Wednesday, 11 September 2019

स्‍मृति शेष: प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा की पुण्‍यतिथि पर पढ़‍िए उनके चुनिंदा गीत

हिन्दी की सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से एक महादेवी वर्मा की मृत्‍यु 11 सितंबर 1987 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुई।
26 मार्च 1907 को महादेवी वर्मा का जन्‍म उत्तर प्रदेश के ही फ़र्रुख़ाबाद जिले में हुआ था।
महादेवी जी की शिक्षा इंदौर में मिशन स्कूल से प्रारम्भ हुई। साथ ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, संगीत तथा चित्रकला की शिक्षा अध्यापकों द्वारा घर पर ही दी जाती रही। बीच में विवाह जैसी बाधा पड़ जाने के कारण कुछ दिन शिक्षा स्थगित रही। विवाहोपरान्त महादेवी जी ने 1919 में क्रास्थवेट कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया और कॉलेज के छात्रावास में रहने लगीं। 1921 में महादेवी जी ने आठवीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। यहीं पर उन्होंने अपने काव्य जीवन की शुरुआत की। वे सात वर्ष की अवस्था से ही कविता लिखने लगी थीं और 1925 तक जब उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की, वे एक सफल कवयित्री के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताओं का प्रकाशन होने लगा था। कालेज में सुभद्रा कुमारी चौहान के साथ उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई। सुभद्रा कुमारी चौहान महादेवी जी का हाथ पकड़ कर सखियों के बीच में ले जाती और कहतीं― “सुनो, ये कविता भी लिखती हैं”। 1932 में जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एमए पास किया तब तक उनके दो कविता संग्रह नीहार तथा रश्मि प्रकाशित हो चुके थे।
महादेवी वर्मा स्वयं अपने गीतों के बारे में कहती हैं कि उनके गीत किसी पक्षी के समान हैं। जिस प्रकार एक पंक्षी आकाश में उड़ान भरता है लेकिन फिर भी धरती है जुड़ा रहता है उसी प्रकार कवि भी कल्पना के आकाश में उड़ता है लेकिन वह सदैव धरती से जुड़ा रहता है। वह आसमान में जाकर भी धरती पर लौट कर आता है उसी प्रकार कवि भी अपने जीवन के प्रति सचेत रहता है।
महादेवी वर्मा छायावादी युग के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उनकी काव्य रचनाओं में रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, अग्निरेखा, प्रथम आयाम, सप्तपर्णा, यामा, आत्मिका, दीपगीत, नीलाम्बरा और सन्धिनी आदि शामिल हैं। महादेवी जी को संगीत का भी ज्ञान था इसलिए उनकी रचनाओं में नाद-सौंदर्य भी नज़र आता है। उनका काव्य गीत हो जाने के अधिक करीब महसूस होता है। 
पढ़ें उनके लिखे कुछ चुनिंदा गीत-

सांध्यगीत

प्राण रमा पतझार सजनि/ सांध्यगीत
प्राण रमा पतझार सजनि
अब नयन बसी बरसात री!
वह प्रिय दूर पन्थ अनदेखा,
श्वास मिटाते स्मृति की रेखा,
पथ बिन अन्त, पथिक छायामय,
साथ कुहकीनी रात री!
संकेतों में पल्लव बोले,
मृदु कलियों ने आँसू तोले,
असमंजस में डूब गया,
आया हँसती जो प्रात री!
नभ पर दूख की छाया नीली,
तारों की पलकें हैं गीली,
रोते मुझ पर मेघ,
आह रूँधे फिरता है वात री!
लघु पल युग का भार संभाले,
अब इतिहास बने हैं छाले,
स्पन्दन शब्द व्यथा की पाती,
दूत नयन-जलजात री!
जाग तुझको दूर जाना
चिर सजग आँखे उनींदी
चिर सजग आँखे उनींदी आज कैसा व्यस्त बाना!
जाग तुझको दूर जाना!
अचल हिमगिरि के हृदय में आज चाहे कम्प हो ले,
या प्रलय के आँसुओं में मौन अलसित व्योम रो ले;
आज पी आलोक को डोले तिमिर की घोर छाया,
जाग या विद्युत्-शिखाओं में निठुर तूफान बोले!
पर तुझे है नाश-पथ पर चिह्न अपने छोड़ आना!
जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बन्धन सजीले?
पन्थ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रँगीले?
विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर-गुनगुन,
क्या डुबा देंगे तुझे यह फूल के दल ओस-गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
नींद थी मेरी अचल निस्पन्द कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पन्दन में,
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बन्धन में,
कूल भी हूँ कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ!
नयन में जिसके जलद वह तुषित चातक हूँ,
शलभ जिसके प्राण में वह ठिठुर दीपक हूँ,
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ,
एक हो कर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखण्ड सुहागिनी भी हूँ!
आग हूँ जिससे ढुलकते बिन्दु हिमजल के,
शून्य हूँ जिसको बिछे हैं पाँवड़े पल के,
पुलक हूँ वह जो पला है कठिन प्रस्तर में,
हूँ वही प्रतिबिम्ब जो आधार के उर में;
नील घन भी हूँ सुनहली दामिनी भी हूँ!
काव्य संग्रह दीपशिखा से
जो न प्रिय पहिचान पाती
जो न प्रिय पहिचान पाती।
दौड़ती क्यों प्रति शिरा में प्यास विद्युत-सी तरल बन
क्यों अचेतन रोम पाते चिर व्यथामय सजग जीवन?
किसलिये हर साँस तम में
सजल दीपक राग गाती?
चांदनी के बादलों से स्वप्न फिर-फिर घेरते क्यों?
मदिर सौरभ से सने क्षण दिवस-रात बिखेरते क्यों?
सजग स्मित क्यों चितवनों के
सुप्त प्रहरी को जगाती?
मेघ-पथ में चिह्न विद्युत के गये जो छोड़ प्रिय-पद,
जो न उनकी चाप का मैं जानती सन्देश उन्मद,
किसलिये पावस नयन में
प्राण में चातक बसाती?
कल्प-युगव्यापी विरह को एक सिहरन में सँभाले,
शून्यता भर तरल मोती से मधुर सुधि-दीप बाले,
क्यों किसी के आगमन के
शकुन स्पन्दन में मनाती?
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