Thursday, 12 October 2023

सहज भाषा में गूढ़ से गूढ़ बात कह जाने वाले शायर हैं निदा फ़ाज़ली, पढ़‍िये उनकी ग़ज़लें और दोहे

आधुनिक उर्दू शायरी के लोकप्रिय शायर निदा फ़ाज़ली का आज जन्मदिन है। उनका जन्म 12 अक्तूबर 1938 को दिल्‍ली में हुआ था।  निदा फ़ाज़ली हिन्दी पढ़ने वालों के लिए भी उतने ही अजीज हैं, जितना उर्दू पाठकों के लिए। इनका पूरा नाम मुक़्तिदा हसन निदा फ़ाज़ली है, जो बाद में निदा फ़ाज़ली के रूप में प्रसिद्ध हुआ। 

निदा का अर्थ है स्वर/आवाज़/ Voice फ़ाज़िला कश्मीर के एक इलाके का नाम है जहाँ से निदा के पूर्वज आकर दिल्ली में बस गए थे, इसलिए उन्होंने अपने उपनाम में फ़ाज़ली जोड़ा। निदा फ़ाज़ली की मृत्यु 8 फरवरी 2016 को मुम्बई में हुई।

जीवन परिचय
निदा फ़ाज़ली की स्कूली शिक्षा ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में हुई थी। उनके पिता एक शायर थे, जो भारत विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए। भारतीयता के पोषक निदा फ़ाज़ली भारत को छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए। निदा फ़ाज़ली ने गज़लों के साथ दोहे भी बखूबी कहे, नज़्मों में भी उन्हें महारत हासिल थी। 1960 के दशक के दौरान अपने समकालीन शायरों कैफ़ी आज़मी, सरदार अली जाफ़री और साहिर लुधियानवी पर एक समीक्षात्मक किताब मुलाकातें भी निदा फ़ाज़ली ने लिखी। है। उनकी एक ही बेटी है, जिसका नाम तहरीर है। 
निदा फ़ाज़ली ने सन् 1946 में जीविका की खातिर मुम्बई का रुख़ किया। 'धर्मयुग' और 'ब्लिट्ज' में आलेख भी लिखे। मुशायरों में भी बेहद लोकप्रियता हासिल की। फ़िल्म 'रज़िया सुल्तान' के निर्माण के समय शायर जानिसार अख्तर के निधन के बाद फ़िल्म निर्माता कमाल अमरोही ने इन्हें गीत लिखने के लिए अवसर दिया। इनके लिखे गीत काफ़ी लोकप्रिय भी हुए। 

भाषा शैली
निदा फ़ाज़ली की शायरी की भाषा आम आदमी को भी समझ में आ जाती है। यह कवि/शायर सहज भाषा में गूढ़ से गूढ़ बात कहने में माहिर है। निदा फ़ाज़ली एक सूफ़ी शायर हैं। रहीम, कबीर और मीरा से प्रभावित होते हैं तो मीर और ग़ालिब भी इनमें रच- बस जाते हैं। निदा फाज़ली की शायरी की जमीन विशुद्ध भारतीय है। वो छोटी उम्र से ही लिखने लगे थे। जब वह पढ़ते थे तो उनके सामने की पंक्ति में एक लड़की बैठा करती थी जिससे वो एक अनजाना, अनबोला सा रिश्ता अनुभव करने लगे थे लेकिन एक दिन कॉलेज के बोर्ड पर एक नोटिस दिखा- कुमारी टंडन का एक्सीडेण्ट हुआ और उनका देहान्त हो गया है। निदा बहुत दु:खी हुए और उन्होंने पाया कि उनका अभी तक का लिखा कुछ भी उनके इस दु:ख को व्यक्त नहीं कर पा रहा है, ना ही उनको लिखने का जो तरीक़ा आता था उसमें वो कुछ ऐसा लिख पा रहे थे जिससे उनके अंदर का दु:ख की गिरहें खुलें। एक दिन सुबह वह एक मंदिर के पास से गुजरे जहाँ पर उन्होंने किसी को सूरदास का भजन मधुबन तुम क्यौं रहत हरे, बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौं न जरे... गाते सुना, जिसमें कृष्ण के मथुरा से द्वारका चले जाने पर उनके वियोग में डूबी राधा और गोपियाँ फुलवारी से पूछ रही होती हैं ऐ फुलवारी, तुम हरी क्यों बनी हुई हो? कृष्ण के वियोग में तुम खड़े-खड़े क्यों नहीं जल गईं? वह सुन कर निदा को लगा कि उनके अंदर दबे हुए दु:ख की गिरहें खुल रही हैं। फिर उन्होंने कबीरदास, तुलसीदास, बाबा फ़रीद इत्यादि कई अन्य कवियों को भी पढ़ा और उन्होंने पाया कि इन कवियों की सीधी-सादी, बिना लाग लपेट की, दो-टूक भाषा में लिखी रचनाएँ अधिक प्रभावकारी है जैसे सूरदास की ही 'ऊधो मन न भए दस बीस। एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अराधै ते ईस॥ तब से वैसी ही सरल भाषा सदैव के लिए उनकी अपनी शैली बन गई। 

निदा फ़ाज़ली की 2 ग़ज़लें 

1- सफ़र में धूप तो होगी, जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सम्हल सको तो चलो
हर इक सफ़र को है महफूज़ रास्तों की तलाश
हिफ़ाज़तों की रिवायत बदल सको तो चलो
यही है ज़िन्दगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को खुद ही बदल सको तो चलो

2- अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं 
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं 
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है 
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं 
वक्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से 
किसको मालूम, कहाँ के हैं किधर के हम हैं 
जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं 
कभी धरती के कभी चाँद नगर के हम हैं 
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब 
सोचते रहते हैं, किस राहगुज़र के हम हैं 
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम 
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं 


निदा फ़ाज़ली के दोहे
सबकी पूजा एक सी, अलग-अलग हर रीत। 
मस्जिद जाए मौलवी, कोयल गाए गीत॥ 
पूजा -घर में मूरती, मीरा के संग श्याम।
जितनी जिसकी चाकरी, उतने उसके दाम॥ 
सीता-रावण, राम का, करें बिभाजन लोग।
एक ही तन में देखिए, तीनों का संजोग॥ 
माटी से माटी मिले, खो के सभी निशान।
किसमें कितना कौन है, कैसे हो पहचान॥ 

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बच्चा बोला देख कर मस्जिद आली-शान 
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान 

घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव 
वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव 

नक़्शा ले कर हाथ में बच्चा है हैरान 
कैसे दीमक खा गई उस का हिन्दोस्तान 

वो सूफ़ी का क़ौल हो या पंडित का ज्ञान 
जितनी बीते आप पर उतना ही सच मान 

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार 
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार 

सम्मान और पुरस्कार
1998 में साहित्य अकादमी पुरस्कार - काव्य संग्रह खोया हुआ सा कुछ (1996)
2003 में स्टार स्क्रीन पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म 'सुर के लिए
2003 में बॉलीवुड मूवी पुरस्कार - श्रेष्टतम गीतकार - फ़िल्म सुर के गीत 'आ भी जा' के लिए
मध्य प्रदेश सरकार का मीर तकी मीर पुरस्कार (आत्मकथा रूपी उपन्यास 'दीवारों के बीच' के लिए)
मध्य प्रदेश सरकार का खुसरो पुरस्कार- उर्दू और हिन्दी साहित्य के लिए
महाराष्ट्र उर्दू अकादमी का श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार- उर्दू साहित्य के लिए
बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार
उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का पुरस्कार
हिन्दी उर्दू संगम पुरस्कार (लखनऊ) 

- अलकनंदा स‍िंंह 
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