Friday, 24 February 2017

कविता- ये गरल तुम्‍हें पीना होगा

सृष्‍टि की खातिर शिव ने तब एक हलाहल पीया था,
अब एक हलाहल तुमको भी इसी तरह पीना होगा,

समरस सब होता जाए, निज और द्विज में फर्क मिटे,

आग्रह से अनाग्रह सब इसी तरह एक शून्‍य बनें ,

जीवन के अविरल तट तक पहुंचा दो सब तृष्‍णाओं को,

आस्‍तीनों के विषधरों को तुम्‍हें निजतन पै धारण करना होगा,

निश्‍चित कर लो इस रण के नियम- कि अब,
शीश उठाकर जीना है तो उन असुरों से लड़ना होगा,

जो छिपे हैं मन के कोनों में उन असुरों को बाहर करने को,
निज मन को विलोम में दौड़ाओ,
मन भीतर जिनका डेरा है, उन्‍हें त्‍याज्‍य अभी करना होगा,

धारण कर अब ‘त्रिशूल’ तुमको सृष्‍टि का शिव बनना होगा,
कालातीत को कालजयी कर काल-भाल पर मलना होगा।

कालजयी को अवसानों का भय कैसा, ये तो क्षणभर का तम है,
अंतहीन होता है वही जो स्‍वयं शिव सा सुंदरतम है,
ठीक समझ लो- फूल और कांटे दोनों ही शिव के अनन्‍य हैं

तो गरल उठा लो हर विरोध का, तुम सोना हो तो लपटों से भय क्‍या,
इसी आग से बाहर आकर तो तुमको शिव सा कुंदन बनना होगा।

- अलकनंदा सिंह
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