Sunday, 7 July 2019

नये दिन के साथ एक पन्ना खुल गया कोरा हमारे प्यार का!...कवि केदारनाथ सिंह

आज कवि केदारनाथ सिंह का जन्‍म दिन है। केदार नाथ सिंह आज की युवा पीढ़ी पर अपनी गहरी छाप छोड़ते हैं। अपनी पूरी रचनात्मकता के साथ एक गहरा प्रतिरोध का स्वर भी उनकी कविता में किसी न किसी रूप में मौजूद रहता है।
7 जुलाई १९३४ को जन्‍मे थे, केदारनाथ सिंह हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि व साहित्यकार थे। वे अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष २०१३ का 49वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। वे यह पुरस्कार पाने वाले हिन्दी के 10वें लेखक थे।
उनकी ‘बाघ’ कविता संग्रह पाठकों के बीच बहुत लोकप्रिय रही है। ‘बाघ’ कविता के हर टुकड़े में बाघ चाहे एक अलग इकाई के रूप में दिखाई पड़ता हो, पर आख़िरकार सारे चित्र एक दीर्घ सामूहिक ध्वनि-रूपक में समाहित हो जाते हैं। कविता इतने बड़े फलक पर आकार लेती है कि उसमें जीवन की चुप्पियाँ और आवाजें साफ-साफ़ सुनाई देंगी।
‘बाघ’ कविता संग्रह के विषय में वे लिखते हैं, ”आज का मनुष्य बाघ की प्रत्यक्ष वास्तविकता से इतनी दूर आ गया है कि जाने-अनजाने बाघ उसके लिए एक मिथकीय सत्ता में बदल गया है। पर इस मिथकीय सत्ता के बाहर बाघ हमारे लिए आज भी हवा-पानी की तरह प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भविष्य जुड़ा हुआ है। 
 ‘बाघ’ कविता का एक अंश देखिए---
समय चाहे जितना कम हो स्थान चाहे उससे भी कम चाहे शहर में बची हो बस उतनी-सी हवा जितनी एक साइकिल में होती है पर जीना होगा जीना होगा और यहीं यहीं इसी शहर में जीना होगा इंच-इंच जीना होगा चप्पा-चप्पा जीना होगा और जैसे भी हो यहाँ से वहाँ तक समूचा जीना होगा
इस प्राकृतिक ‘बाघ’ के साथ उसकी सारी दुर्लबता के बावजूद-मनुष्य का एक ज़्यादा गहरा रिश्ता है, जो अपने भौतिक रूप में जितना पुराना है, मिथकीय रूप में उतना ही समकालीन।” उनकी कविताओं में ‘बाघ’ कई रूपों में पाठकों के सामने आता है।

कवि केदारनाथ सिंह ने अपने कविता संग्रह ”आंसू का वज़न” में लिखा है –
नये दिन के साथ
एक पन्ना खुल गया कोरा
हमारे प्यार का!
सुबह,
इस पर कहीं अपना नाम तो लिख दो।
बहुत से मनहूस पन्नों में
इसे भी कहीं रख दूँगा।
और जब-जब
हवा आकर
उड़ा जायेगी अचानक बन्द पन्नों को;
कहीं भीतर
मोरपंखी की तरह रखे हुए उस नाम को
हर बार पढ़ लूँगा।
समकालीन हिंदी कविता के क्षेत्र में केदारनाथ सिंह उन गिने-चुने कवियों में से हैं जिनमें ‘नयी कविता’ उत्कर्ष पर पहुँचती है। गाँव और शहर, लोक और आधुनिकता, चुप्पी और भाषा एवं प्रकृति और स्कृति सभी पर संवाद चलता रहता है।
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