हुआ था । इनके पिता का नाम श्री गंगाधर और माता का नाम श्री चित्रा देवी था । इनका मन संसार मे बिल्कुल भी नही लगता था । श्री गुरुदेव आशुधीर जी सिद्ध महात्मा थे । उन्होंने बाल्यकाल मे ही स्वामी हरिदास जी के पिता को बता दिया था की यह बालक ललिता जी के अवतार है और समय आने पर यह भजन करने निकल पड़ेगा, तब इसको कोई रोकना टोकना नही। पिता ने एक दिन बालक हरिदास जी से अपने असली स्वरूप के दर्शन कराने का आग्रह किया । स्वामी हरिदास जी ने उनको साक्षात ललिता जी के रूप मे दर्शन देकर कृतार्थ किया था । २५ वर्ष की अवस्था मे एक विरक्त की भांति घर से निकल कर वृंदावन चले आये । वृंदावन के एक निम्बार्क सम्प्रदाय के संत श्री आशुधीर देवाचार्य जी से दीक्षा और विरक्त देश लेकर भजन करने लगे ।
श्री बांके बिहारी जी का प्राकट्य -
श्री निधिवनराज को अपनी साधना स्थली बनायी और निरंतर श्री युगल की रस केली का आपने दर्शन किया । स्वामी जी जहां विराजते वही एक परम सुरम्य लता कुंज की ओर एकाग्र दृष्टि रखते थे । कभी उसकी ओर देखकर हसते थे, कभी भाव मे भरकर रोते थे, कभी लोट जाते । उसी लता कुंज की ओर देखकर राग भी गाते । उनके शिष्य श्री विट्ठल विपुल देव जी ने एक दिन पूछा की हे गुरुदेव ! इस विशेष कुंज की ओर आपकी दृष्टि सदा रखते है और भाव विह्फल होते है ।
क्या इस कुंज मे कोई विशेष बात है ? स्वामी जी ने उन्हे दिव्य दृष्टि प्रदान की । उन्होंने देखा की दिव्य रंग महल मे एक रूप होकर श्यामा श्याम कुसुम सेज पर रस विलास कर रहे है । उस रूप को देखकर विट्ठल विपुल देव जी भाव विह्फल हो गए । उन्होंने स्वामी जी से प्रार्थना की के इस स्वरूप का दर्शन हमे सर्वदा होता रहे । स्वामी जी ने गाकर श्यामा श्याम को पुकारा है और देखते देखते एक प्रकाश पुंज प्रकट हुआ जिसमें से श्री बांकेबिहारी का श्रीविग्रह बाहर आया । आज बांके बिहारी जी के मंदीर मे ईसी श्रीविग्रह का दर्शन होता है ।
श्री हरिदास, जै जै श्री कुँज बिहारिन लाल,
शीतकालीन शयन स्तुति
पौढ़ीं संग पिया के प्यारी ।
शीत सुहावनो तरुनि भावनो ,आयौ सुरति केलि सुखकारी ।।
सुखद अँगरखा तन कछु भरके , पाई भरक जुरैं तन न्यारी ।
भली अँगीठी उष्म अटा भई ,ओढ़ी सौर मदन मतवारी ।।
सेज सौर तप नवल नवेली , पौढ़े अंस अंस भुज डारी ।
कृष्ण चन्द्र राधा चरणदासि वर ,भाई शीत शयन बलिहारी ।।
प्रस्तुति: अलकनंदा सिंंह