Monday, 8 November 2021

मशहूर शायर जॉन एल‍िया… वो शख़्स ज‍िसे खुद को तबाह करने का मलाल नहीं रहा


 Jaun elia की शायरी में उनकी छलकती हुई संवेदनाएं हैं, वो जो भी हैं, जैसे भी हैं अपने जैसे हैं। दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में एक संभ्रांत परिवार में जौन ने जन्म लिया। जौन का इंतकाल आज ही के द‍िन यान‍ि  8 नवंबर, 2002 को हुआ।

जॉन एल‍िया यानी ऐसा नाम, कौतूहल जिनके नाम के साथ ही शुरू हो जाता है। अमरोहा में जन्मे,विभाजन के बाद भी दस साल तक भारत में रहे और फिर कराची चले गए। उसके बाद दुबई भी गए। संवाद शैली में,आसान शब्दों में,लगभग हर विषय पर नज्म या ग़ज़ल कह सकने वाले … मन के उलझे हुए तारों के गुंजलक को बड़ी सादगी के साथ सुलझाने वाले जौन मौत के बाद और भी अधिक मश्हूर हुए। उनकी गजलों पर दो किताबें देवनागरी में सामने आई हैं।

हिंदी जानने पढ़ने वालों को भी इस शायर के पास हर एहसास की ग़ज़लें दिखी हैं। नौजवान हों या बुजुर्ग, जॉन को सब पसंद करते हैं। उनका सोचने और कहने का ढंग लगभग सभी शायरों से अलग है। अब दौर यह है कि सोशल मीडिया पर जॉन अहमद फरा़ज और ग़ालिब से भी अधिक लोकप्रिय दिखते हैं।

14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे एलिया अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं।’शायद’,’यानी’,’गुमान’,’लेकिन’ और गोया’ प्रमुख संग्रह हैं। इनकी मृत्यु 8 नवंबर 2004 को हुई। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 2000 में प्राइड ऑफ परफार्मेंस अवार्ड भी दिया था। उन्‍हें अब तक सहज शब्‍दों में कठिन बात करने वाला,अजीब-ओ-गरीब जिंदगी जीने वाला,मंच पर ग़ज़ल पढ़ते हुए विभिन्‍न मुद्राएं बनाने वाला शायर ही माना गया है,लेकिन जॉन को अभी और बाहर आना है।

वह केवल रूमान के शायर नहीं थे,उनकी निजी जिंदगी जितनी भी दुश्‍वार क्‍यों न रही हो,वह ऐसे शायर हैं जिन्‍हें हर पीढ़ी पढ़ती है।

उनकी ये ग़ज़लेंं-   

 

रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है

दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है

शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है

एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है

तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है।

2. 

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो

तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो।

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या 

दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या 

मेरी हर बात बे-असर ही रही 

नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या 

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं 

यही होता है ख़ानदान में क्या 

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं 

हम ग़रीबों की आन-बान में क्या 

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से 

आ गया था मिरे गुमान में क्या 

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद 

नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या 

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़ 

तू नहाती है अब भी बान में क्या 

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में 

आबले पड़ गए ज़बान में क्या 

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या 

आ रहा है मिरे गुमान में क्या 

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत 

ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या 

वो मिले तो ये पूछना है मुझे 

अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या 

यूँ जो तकता है आसमान को तू 

कोई रहता है आसमान में क्या 

है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद 

ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या 

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता 

एक ही शख़्स था जहान में क्या।


4  

नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम 

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम 


ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी 

कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम 


ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं 

वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम 

- अलकनंदा स‍िंंह

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