राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार अन्नाराम सुदामा का जन्म 23 मई 1923 में हुआ था। सुदामा ने राजस्थानी भाषा में साहित्य की कई विधाओं में रचनांए की हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, निबंध, नाटक, यात्रा स्मरण एवं बाल साहित्य लिखा है। उन्होंने अन्य कई विधाओं में 25 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं।सुदामा जी का साहित्य अन्नाराम सुदामा समग्र के नाम से सात खण्डों में प्रकाशित किया गया था। सुदामा जी की साहित्यिक रचनांए विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। इनकी सबसे प्रमुख रचना का नाम है ‘मेवे का रूंख’ जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
रूणिया बड़ा बांस में इस बालक के जन्म के समय अच्छा जमाना हुआ तो अकाल से पीड़ित अन्न की किल्लत भुगत रहे परिजनों ने नाम अन्नाराम रख दिया। स्कूल में गुरूजन की सुदामा के नाम की उपमा से बाद नाम के पीछे सुदामा जुड़ गया। राजस्थानी में लोक विधा के विजयदान देथा के दौर के सुदामा ने मौलिक लेखन के साथ राजस्थानी को ऊंचाई दी। साहित्यकार डॉ. मदन सैनी ने सुदामा के साहित्य पर डाक्टरेट भी करवाई है।
सुदमा जी ने कई रचनाएं की हैं जिसमें मैकती कायाः मुलकती धरती, आंधी अर आस्था, डंकीजता मानवी, घर-संसार, अचूक इलाज, आंधे नै आंख्यां, अचूक इलाज, गॉंव रो गौरव, बंधती अंवलाई, दूर-दिसावर, पिरोल में कुत्ती ब्याई, व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां इत्यादि। सुदामा जी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था जिसमें- केन्द्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली में पुरस्कृत, मीरा पुरस्कार, सूर्यमल्ल मीसण, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, टैसीटोरी गद्य पुरस्कार इत्यादि। अन्नाराम सुदामा का निधन 2 जनवरी 2004 में हुआ था।
राजस्थानी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में जिन महान रचनाकारों का योगदान है, उनमें अन्नाराम सुदामा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। राजस्थान के ग्रामीण जनजीवन में नित्य होने वाली घटनाओं को वे अत्यंत पारखी नजर से देखते हुए गहरी सामाजिक चेतना से सराबोर रचनाएं लिखते थे और यही उनके लेखन की विशेषता थी।
राजस्थान के ग्राम्य जीवन की संवेदना, मानवीय सरोकार और विविध छवियां आप अन्नाराम सुदामा के साहित्य से गुजरे बिना देख ही नहीं सकते। वे राजस्थानी के उन विरल साहित्यकारों में हैं, जिनके यहां अभावों में जीते मनुष्य की चेतना और विपरीत हालात से संघर्ष इतनी शिद्दत के साथ मौजूद होते हैं कि स्वयं पाठक भी एकबारगी लेखक और उसके अद्भुत जीवट वाले पात्रों के साथ खड़ा हो जाता है।
अन्नाराम सुदामा के विपुल साहित्य में ‘सूझती दीठ, एक ऐसी कहानी है, जो अकाल से ग्रस्त एक सामान्य निर्धन ग्रामीण स्त्री के संघर्ष के बीच उसकी वैज्ञानिक दृष्टि को ही नहीं उसके नैतिक बल और साहस को बहुत गहराई के साथ रेखांकित करती है। पढ़े-लिखे पात्रों के माध्यम से चेतना जगाना आसान होता है, लेकिन सुदामा तो अपने निरक्षर पात्रों से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समता-बंधुत्व की बात अत्यंत सहज रूप से पैदा कर देते हैं। इस एक कहानी से आप उनकी रचनात्मकता का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
सूझती दीठ-अन्नाराम सुदामा की कहानी
इस एक कहानी से आप उनकी रचनात्मकता का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
तुलसी को गांव छोड़कर कस्बे में आए तीनेक महीने हुए हैं। लगातार पड़ते अकाल के इस तीसरे साल वह यहां आई है। दो साल तो उसने जैसे-तैसे काट दिये, घर तो वो फिर भी चला लेती लेकिन गाय-बछड़ों का क्या करे। तीन जानवरों के लिए रोज पचास-साठ रुपये का बीस-बाइस किलो चारा कहां से आए। चरागाह से लेकर खेत तक सब सफाचट मैदान हुए पड़े हैं। गांव में जब कोई आस नहीं दिखी तो तुलसी अपनी बूढ़ी सास, पांच साल के लड़के और आठ साल की लड़की वाले परिवार को लेकर इस कस्बे में चली आई।
गांव की एक नाइन के परिचय से उसे एक मोहल्ले में एक सेठ का छह सौ गज का बाड़ा बीस रुपये महीने में किराये पर मिल गया। सेठ ने इस शर्त पर बाड़ा दिया था कि कहने पर एक-दो दिनों में ही खाली करना होगा। तुलसी ने शर्त मान ली और नाइन ने जिम्मेदारी ले ली। बाड़ा क्या था, बाहर एक पक्का अहाता, भीतर एक कमरा और बाकी खुली जगह। इस बाड़े में कभी जलावन की लकड़ियां और चारा होता था, लेकिन सालों से देखभाल के अभाव में पूरा बाड़ा उजाड़ पड़ा था, जिसमें मकड़ी और चमगादड़ों का डेरा था। तुलसी ने बेटे-बेटी के साथ मिलकर इस जगह को रहने लायक बनाया। कमरे के आधे हिस्से में चार बोरी चारा और आधे में रहने का ठीया बनाया। बाहर के अहाते में चौका-चूल्हा जमाया और खुले में गाय और बछड़ा-बछड़ी। रोज दोनों वक्त आठ किलो दूध होता, जिसमें थोड़ा बचाकर बाकी तुलसी बेच देती। दिन में मां-बेटी पापड़ बेल कर पांच छह रुपये कमा लेती। इस तरह घर की गाड़ी चलने लगी।
एकाध बार सेठानी ने तुलसी को घर में बुलाया और दाल-दलिया पिसवाने-बीनने का काम कराया। काम के बाद सेठानी ने उसे मजदूरी के बदले बच्चों के लिए दो कटोरी सब्जी देनी चाही तो तुलसी साफ मना कर गई। तुलसी ने कहा कि घर में प्याज-पोदीने की चटनी और पालक की सब्जी रखी है। सेठानी ने पूछा कि तुलसी ब्राह्मण होकर प्याज खाती है तो जवाब में वह कहती है कि इंसान के लिए तो चोरी, छल-कपट और चुगली जैसे अवगुण भी मना है लेकिन कौन मानता है। इस महंगाई के दौर में गरीब आदमी क्यों सब्जी खाये, प्याज की गांठ सामने हो तो रोटी सहज ही गले से नीचे उतर जाती है। तुलसी के जवाब के आगे सेठानी निरुत्तर हो गई। तुलसी वापस आ गई।
तुलसी के बाड़े के पास एक सरकारी जमीन पर पोकरण की तरफ से आए मजदूरों ने अस्थायी बसेरा बना रखा है। ये भी तुलसी की तरह ही अकाल का भारी वक्त काटने आए हैं। यहां कई बीमार बूढ़े रात-दिन खांसते रहते हैं। बच्चे दिन में आसपास से कचरा, लकड़ी, कागज आदि बीनते हैं, जिनसे कुछ आमदनी भी हो जाती है और शाम के वक्त खाना पकाने के लिए जलावन भी। जवान आदमी-औरतें सड़क के किनारे रेत डालने के काम में मजूरी करते हैं।
एक दिन सुबह-सुबह पांच-सात औरतें तुलसी के दरवाजे पर आ पहुंची। इनमें से एक ने दो दिन पहले तुलसी से मिलकर बच्चों के लिए दूध देने की विनती की थी कि वे रोज नकद पैसे देंगी, बस बदले में अच्छा दूध मिल जाए। तुलसी ने हामी भर दी। अब ये मजदूर महिलाएं तुलसी की नई ग्राहक बन गईं थीं।
एक रोज सूरज उगने से पहले ही सेठ का एक नौकर आया और कहा कि आज सेठ ने सारा दूध मंगाया है। सेठ के घर इतने दूध की क्या जरूरत, पता चला कि आज सेठ के पिताजी का श्राद्ध है, जिसके लिए गाय के शुद्ध दूध से हवेली के चारों तरफ लकीर निकाली जाएगी। तुलसी ने सोचा, चार किलो दूध रेत में बहा दिया जाएगा, इसका मतलब रोगियों का आधार, निरोगियों का बल और देश की संपत्ति आखिर वह क्यों बेचे, उसने नौकर से कह दिया कि जाकर सेठ से कह दो कि आज कहीं ओर से दूध का इंतजाम कर लें, मैं नहीं दे सकूंगी।
नौकर के बाद खुद सेठ चला आया। सेठ ने कहा कि दूध तो कहीं भी मिल जाएगा लेकिन ज्यादा तो मिलावट वाला मिलता है और तुमने नौकर से ना कह दी। उसने सेठ से कहाकि सच्ची बात तो यह है कि मैं रेत में बिखराने के लिए दूध नहीं बेचती। सेठ ने कहाकि वो चाहे धूल में मिलाए या कुछ भी करे उसे तो पैसों से मतलब होना चाहिए, वह ज्यादा पैसे दे सकता है। लेकिन तुलसी नहीं मानी तो नहीं ही मानी। इस पर सेठ को गुस्सा आ गया और उसने कह दिया कि आज की आज बाड़ा खाली हो जाना चाहिए। तुलसी ने कह दिया कि वह इस सुविधा की खातिर अपनी समझ पर पर्दा नहीं गिरने देगी। उदासी की हल्की रेखा चेहरे पर तैर गई। सेठ भांप गया और आज ही बाड़ा खाली करने की कहकर चला गया।
सेठ घर गया तो सेठानी को सारी बात बताई तो सेठानी ने कहा कोई बात नहीं, दूध तो कहीं से भी ले आएंगे। सेठ ने बताया कि उसने तुलसी को आज ही बाड़ा खाली करने के लिए कह दिया है। सेठानी ने कहाकि वह तो बाड़े की देखभाल ठीक कर रही है और कभी-कभार बिना किसी लोभ के वह आकर मेरा कुछ काम भी कर देती है। अलग किस्म की औरत है वह। हमें उससे क्यों बराबरी करनी चाहिए। सेठ ने कहा, अगर तुम ऐसा सोचती हो तो ठीक है, अगर शाम तक तुलसी आती है तो तुम ही उसे रहने के लिए कह देना, मैं तो अपने मुंह से नहीं कहूंगा।
दो दिन से तुलसी की सास का दमा का रोग जोर मार रहा था और लड़के को भी मलेरिया बुखार हो रखा था। लेकिन तुलसी को तो इस बात की चिंता खाए जा रही थी कि इतनी जल्दी जगह का इंतजाम कैसे होगा, उसने कोशिश करने की सोची और कुछ खा-पीकर जगह ढूंढने निकल पड़ी। उसने ठान लिया था कि सेठ के आगे जाकर हाथ नहीं फैलाएगी, किसी साधारण गुवाड़ी में उसके स्वभाव को देखते हुए जगह मिल ही जाएगी। और आखिर ढूंढ़ने पर उसे एक अकेली मालिन के पास कामचलाउ जगह मिल ही गई। उसे अपना सामान ढोने और लगाने में बहुत असुविधा तो हुई, लेकिन मां-बेटी लगी रही और दो बजे तक भूखे पेट बिना पानी पिये काम करती रही। ढाई बजे वह सेठ के यहां जा पहुंची।
सेठ अपनी गद्दी पर बैठा पान खा रहा था, देखते ही बोला, तेरे दूध नहीं देने से मेरा काम थोड़े ही रुका, पैसों के बदले दूध की कोई कमी थोड़े ही है।
तुलसी ने कहा, आप पर लक्ष्मी की कृपा है आप चार किलो क्या चार मण दूध से लकीर खींचो। लेकिन मेरी मान्यता है कि यही दूध अगर धूल में ना गिराकर भूखी-प्यासी जनता को पिलाते तो उसमें प्राणों का संचार होता, आपको आशीष मिलती और आपके पिता की आत्मा को कहीं ज्यादा खुशी मिलती।
सेठ ने कहा कि इन बातों को छोड़ और एक बार घर जाकर सेठानी से मिल ले। तुलसी ने कहा कि उनसे तो मिलती रहूंगी, लेकिन पहले आप यह चाबी सम्हालो। सेठ ने कहा, चाबी, बाड़ा खाली कर दिया क्या। हां, कहकर तुलसी चुपचाप चल दी। सेठ जाती हुई तुलसी की पीठ ऐसे देखता रहा, जैसे किसी अफीमची का नशा उतर गया हो।
कहानी अंश
समझदार तो कार्तिक लगते ही अपना-अपना पशुधन लेकर शहर के पास जा पहुंचे और नासमझ में से ज्यादातर के जानवर दो बरस में ही भूख की मार से रेत खा-खाकर सिधार गए। तुलसी ने देख लिया, अब यहां किसी हालत में गुजारा नहीं होगा, जल्दी से जल्दी किसी कस्बे की तरफ कूच करने में ही भलाई है। वहां पशुओं का भी पेट पाल लूंगी और परिवार का भी। परिवार में पांच बरस का एक लड़का, एक आठ साल की लड़की और दमे की रोगी एक बूढ़ी सास। देहरी को सीस नवा कर वह एक कस्बे की तरफ चल दी।
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वो आधा मिनट सोचने लगी, लकीर खींची जाएगी, थोड़ी दूर में नहीं, हवेली के चारों तरफ, वो भी पानी से नहीं दूध से। मतलब चार किलो दूध रेत में बिखेरा दिया जाएगा, किसके काम आएगा वो दूध, वो तो रोगियों का आधार है और निरोगियों का बल। देश की संपत्ति को इस तरह धूल में डालने के लिए बेचूं तो मेरी समझ ही खराब है।
सहसा उसकी आंखों के आगे उसके पास रहने वाले बीमार बच्चे, बुझते हुए और चाय के लिए तरसते बुजुर्ग औरत-आदमी, हारे थके मजूर नाच उठे। उसने कहा, ‘भाई, सेठजी को मेरी तरफ से हाथ जोड़कर कह देना कि दूध का इंतजाम कहीं ओर से कर लें, मैं नहीं दे सकूंगी।
प्रस्तुति: अलकनंदा सिंंह