हिन्दी और भोजपुरी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार विवेकी राय की आज पुण्यतिथि है। उत्तर प्रदेश के जिला गाजीपुर में 19 नवंबर 1924 को जन्मे विवेकी राय की मृत्यु 22 नवंबर 2016 के दिन वाराणसी में हुई।ग्रामीण भारत के प्रतिनिधि रचनाकार विवेकी राय ने 50 से अधिक पुस्तकों की रचना की थी। वे ललित निबंध, कथा साहित्य और कविता कर्म में समभ्यस्त थे। आज भी विवेकी राय को ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है।
पिता के अभाव में उनका बचपन ननिहाल में मामा बसाऊ राय की देख-रेख में बीता था। विवेकी राय गाँव की खेती-बारी देखते थे और गाजीपुर में अध्यापन तथा साहित्य सेवा में भी लीन रहते थे। गाँव के उत्तरदायित्व का पूरा निर्वाह करते हुए उन्होंने बहुत लगन से विपुल साहित्य पढ़े और लिखे।
अब वे दिन सपने हुए हैं कि जब सुबह पहर दिन चढे तक किनारे पर बैठ निश्चिंत भाव से घरों की औरतें मोटी मोटी दातून करती और गाँव भर की बातें करती। उनसे कभी कभी हूं-टूं होते होते गरजा गरजी, गोत्रोच्चार और फिर उघटा-पुरान होने लगता। नदी तीर की राजनीति, गाँव की राजनीति। लडकियां घर के सारे बर्तन-भांडे कपार पर लादकर लातीं और रच-रचकर माँजती। उनका तेलउंस करिखा पानी में तैरता रहता। काम से अधिक कचहरी । छन भर का काम, पहर-भर में। कैसा मयगर मंगई नदी का यह छोटा तट है, जो आता है, वो इस तट से सट जाता है।
ये लाईनें हैं श्री विवेकी राय जी के एक लेख की जो उन्होंने एक नदी मंगई के बारे में लिखी हैं।
जब 7वीं कक्षा में अध्यन कर रहे थे उसी समय से डॉ.विवेकी राय जी ने लिखना शुरू किया। सन् 1945 ई. में आपकी प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई। इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमनें का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़ा रहा। अब तक इन सभी विधाओं से सम्बन्धित लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं और लगभग 10 प्रकाशनाधीन हैं।
प्रकाशित कृतियाँ निम्न हैं-
काव्य संग्रह : अर्गला,राजनीगंधा, गायत्री, दीक्षा, लौटकर देखना आदि।
कहानी संग्रह : जीवन परिधि, नई कोयल, गूंगा जहाज बेटे की बिक्री, कालातीत, चित्रकूट के घाट पर, विवेकी राय की श्रेष्ठ कहानियाँ , श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, अतिथि, विवेकी राय की तेरह कहानियाँ आदि।
उपन्यास : बबूल,पूरुष पुराण, लोक ऋण, बनगंगी मुक्त है, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम्, अमंगल हारी, देहरी के पार आदि।
फिर बैतलवा डाल पर, जुलूस रुका है, मन बोध मास्टर की डायरी, नया गाँवनाम, मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ ,जगत तपोवन सो कियो, आम रास्ता नहीं है, जावन अज्ञात की गणित है, चली फगुनाहट, बौरे आम आदि अन्य रचनाओं का प्रणयन भी डॉ. विवेकी राय ने किया है। इसके अलावा डॉ. विवेकी राय ने 5 भोजपुरी ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है। सर्वप्रथम इन्होंने अपना लेखन कार्य कविता से शुरू किया। इसीलिए उन्हें आज भी ‘कविजी’ उपनाम से जाना जाता है।
अन्य लेखन कार्य
सन 1945 ई. में डॉ. विवेकी राय की प्रथम कहानी ‘पाकिस्तानी’ दैनिक ‘आज’ में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद इनकी लेखनी हर विधा पर चलने लगी जो कभी थमने का नाम ही नहीं ले सकी। इनका रचना कार्य कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, समीक्षा, सम्पादन एवं पत्रकारिता आदि विविध विधाओं से जुड़े रहे। इन सभी विधाओं से सम्बन्धित उनकी लगभग 60 कृतियाँ आपकी प्रकाशित हो चुकी हैं।
डॉ. विवेकी राय अनेक पुरस्कारों एवं मानद उपाधियों से सम्मानित किये गये थे। डॉ. राय ने हिंदी के साथ ही भोजपुरी साहित्य जगत में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई। उन्होंने आंचलिक उपन्यासकार के रूप में ख्याति अर्जित की।
आज उनकी कविता पोखरा पढ़िए-
1.
राज भरपूर बा
नॉव मसहूर बा
काहे तू उदास पोखर
काहे मजबूर बा ?
तोहके बन्हावल केहू, तोहके सॅवारल केहू
हियरा क सुन्नर सपना, तोहके उरेहल केहू।
‘सरगे क सीढ़ी सोझे’ सोचि के बनावल केहू
तोहरा के देखि-देखि नैनवा जुरावल केहू।
आजू तोहर दाही ना, केहू तोहार मोही ना,
बाति-बीति गइली भइया, केहू तोरे छोही ना।
टूटलना जवानी जइसे सीढी छितराइल बाड़ी।
बेकसी गरीबी कादो भारी भहराइल बाड़ी।
पॉव का बेवाई अइसन फाटल दरार बाड़े
देखि नाहिं जाला हाय, उठती बजार बाड़े।
पोखरा के नाकि लट्ठा लाजे झुकि गइले
बरुजी बेचारी सारी चीख के चटकि रे गइली।
2
फोरी के पलस्तर पाजी जामि गइले झाड़-झारी
कॉटा फहरवले दखिन ओरी भगभाँड़ भारी
काल मरकीलवना ईंट-ईंट के उघरले बाड़े
पोखरा चिअरले दाँत मुँह करीखवले बाडे़
जूग बीति गइले सूने तुलसी के चउरा बाड़े
खाँची भर पसरल फइलल घूर बा, गन्हउरा बाड़े
रंग उड़ि गइले बाकी तनले सिवाला बा
आसनी बिछली मकरी कोने-कोने जाला बा
भीतर से सालेवाला भारी-भारी काँटा बा
झंखे लखरउआँ ठाढ़े सूने सूना भींडा बा
कुहुकेले कबहीं-कबहीं कारी कोइलरि निरदइया
ठनकेले कबहीं-कबहीं गइया चरवहवा भइया
फूल पर किरिनिया कबहीं घूँघरू बजावत आवे
रनिया बसन्ती कबहीं बेनिया डोलावति आवे
सभके द तरी तू
जरि घरी-घरी तू
दुनिया धधाइलि तोहार
दिल्ली बड़ी दूर बा।
- प्रस्तुति अलकनंदा सिंंह