Saturday 31 August 2019

लफ़्जों से मोहब्बत का रूहानी दीदार कराया अमृता प्रीतम ने

लफ़्जों से मोहब्बत का रूहानी दीदार कराने वाली अदब की क‍िसी शख्श‍ियत का अगर नाम लेना हो तो सबसे पहला नाम आता है अमृता प्रीतम का ... आज उनका जन्मद‍िन है। 

आधुनिक तकनीकी युग में आंतरिक सूनेपन को अमृता प्रीतम ने ज‍िस सघनता से अपनी कव‍िताओं में उकेरा है , उसका आज भी कोई सानी नहीं।
कागज ते कैनवास उनकी ऐसी ही एक व‍िश‍िष्ठ कृत‍ि है।  यह विशिष्ठ कृति के माध्यम से पंजाबी से अनूदित होकर ये कविताएं, जिसमें अमृता जी ने व‍िभाजन के दौरान अपने भोगे हुए क्षणों को वाणी दी है।

आज अमृता प्रीतम की जयंती पर उनके कागज ते कैनवास से चुनी हुई कुछ कविताएं-

1.
एक मुलाकात

कई बरसों के बाद अचानक एक मुलाकात
हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह काँपे ..

सामने एक पूरी रात थी
पर आधी नज़्म एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज़्म एक कोने में बैठी रही

फिर सुबह सवेरे
हम काग़ज़ के फटे हुए टुकड़ों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाँह में मेरी बाँह डाली

और हम दोनों एक सैंसर की तरह हँसे
और काग़ज़ को एक ठंडे मेज़ पर रखकर
उस सारी नज्म पर लकीर फेर दी

2.
एक घटना

तेरी यादें
बहुत दिन बीते जलावतन हुई
जीती कि मरीं-कुछ पता नहीं।

सिर्फ एक बार-एक घटना घटी
ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी
और इतनी स्तब्ध थी
कि पत्ता भी हिले
तो बरसों के कान चौंकते।

फिर तीन बार लगा
जैसे कोई छाती का द्वार खटखटाये
और दबे पाँव छत पर चढ़ता कोई
और नाखूनों से पिछली दीवार को कुरेदता

तीन बार उठकर मैंने साँकल टटोली
अंधेरे को जैसे एक गर्भ पीड़ा थी
वह कभी कुछ कहता और कभी चुप होता
ज्यों अपनी आवाज को दाँतों में दबाता
फिर जीती जागती एक चीज़
और जीती जागती आवाज़ ।

‘मैं काले कोसों से आई हूँ
प्रहरियों की आँख से इस बदन को चुराती
धीमे से आती
पता है मुझे कि तेरा दिल आबाद है
पर कहीं वीरान सूनी कोई जगह मेरे लिए !

सूनापन बहुत है पर तू...’
चौंक कर मैंने कहा-
"तू जलावतन नहीं कोई जगह नहीं
मैं ठीक कहती हूं कि कोई जगह नहीं तेरे लिए
यह मेरे मस्तक, मेरे आका का हुक्म है"

और फिर जैसे सारा अँधियारा काँप जाता है
वह पीछे को लौटी
पर जाने से पहले कुछ पास आई
और मेरे वजूद को एक बार छुआ
धीरे से
ऐसे, जैसे कोई वतन की मिट्टी को छूता है -

3.
खाली जगह

सिर्फ दो रजवाड़े थे
एक ने मुझे और उसे बेदखल किया था
और दूसरे को हम दोनों ने त्याग दिया था.

नग्न आकाश के नीचे-
मैं कितनी ही देर-
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा.

फिर बरसों के मोह को -
एक जहर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से मेरा हाथ पकड़ा
चल ! क्षणों के सिर पर एक छत डालें
वह देख ! परे- सामने, उधर
सच और झूठ के बीच कुछ जगह खाली है-

4.
विश्वास

एक अफवाह बड़ी काली
एक चमगादड़ की तरह मेरे कमरे में आई है
दीवारों से टकराती
और दरारें, सुराख और सुराग ढूंढने
आँखों की काली गलियाँ
मैंने हाथों से ढक ली है
और तेरे इश्क़ की मैंने कानों में रुई लगा ली है.

Friday 9 August 2019

प्रसिद्ध कवि मलखान सिंह का निधन, लोगों ने किया नमन

30 सितंबर 1948 को उत्तर प्रदेश के हाथरस में जन्मे प्रसिद्ध कवि मलखान सिंह का आज निधन हो गया। दलित और वंचित समाज की आवाज माने जाने वाले मलखान सिंह को सोशल मीडिया पर हजारों लोगों ने नमन किया है। वह समाज में शोषितों की सशक्त आवाज थे। लोगों ने कहा कि वह एक अपने आप में आंदोलन थे।
कवि मलखान सिंह ने आज सुबह 4 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। कवि मलखान सिंह हिन्दी दलित कविता के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता संग्रह से उन्होंने दलित कविता की भाषा शिल्प और कहन को नया अंदाज दिया था।
कवि मलखान सिंह का जाना सामाजिक न्याय की एक बुलंद आवाज का चले जाना है। सोशल मीडिया पर लोगों ने उन्हें क्रांतिकारी बताते हुए नमन किया है। उनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं- सफेद हाथी, सुनो ब्राह्मण, एक पूरी उम्र, पूस का एक दिन, आजादी और ज्वालामुखी के मुहाने। कथाकार कैलाश वानखड़े ने कहा कि कवि मलखान सिंह नहीं रहे। दलित आवाज और आक्रोश की अमिट पहचान। विनम्र आदरांजलि।
मलखान सिंह की प्रमुख कविताएं…
सुनो ब्राह्मण
हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।
तुम, हमारे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।
शाम को थककर पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटों को, बेटियों को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से।
सफेद हाथी
गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।
एक पूरी उम्र
यक़ीन मानिए
इस आदमख़ोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है।
लगता है कि बस अभी
ठकुराइसी मेंढ़ चीख़ेगी
मैं अधसौंच ही
खेत से उठ जाऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी-सी भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खाँसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बाँधकर मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा।

Monday 5 August 2019

शिवमंगल सिंह सुमन: मैं फकत यह जानता, जो मिट गया वह जी गया

हिंदी साहित्य के प्रमुख नामों में से एक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिला अंतर्गत झगरपुर गांव में हुआ था। उन्‍होंने रीवा, ग्वालियर आदि स्थानों मे रहकर आरम्भिक शिक्षा प्राप्‍त की है | एक अग्रणी हिंदी लेखक और कवि थे।
सुमन ने 1968-78 के दौरान विक्रम विश्वविद्यालय (उज्जैन) के कुलपति के रूप में भी काम किया।
वह कालिदास अकादमी, उज्जैन के कार्यकारी अध्यक्ष भी रहे। 27 नवंबर 2002 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
उनकी लिखी कविताएं प्रेरणा व जीवन का सार देती हैं। उन्हें किताब ‘मिट्टी की बारात’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उनकी लिखी 3 चुनिंदा कविताएं-
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं
स्मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्व की संपत्ति चाहूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं
क्या हार में क्या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही
वरदान माँगूँगा नहीं
लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्यर्थ त्यागूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं
चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशाप दो
कुछ भी करो कर्तव्य पथ से किंतु भागूँगा नहीं
वरदान माँगूँगा नहीं
चलना हमारा काम है
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पड़ा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरुद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पड़ा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पड़ा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोड़ा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रुकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।
मैं फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिश्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएँगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।
हम बहता जल पीने वाले
मर जाएँगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,
स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।
ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।
होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती साँसों की डोरी।
नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो।

Thursday 1 August 2019

मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है, नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है


ज्ञानपीठ पुरस्‍कार प्राप्‍त उर्दू के प्रसिद्ध शायर, कवि और आलोचक अली सरदार जाफ़री का इंतकाल 01 अगस्‍त 2000 को मुंबई में हुआ था।
29 नवंबर 1913 को यूपी के बलरामपुर में जन्‍मे अली सरदार जाफ़री के घर का माहौल तो ख़ालिस मज़हबी था, लेकिन सरदार छोटी उम्र में ही मर्सिया (शोक काव्य) कहने लगे थे।
उनकी किताब लखनऊ की पांच रातें में मजाज़ से लेकर नाजिम हिक़मत तक कई किस्से दर्ज हैं। उसी किताब में अली सरदार जाफ़री ने बताया है कि कैसे उनके दिल में इल्म के चिराग़ जले और उनकी ज़िंदगी बदल गयी। वह लिखते हैं कि
“एक गाँव के किसानों न बग़ावत कर दी। रियासत की फ़ौज़ ने जवाब में सारे गाँव में लगा दी और किसान औरतों को बेइज़्ज़त किया। इस पर बड़ा हंगामा हुआ, अख़बारों में ख़बरें छपीं और कांग्रेस की तरफ़ से पंडित जवाहरलाल नेहरू इस मामले को देखने आए। रियासत के लोगों ने उनको गाँव तक जाने से रोक दिया और रास्ते की कच्ची सड़क में जा-ब-जा गड्ढे खोद दिए ताकि पंडित नेहरू की कार वहाँ तक न पहुँच सके।
शायद ईदे-गदीर का दिन था या यों ही हमारे घर में कोई महफ़िल थी। मैं उस महफ़िल में क़सीदा पढ़ने के बजाय इस आम जलसे में चला गया जहाँ पंडित नेहरू ने जागीरदारी जुल्म और जिद के ख़िलाफ़ तक़रीर की। जलसे के बाद मैं वापस आया तो घर के लोग मुझे ख़फ़ा थे और मैं सारी कायनात से बेज़ार।
जुल्म व अफ़लास के समाजी असबाब के पहले इल्म ने मेरे दिल में चिराग़ जला दिए थे।
इसी ज़माने में मैंने दो निहायत अहम किताबें पढ़ीं, जिन्होंने मेरी ज़िंदगी बिल्कुल पलटकर रख दी। एक महात्मा गाँधी की किताब ‘तलाशे-हक़’ और दूसरी प्लूटार्क की किताब ‘मशाहीरे-यूनानो-रोमा’। गाँधी जी की किताब मैं पूरी तरह न समझ सका इसलिए कि वह अंग्रेज़ी में थी और मेरी अंग्रेज़ी की समझ इतनी नहीं थी। प्लूटार्क की किताब का उर्जू तर्जुमा था। इसका असर गहरा पड़ा क्योंकि मैं इसे आसानी से समझ सकता था।”
आधुनिक उर्दू शायरी की दुनिया में सरदार जाफरी शायरना महफिलों में वैचारिक स्तर पर बतौर कम्युनिष्ट दाखिल हुए। शुरुआत में उन्हें लोग तीखी नज़रों से देखते थे लेकिन उनके शेरों के मार्फ़त लोगों ने जल्द ही स्वीकार कर लिया। उन्होंने उर्दू शायरी की दुनिया में ऊंचा स्थान हासिल किया। पेश हैं उनके कुछ चुनिंदा कलाम-
मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है
नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है
इश्क़ का नग़्मा जुनूँ के साज़ पर गाते हैं हम
अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं
वक़्त पड़ जाए तो अँगारों पे सो जाते हैं हम
अब आ गया है जहाँ में तो मुस्कुराता जा
चमन के फूल दिलों के कँवल खिलाता जा
मन इक नन्हा सा बालक है हुमक-हुमक रह जाए है
दूर से मुख का चाँद दिखा कर कौन उसे ललचाए है
इश्क़ का नग़्मा जुनूँ के साज़ पर गाते हैं हम
अपने ग़म की आँच से पत्थर को पिघलाते हैं हम
अर्श तक ओस के कतरों की चमक जाने लगी
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी
इसीलिए तो है ज़िंदाँ को जुस्तुजू मेरी
कि मुफ़लिसी को सिखाई है सर-कशी मैंने
मैं जहाँ तुम को बुलाता हूँ वहाँ तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर दिल-ओ-जाँ तक आओ
हम ने दुनिया की हर इक शय से उठाया दिल को
लेकिन एक शोख़ के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा
जाग उठते हैं तो सूली पर भी नींद आती नहीं
वक़्त पड़ जाए तो अँगारों पे सो जाते हैं हम
मन इक नन्हा सा बालक है हुमक हुमक रह जाए है
दूर से मुख का चाँद दिखा कर कौन उसे ललचाए है
मय है तेरी आँखों में और मुझ पे नशा सा तारी है
नींद है तेरी पलकों में और ख़्वाब मुझे दिखलाए है
याद आए हैं अहद-ए-जुनूँ के खोए हुए दिलदार बहुत
उन से दूर बसाई बस्ती जिन से हमें था प्यार बहुत
ये सिर्फ़ एक क़यामत है चैन की करवट
दबी हैं दिल में हज़ारों क़यामतें मत पूछ
ख़ंजरों की साज़िश पर कब तलक ये ख़ामोशी
रूह क्यूँ है यख़-बस्ता नग़्मा बे-ज़बाँ क्यूँ है
तू वो बहार जो अपने चमन में आवारा
मैं वो चमन जो बहाराँ के इंतिज़ार में है
प्यास जहाँ की एक बयाबाँ तेरी सख़ावत शबनम है
पी के उठा जो बज़्म से तेरी और भी तिश्ना-काम उठा
पुराने साल की ठिठुरी हुई परछाइयाँ सिमटीं
नए दिन का नया सूरज उफ़ुक़ पर उठता आता है
शब के सन्नाटे में ये किस का लहू गाता है
सरहद-ए-दर्द से ये किस की सदा आती है
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