Monday, 28 June 2021

अन्तोन चेखोव: पेश है उनकी ल‍िखी कहानी "ग‍िरग‍िट" जो आज भी उतनी ही प्रासंग‍िक है, पढ़‍िए


 एंटोन चेखोव का जन्म सेंट एंथनी द ग्रेट (17 जनवरी पुरानी शैली) के त्योहार के दिन 29 जनवरी 1860 को दक्षिणी रूस में अज़ोव सागर पर एक बंदरगाह टैगान्रोग में हुआ था। वह छह जीवित बच्चों में से तीसरा था। उनके पिता, पावेल एगोरोविच चेखोव, एक पूर्व सर्फ और उसकी यूक्रेनी पत्नी के बेटे, गांव ओलोवात्का (वोरोनिश गवर्नर) से था और एक किराने की दुकान से भाग गया। पैरिश गाना बजानेवाले, भक्त रूढ़िवादी ईसाई, और शारीरिक रूप से अपमानजनक पिता, पावेल चेखोव के एक निदेशक कुछ इतिहासकारों ने अपने बेटे के पाखंड के कई चित्रों के मॉडल के रूप में देखा है।


चेखोव की मां, येवगेनिया (मोरोज़ोवा), एक उत्कृष्ट कहानीकार थीं जिन्होंने पूरे रूस में अपने कपड़े-व्यापारी पिता के साथ अपनी यात्रा की कहानियों के साथ बच्चों का मनोरंजन किया था। चेखोव ने याद किया, "हमारी प्रतिभा हमें हमारे पिता से मिली," लेकिन हमारी मां से हमारी आत्मा।


अन्तोन चेखोव की प्रसिद्ध कहानी- ‘गिरगिट’ 


अन्तोन चेखोव की कहानी- ‘गिरगिट’ नौकरशाही के चरित्र को उजागर करती है। इस कहानी में पुलिस का जो चरित्र दिखाया गया है, वह आज भी वैसा ही है। कहानी में व्यंग्य की ऐसी तीक्ष्ण धार है जो पुलिसिया व्यवस्था पर कड़ी चोट करती है। खास बात यह है कि जब यह कहानी लिखी गई थी, तब से सौ साल से ज्यादा बीत जाने पर भी परिस्थिति जस की तस है। कहानी में भले ही तत्कालीन रूस की पुलिस व्यवस्था का चित्रण हुआ है, पर वह आज हमारे देश के लिए भी पूरी तरह सच है। यह कहानी हिंदी में बहुचर्चित रही है और इस पर आधारित नुक्कड़ नाटक भी खूब खेले गए हैं।   


कहानी ये है- 

पुलिस का दारोगा ओचुमेलोव नया ओवरकोट पहने, हाथ में एक बण्डल थामे बाजार के चौक से गुज़र रहा है। लाल बालों वाला एक सिपाही हाथ में टोकरी लिये उसके पीछे-पीछे चल रहा है। टोकरी जब्त की गयी झड़बेरियों से ऊपर तक भरी हुई है। चारों ओर ख़ामोशी…चौक में एक भी आदमी नहीं…दुकानों व शराबखानों के भूखे जबड़ों की तरह खुले हुए दरवाज़े ईश्वर की सृष्टि को उदासी भरी निगाहों से ताक रहे हैं। यहाँ तक कि कोई भिखारी भी आसपास दिखायी नहीं देता है।


“अच्छा! तो तू काटेगा? शैतान कहीं का!” ओचुमेलोव के कानों में सहसा यह आवाज़ आती है। “पकड़ लो, छोकरो! जाने न पाये! अब तो काटना मना है! पकड़ लो! आ…आह!”


कुत्ते के किकियाने की आवाज़ सुनायी देती है। ओचुमेलोव मुड़ कर देखता है कि व्यापारी पिचूगिन की लकड़ी की टाल में से एक कुत्ता तीन टाँगों से भागता हुआ चला आ रहा है। एक आदमी उसक पीछा कर रहा है – बदन पर छीट की कलफदार कमीज, ऊपर वास्कट और वास्कट के बटन नदारद। वह कुत्ते के पीछे लपकता है और उसे पकड़ने की कोशिश में गिरते-गिरते भी कुत्ते की पिछली टाँग पकड़ लेता है। कुत्ते की कीं-कीं और वही चीख़ – “जाने न पाये!” दोबारा सुनायी देती है। ऊँघते हुए लोग गरदनें दुकनों से बाहर निकल कर देखने लगते हैं, और देखते-देखते एक भीड़ टाल के पास जमा हो जाती है मानो ज़मीन फाड़ कर निकल आयी हो।


“हुजूर! मालूम पड़ता है कि कुछ झगड़ा-फसाद है!” सिपाही कहता है।


ओचुमेलोव बायीं ओर मुड़ता है और भीड़ की तरफ़ चल देता है। वह देखता है कि टाल के फाटक पर वही आदमी खड़ा है, जिसकी वास्कट के बटन नदारद हैं। वह अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाये भीड़ को अपनी लहूलुहान उँगली दिखा रहा है। उसके नशीले चेहरे पर साफ़ लिखा लगता है, “तुझे मैंने सस्ते में न छोड़ा, साले!” और उसकी उँगली भी जीत का झण्डा लगती है। ओचुमेलोव इस व्यक्ति को पहचान लेता है। वह सुनार ख्रूकिन है। भीड़ के बीचोंबीच अगली टाँगें पसारे, अपराधी – एक सफ़ेद ग्रेहाउँड पिल्ला, दुबका पड़ा, ऊपर से नीचे तक काँप रहा है। उसका मुँह नकीला है और पीठ पर पीला दाग है। उसकी आँसू भरी आँखों में मुसीबत और डर की छाप है।


“क्‍या हंगामा मचा रखा है यहाँ?” ओचुमेलोव कन्धों से भीड़ को चीरते हुए सवाल करता है, “तुम उँगली क्यों ऊपर उठाये हो? कौन चिल्ला रहा था?”


“हुजूर! मैं चुपचाप अपनी राह जा रहा था,” ख्रूकिन अपने मुँह पर हाथ रख कर खाँसते हुए कहता है। मित्री मित्रिच से मुझे लकड़ी के बारे में कुछ काम था। एकाएक, मालूम नहीं क्यों, इस कमबख्त ने मेरी उँगली में काट लिया…हुजूर माफ़ करें, पर मैं कामकाजी आदमी ठहरा…और फिर हमारा काम भी बड़ा पेचीदा है। एक हफ्ते तक शायद मेरी यह उँगली काम के लायक न हो पायेगी। मुझे हरजाना दिलवा दीजिये। और, हुजूर, यह तो कानून में कहीं नहीं लिखा है कि ये मुए जानवर काटते रहें और हम चुपचाप बरदाश्त करते रहें…अगर हम सभी ऐसे ही काटने लगें, तब तो जीना दूभर हो जाये…”


“हुँह…अच्छा…” ओचुमेलोव गला साफ़ करके, त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहता है, “ठीक है…अच्छा, यह कुत्ता है किसका? मैं इस बात को यहीं नहीं छोड़ुंगा! यों कुत्तों को छुट्टा छोड़ने का मजा चखा दूँगा! लोग कानून के मुताबिक नहीं चलते, उनके साथ अब सख्ती से पेश आना पड़ेगा! ऐसा जुरमाना ठोकूंगा कि दिमाग़ ठीक हो जायेगा बदमाश को! फ़ौरन समझ जायेगा कि कुत्तों और हर तरह के ढोर-डंगर को ऐसे छुट्टा छोड़ देने का क्या मतलब है! मैं ठीक कर दूँगा, उसे! येल्दीरिन! सिपाही को सम्बोधित कर दारोगा चिल्लाता है, पता लगाओ कि यह कुत्ता है किसका, और रिपोर्ट तैयार करो! कुत्ते को फ़ौरन मरवा दो! यह शायद पागल होगा…मैं पूछता हूँ यह कुत्ता है किसका?”


“यह शायद जनरल झिगालोव का हो!” भीड़ में से कोई कहता है। “जनरल झिगालोव का? हुँह…येल्दीरिन, जरा मेरा कोट तो उतारना…ओफ, बड़ी गर्मी है…मालूम पड़ता है कि बारिश होगी। अच्छा, एक बात मेरी समझ में नहीं आती कि इसने तुम्हें काटा कैसे?” ओचुमेलोव ख्रूकिन की ओर मुड़ता है। “यह तुम्हारी उँगली तक पहुँचा कैसे? यह ठहरा जरा सा जानवर और तुम पूरे लहीम-शहीम आदमी। किसी कील-वील से उँगली छील ली होगी और सोचा होगा कि कुत्ते के सिर मढ़ कर हरजाना वसूल कर लो। मैं ख़ूब समझता हूँ! तुम्हारे जैसे बदमाशों की तो मैं नस-नस पहचानता हूँ!”


“इसने उसके मुँह पर जलती हुई सिगरेट लगा दी, हुजूर! बस, यूँ ही मज़ाक़ में। और यह कुत्ता बेवक़ूफ़ तो है नहीं, उसने काट लिया। ओछा आदमी है यह हुजूर!”


“अबे! काने! झूठ क्यों बोलता है? जब तूने देखा नहीं, तो झूठ उड़ाता क्यों है? और सरकार तो ख़ुद समझदार हैं। सरकार ख़ुद जानते हैं कि कौन झूठा है और कौन सच्चा। और अगर मैं झूठा हूँ, तो अदालत से फैसला करा लो। कानून में लिखा है…अब हम सब बराबर हैं, ख़ुद मेरा भाई पुलिस में है…बताये देता हूँ…हाँ…”


“बन्द करो यह बकवास!”


“नहीं, यह जनरल साहब का नहीं है,” सिपाही गंभीरतापूर्वक कहता है “उनके पास ऐसा कोई कुत्ता है ही नहीं, उनके तो सभी कुत्ते शिकारी पोण्टर हैं।


“तुम्हें ठीक मालूम है?”


“जी, सरकार।”


“मैं भी जानता हूँ। जनरल साहब के सब कुत्ते अच्छी नस्ल के हैं, एक से एक कीमती कुत्ता है उनके पास। और यह! यह भी कोई कुत्तों जैसा कुत्ता है, देखो न! बिल्कुल मरियल खारिश्ती है। कौन रखेगा ऐसा कुत्ता? तुम लोगों का दिमाग़ तो खराब नहीं हुआ? अगर ऐसा कुत्ता मास्को या पीटर्सबर्ग में दिखायी दे, तो जानते हो क्या हो? कानून की परवाह किये बिना एक मिनट में उसकी छुट्टी कर दी जाये! ख्रूकिन! तुम्हें चोट लगी है और तुम इस मामले को यूँ ही मत टालो…इन लोगों को मजा चखाना चाहिए! ऐसे काम नहीं चलेगा।”


“लेकिन मुमकिन है, जनरल साहब का ही हो…” कुछ अपने आपसे सिपाही फिर कहता है, “इसके माथे पर तो लिखा नहीं है। जनरल साहब के अहाते में मैंने कल बिल्कुल ऐसा ही कुत्ता देखा था।”


“हाँ, हाँ, जनरल साहब का ही तो है!” भीड़ में से किसी की आवाज़ आती है।


“हुँह…येल्दीरिन, जरा मुझे कोट तो पहना दो…हवा चल पड़ी है, मुझे सरदी लग रही है…कुत्ते को जनरल साहब के यहाँ ले जाओ और वहाँ मालूम करो। कह देना कि इसे सड़क पर देख कर मैंने वापस भिजवाया है…और हाँ, देखो, यह भी कह देना कि इसे सड़क पर न निकलने दिया करें…मालूम नहीं कितना कीमती कुत्ता हो और अगर हर बदमाश इसके मुँह में सिगरेट घुसेड़ता रहा, तो कुत्ता तबाह हो जायेगा। कुत्ता बहुत नाजुक जानवर होता है…और तू हाथ नीचा कर, गधा कहीं का! अपनी गन्दी उँगली क्यों दिखा रहा है? सारा कुसूर तेरा ही है…


“यह जनरल साहब का बावर्ची आ रहा है, उससे पूछ लिया जाये। ए प्रोखोर! इधर तो आना भाई! इस कुत्ते को देखना, तुम्हारे यहाँ का तो नहीं है?”


“अमाँ वाह! हमारे यहाँ कभी भी ऐसे कुत्ते नहीं थे!”


“इसमें पूछने की क्या बात थी? बेकार वक्त खराब करना है,” ओचुमेलोव कहता है, “आवारा कुत्ता है। यहाँ खड़े-खड़े इसके बारे में बात करना समय बरबाद करना है। कह दिया न आवारा है, तो बस आवारा ही है। मार डालो और काम ख़त्म!”


“हमारा तो नहीं है,” प्रोखोर फिर आगे कहता है, “पर यह जनरल साहब के भाई साहब का कुत्ता है। उनको यह नस्ल पसन्द है…”


“क्‍या? जनरल साहब के भाई साहब आये हैं? व्लीदीमिर इवानिच?” अचम्भे से ओचुमेलोव बोल उठता है, उसका चेहरा आह्लाद से चमक उठता है। “जरा सोचो तो! मुझे मालूम भी नहीं! अभी ठहरेंगे क्या?”


“हाँ…”


“जरा सोचो, वह अपने भाई से मिलने आये हैं…और मुझे मालूम भी नहीं कि वह आये हैं। तो यह उनका कुत्ता है? बड़ी ख़ुशी की बात है। इसे ले जाओ…कुत्ता अच्छा…और कितना तेज़़ है…इसकी उँगली पर झपट पड़ा! हा-हा-हा…बस-बस, अब काँप मत। गुर्र-गुर्र…शैतान गुस्से में है…कितना बढ़िया पिल्ला है…”


प्रोखोर कुत्ते को बुलाता है और उसे अपने साथ ले कर टाल से चल देता है। भीड़ ख्रूकिन पर हसने लगती है।


“मैं तुझे ठीक कर दूँगा,” ओचुमेलोव उसे धमकाता है और अपना ओवरकोट लपेटता हुआ बाजार के चौक के बीच अपने रास्ते चल देता है।


(1884)

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंह


Saturday, 5 June 2021

O. Henry की पुण्यत‍िथ‍ि: पढ़‍िए उनकी कहानी - #TheLastLeaf


 विलियम सिडनी पोर्टर… अर्थात् O. Henry, आज ही के द‍िन उनका न‍िधन न्यूयॉर्क में हुआ था। आज O. Henry की पुण्यत‍िथ‍ि पर उनकी कुछ कहान‍ियों से हम उन्हें याद करते हैं ज‍िनमें द गिफ्ट ऑफ द मैगी, द रैंसम ऑफ रेड चीफ, द कॉप एंड द एंथम थीं तो कहानी – द लास्ट लीफ (आखिरी पत्ता) भी थी ज‍िसपर भारत में रंगमंच पर ना जाने क‍ितनी बार बेम‍िसाल प्रस्तुत‍ियां दी गईं।

इस कहानी पर आधारित १९५२ में ओ. हेनरी’ज फुल हाउस नामक फ‍िल्म बनी और पुनः 1983 में 24-मिनट की फ़िल्म बनी। 2013 में बॉलीवुड फिल्म लुटेरा भी इसी कहनी पर आधारित निर्मित की गयी।

“द लास्ट लीफ” (The Last Leaf) ओ हेनरी द्वारा रचित एक लघु कथा है। ग्रीनविच गाँव में रहने वाले पात्रों और विषयों के बारे में इसमें बताया जाता है, जैसा ओ हेनरी की कृतियों में पाया जाता है।

तो पढ़‍िए ओ. हेनरी की कृत‍ि द लास्ट लीफ ( आख‍िरी पत्ता) –

वाशिंगटन चौक के पश्चिम की ओर एक छोटा-सा मुहल्ला है जिसमें टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के जाल में कई बस्तियां बसी हुई हैं। ये बस्तियां बिना किसी तरतीब के बिखरी हुई है। कहीं-कहीं सड़क अपना ही रस्ता दो-तीन बार काट जाती है। इस सड़क के सम्बन्ध में एक कलाकार के मन में अमूल्य सम्भावना पैदा हुई कि कागज, रंग और कैनवास का कोई व्यापारी यदि तकादा करने यहां आये तो रास्ते में उसकी अपने आपसे मुठभेड़ हो हो जायेगी और उसे एक पैसा भी वसूल कियेबिना वापिस लौटना पड़ेगा।
इस टूटे-फ़ूटे और विचित्र,’ग्रीनविच ग्राम’ नामक मुह्ल्ले में दुनिया भर के कलाकार आकर एकत्रित होने लगे। वे सब के सब उत्तर दिशा में खिड़कियां, अठारहवीं सदी के महराबें, छत के कमरे और सस्ते किरायों की तलाश में थे। बस छठी सड़क से कुछ कांसे के लोटे और टिन की तश्तरियां खरीद लाये और ग्रहस्थी बसा ली।
एक नीचे से मकान के तीसरी मंजिल पर, सू जौर जान्सी का स्टूडियो था। जान्सी, जोना का अपभ्रंश था। एक ‘मेईन’ से आयी थी और दूसरी ‘कैलाफ़ोर्निया’ से। दोनों की मुलाकात, आठवीं सड़क के एक अत्यन्त सस्ते होटल में हुई थी। दोनों की कलारूचि और खाने-पीने की पसन्द में इतनी समानता थी कि दोनों के मिले-जुले स्टूडियो का जन्म हो गया।
यह बात मई के महीने की थी। नवम्बर की सर्दियों में एक अज्ञात अजनबी ने, जिसे डाक्टर लोग ‘निमोनिया’ कहते हैं। मुहल्ले में डेरा डाल कर, अपनी बर्फ़ीली उंगलियों से लोगों को छेड़ना शुरू किया। पूर्वी इलाके में तो इस सत्यनाशी ने बीसियों लोगों की बलि लेकर तहलका मचा दिया था, परन्तु पश्चिम की तंग गलियों वाले जाल में उसकी चाल कुछ धीमी पड़ गयी।
मिस्टर ‘निमोनिया’ स्त्रियों के साथ भी कोई रिआयत नहीं करते थे। कैलीफ़ोर्निया की आंधियों से जिसका खून फ़ीका पड़ गया हो, ऎसे किसी दुबली-पतली लड़की का इस भीमकाय फ़ुंकारते दैत्य से कोई मुकाबला तो नही था, फ़िर भी उसने जान्सी पर हमला बोल दिया। वह बेचारी चुपचाप अपनी लोहे की खाट पर पड़ी रहती और शीशे की खिड़की में से सामने के ईटों के मकान की कोरी दीवार को देखा करती।

एक दिन उसका इलाज करने वाले बूढ़े डाक्टर ने, थर्मामीटर झटकते हुये, सू को बाहर के बरामदे में बुलाकर कहा,”उसके जीने की संभावना रूपये में दो आना है और, वह भी तब, यदि उसकी इच्छा-शक्ति बनी रहे। जब लोगों के मन में जीने की इच्छा ही नही रहती और वे मौत का स्वागत करने को तैयार हो जाते हैं तो उनका इलाज धन्वंतरि भी नहीं कर सकते। इस लड़की के दिमाग पर भूत सवार हो गया है कि वह अब अच्छी नहीं होगी। क्या उसके मन पर कोई बोझ है?”
सू बोली,”और तो कुछ नहीं, पर किसी रोज नेपल्स की खाड़ी का चित्र बनाने की उसकी प्रबल आकांक्षा है।”
“चित्र? हूं! मैं पूछ रहा था, कि उसके जीवन में कोई ऎसा आकर्षण भी है कि जिससे जीने की इच्छा तीव्र हो? जैसे कोई नौजवान!”
बिच्छू के डंक की-सी चुभती आवाज में सू बोली,” नौजवान? पुरूष और प्रेम-छोड़ो भी-नहीं डाक्टर साहब, ऎसी कोई बात नहीं है।”
डाक्टर बोला,”सारी बुराई की जड़ यही है। डाक्टरी विद्या के अनुसार जो कुछ मुझसे मुमकिन है, उसे किये बिना नहीं छोडूंगा। पर जब कोई मरीज अपनी अर्थी के साथ चलने वालों की संख्या गिनने लगा जाता है तब दवाइयों की शाक्ति आधी रह जाती है। अगर तुम उसके जीवन में कोई आकर्षण पैदा कर सको, जिससे वहअगली सर्दियों में प्रचलित होने वाले कपड़ो के फ़ैशन के बारे में चर्चा करने लगे, तो उसके जीने की संभावना कम से कम दूनी हो जायेगी।”
डाक्टर के जाने के बाद सू अपने कमरे में गयी और उसने रो-रो कर कई रूमाल निचोड़ने काबिल कर दिये। कुछ देर बाद, चित्रकारी का सामान लेकर, वह सीटी बजाती हुई जान्सी के कमरे में पहुंची। जान्सी, चद्दर ओढ़े, चुपचाप, बिना हिले-डुले, खिड़की की ओर देखती पड़ी थी। उसे सोई हुई जान कर उसने सीटी बजाना बन्द कर दिया।
तख्ते पर कागज लगाकर वह किसी पत्रिका की कहानी के लिए, कलम स्याही से एक तस्वीर बनाने बैठी। नवोदित कलाकारों को ‘कला’ की मंजिल तक पहुंचने केलिए, पत्रिकाओं के लिए तस्वीरें बनानी ही पड़ती है। जैसे साहित्य की मंजिल तक पहुंचने के लिए, नवोदित लेखकों को पत्रिकाओं की कहानियां लिखनी पड़तीहै।
ज्यों ही सू, एक घुड़सवार जैसा ब्रीजस पहने, एक आंख का चश्मा लगाये, किसी इडाहो के गडरिये के चित्र की रेखाएं बनाने लगी कि उसे एक धीमी आवाज अनेक बार दुहराती-सी सुनाई दी। वह शीघ्र ही बीमार के बिस्तरे के पास गयी।
जान्सी की आंखे खुली थीं। वह खिड़की से बाहर देख रही थी और कुछ गिनती बोल रही थी। लेकिन वह उल्टा जप कर रही थी। वह बोली,”बारह” फ़िर कुछ देर बाद “ग्यारह” फ़िर “दस” और “नौ” और तब एक साथ “आठ” और “सात”।
सू ने उत्कण्ठा से, खिड़की के बाहर नजर डाली। वहां गिनने लायक क्या था। एक खुला, बंजर चौक या बीस फ़ीट दूर ईंटों के मकान की कोरी दीवार!
एक पुरानी, ऎंठी हुई, जड़े निकली हुए,. सदाबहार की बेल दीवार की आधी ऊंचाई तक चढ़ी हुई थी। शिशिर की ठंडी सांसो ने उसके शरीर की पत्तियां तोड़ ली थीं और उसकी कंकाल शाखाएं, एकदम उघाड़ी, उन टूटी-फ़ूटी ईटों से लटक रही थीं।
सू ने पूछा,”क्या है जानी?”
अत्यन्त धीमे स्वरों में जान्सी बोली,”छ:! अब वे जल्दी-जल्दी गिर रही हैं। तीन दिन पहले वहां करीब एक सौ था। उन्हें गिनते-गिनते सिर दुखने लगाता था। वह, एक और गिरी। अब बची सिर्फ़ पांच।”
“पांच क्या? जानी, पांच क्या? अपनी सू को तो बता!”
“पत्तियां। उस बेल की पत्तियां। जिस वक्त आखिरी पत्ती गिरेगी, मैं भी चली जाऊंगी। मुझे तीन दिन से इसका पता है। क्या डाक्टर ने तुम्हें नहीं बताया?”
अत्यन्त तिरस्कार के साथ सू ने शिकायत की, “ओह! इतनी बेवकूफ़ तो कहीं नही देखी। तेरे ठीक होने का इन पत्तियों से क्या सम्बन्ध है? तू उस बैल से प्यार किया करती थी-क्यों इसलिए? बदमाश! अपनी बेवकूफ़ी बन्द कर! अभी सुबह ही तो डाक्टर ने बताया था कि तेरे जल्दी से ठीक होने की संभावना-ठीक किन शब्दो में कहां था-हां, कहा था, संभावना रूपये में चौदह आना है और न्यूयार्क में, जब हम किसी टैक्सी में बैठते हैं या किसी नयी इमारत के पास से गुजरते हैं, तब भी जीने की संभावना इससे आधिक नहीं रहती। अब थोड़ा शोरबा पीने की कोशिश कर और अपनी सू को तस्वीर बनाने दे, ताकि उसे सम्पादक महोदय के हाथों बेच कर वह अपने बीमार बच्ची के लिए थोड़ी दवा-दारू और अपने खुद के पेट के लिए कुछ रोटी-पानी ला सके।”
अपनी आंखों को खिड़की के बाहर टिकाये जान्सी बोली,”तुम्हें अब मेरे लिए शराब लाने की जरूरत नहीं। वह, एक और गिरी। नहीं मुझे शोरबे की भी जरूरत नहीं। अब सिर्फ़ चार रह गयीं। अन्धेरा होने से पहिले उस आखिरी पत्ती को गिरते हुए देख लूं-बस। फ़िर मैं भी चली जाऊंगी।”
सू उस पर झुकती हुई बोली,’प्यारी जान्सी! तुझे प्रतिज्ञा करनी होगी कि तू आंखे बन्द रखेगी और जब तक मैं काम करती हूं, खिड़की से बाहर नहीं देखेगी। कल तक ये तस्वीर पहुंचा देनी हैं। मुझे रोशनी की जरूरत है, वर्ना अभी खिड़की बन्द कर देती।”
जान्सी ने रूखाई से पूछा,”क्या तुम दूसरे कमरे में बैठकर तस्वीरें नहीं बन सकती?”
सू ने कहा,”मुझे तेरे पास ही रहना चहिये। इसके अलावा, मैं तुझे उस बेल की तरफ़ देखने देना नहीं चाहती।”
किसी गिरी हुई मूर्ति की तरह निश्चल और सफ़ेद, अपनी आखे बन्द करती हुई, जान्सी बोली,”काम खत्म होते ही मुझे बोल देना, क्योकिं मैं उस आखिरी पत्ती को गिरते हुए देखना चाहती हूं। अब अपनी हर पकड़ को ढीला छोड़ना चाहती हूं और उन बिचारी थकी हुई पत्तियों की तरह तैरती हुई नीचे-नीचे-नीचे चलीजाना चाहती हूं।”
सू ने कहा,” तू सोने की कोशिश कर। मैं खान में मजदूर का माडल बनने के लिए उस बेहरमैन को बुला लाती हूं। अभी, एक मिनट में आयी। जब तक मैं नहीं लौंटूं, तू हिलना मत!”
बूढ़ा बेहरमैन उनके नीचे ही एक कमरे में रहता था। वह भी चित्रकार था। उसकी उम्र साठ साल से भी अधिक थी। उसकी दाढ़ी, मायकल एंजेलो की तस्वीर के मोजेस की दाढ़ी की तरह, किसी बदशक्ल बंदर के सिर से किसी भूत के शरीर तक लहराती मालूम पड़ती थी। बेरहमैम एक असफ़ल कलाकार था। चालीस वर्षो से वह साधना कर रहा था, लेकिन अभी तक अपनी कला के चरण भी नहीं छू सका था। वह हर तस्वीर को बनाते समय यही सोचता कि यह उसकी उत्क्रष्ट क्रति होगी, पर कभी भी वैसी बना नहीं पाता। इधर कई वर्षो से उसने व्यावसायिक या विज्ञापन-चित्र बनाने के सिवाय, यह धन्धा ही छोड़ दिया था। उन नवयुवक कलाकारों के लिए मांडल बनकर, जो किसी पेशेवर मांडल की फ़ीस नहीं चुका सकते थे, वह आजकल अपना पेट भरता था। वह जरूरत से ज्यादा शराब पी लेता और अपनी उस उत्क्रष्ट क्रति के विषय में बकवास करता जिसके सपने वह संजोता था। वैसे वह बड़ा खूंखार बूढ़ा था, जो नम्र आदमियों की जोरदार मजाक उड़ाता और अपने को इन दोनों जवान कलाकारों का पहरेदार कुत्ता समझा करता।
सू ने बेहरमैन को अपने अंधेरे अड्डे में पड़ा पाया। उसमें से बेर की गुठलियों-सी गन्ध आ रही थी। एक कोने में वह कोरा कनवास खड़ा था, जो उसकी उत्क्रष्ट कलाक्रति की पहिली रेखा का अंकन पाने की, पच्चीस वर्षो से बाट जोह रहा था। उसने बूढ़े को बताया कि कैसे जान्सी उन पत्तों के साथ अपने पत्ते जैसे कोमल शरीर का सम्बन्ध जोड़ कर, उनके समान बह जाने की भयभीत कल्पना करती है और सोचती है कि उसकी पकड़ संसार पर ढीली हो जायेगी।
बूढ़े बेहरमैन ने इन मूर्ख कल्पनाओं पर गुस्से से आंखे निकाल कर अपना तिरस्कार व्यक्त किया।
वह बोला,”क्या कहा? क्या अभी तक दुनिया में ऎसे मूर्ख भी हैं, जो सिर्फ़ इसलिए कि एक उखड़ी हुई बेल से पत्ते झड़ रहे हैं, अपने मरने की कल्पना कर लेते है? मैंने तो ऎसा कहीं नहीं सुना! मैं तुम्हारे जैसे बेवकूफ़ पागलों के लिए कभी माडल नहीं बन सकता। तुमने उसके दिमाग में इस बात को घुसने ही कैसे दिया? अरे, बिचारी जान्सी!”
सू ने कहा,”वह बीमारी से बहुत कमजोर हो गयी है और बुखार के कारण ही उसके दिमाग में ऎसी अजीब-अजीब कलुषित कल्पनाएं जाग उठी हैं। अच्छा; बूढ़े बेहरमैन, तुम अगर मेरे लिए माडल नहीं बनना चाहते तो मत बनो। हो तो आखिर उल्लू के पट्ठे ही!”
बेरहमैन चिल्लाया,”तू तो लड़की की लड़की ही रही! किसने कहा कि मैं माडल नहीं बनूंगा? चल, मैं तेरे साथ चलता हूं। आधे घण्टे से यही तो झींक रहा हूं कि भई चलता हूं-चलता हू! लेकिन एक बात कहूं- यह जगह जान्सी जैसी अच्छी लड़की के मरने लायक नहीं है। किसी दिन जब मै अपनी उत्क्रष्ट कलाक्रति बना लूंगा तब हम सब यहां से चल चलेंगे। समझी? हां!”
जब वे लोग ऊपर पहुंचे तो जान्सी सो रही थी। सू ने खिड़कियों के पर्दे गिरा दिये और बेहरमैन को दूसरे कमरे में ले गयी। वहां से उन्होंने भयभीत द्रष्टि से खिड़की के बाहर उस बेल की ओर देखा। फ़िर उन्होंने, बिना एक भी शब्द बोले, एक-दूसरे की ओर देखा। अपने साथ बर्फ़ लिये हुये ठंडी बरसात लगातार गिर रही थी। एक केटली को उल्टा करके उस पर नीली कमीज में बेहरमैन को बिठाया गया जिससे चट्टान पर बैठे हुये, किसी खान के मजदूर का माडल बन जाये।
एक घण्टे की नींद के बाद जब दूसरे दिन सुबह, सू की आंख खुली तो उसने देखा कि जान्सी जड़ होकर, खिड़की के हरे पर्दे की ओर आंखे फ़ाड़ कर देख रही है। सुरसुराहट के स्वर में उसने आदेश दिया,”पर्दे उठा दे, मै देखना चाहती हूं।”
विवश होकर सू को आज्ञा माननी पड़ी।
लेकिन यह क्या! रात भर वर्षा, आंधी तूफ़ान और बर्फ़ गिरने पर भी ईंटो की दीवार से लगी हुई, उस बेल में एक पत्ती थी। अपने डंठल के पास कुछ गहरी हरी, लेकिन अपने किनारों के आसपास थकावट और और झड़ने की आशंका लिए पीली-पीली, वह पत्ती जमीन से कोई बीस फ़ुट ऊंची अभी तक अपनी डाली से लटकरही थी।
जान्सी ने कहा,” यही आखिरी है। मैंने सोचा था कि यह रात में जरूर ही गिर जायगी। मैनें तूफ़ान की आवाज भी सुनी। खैर, कोई बात नहीं यह आज गिर जायेगी और उसी समय मैं भी मर जाऊंगीं।”
तकिये पर अपना थका हुआ चेहरा झुका कर सू बोली,”क्या कहती है पागल! अपना नहीं तो कम से कम मेरा ख्याल कर! मैं क्या करूंगी?”
पर जान्सी ने कोई जवाब नहीं दिया। इस दुनिया की सबसे अकेली वस्तु यह ‘आत्मा’ है, जब वह अपनी रहस्यमयी लम्बी यात्रा पर जाने की तैयारी में होती है। ज्यों-त्यों संसार और मित्रता से बांधने वाले उसके बन्धन ढ़ीले पड़ते गये त्यों-त्यों उसकी कल्पना ने उसे अधिक जोर से जकड़ना शुरू कर दिया।
दिन बीत गया और संध्या के क्षीण प्रकाश में भी, दीवार से लगी हुई बेल से लटका हुआ वह पत्ता, उन्हें दिखाई देता रहा। पर तभी रात पड़ने के साथ-साथ, उत्तरी हवाएं फ़िर चलने लगीं और वर्षा की झड़ियां खिड़की से टकरा कर छज्जे पर बह आयीं।
रोशनी होते ही निर्दयी जान्सी ने आदेश दिया कि पर्दे उठा दिये जाये।
बेल में पत्ती अब तक मौजूद थी।
जान्सी बहुत देर तक उसी को एकटक देखती रही। उसने सू को पुकारा, जो चौके में स्टोव पर मुर्गी का शोरबा बना रही थी। जान्सी बोली,”सूडी, मैं बहुत ही खराब लड़की हूं। कुदरत की किसी शक्ति ने, उस अन्तिम पत्ती को वहीं रोक कर, मुझे यह बता दिया कि मैं कितनी दुष्ट हूं। इस तरह मरना तो पाप है। ला, मुझे थोड़ा-सा शोरबा दे और कुछ दूध में जहर मिलाकर ला दे। पर नहीं, उससे पहले मुझे जरा शीशा दे और मेरे सिरहाने कुछ तकिये लगा, ताकि मैं बैठे-बैठे तुझे खाना बनाते हुए देख सकूं।”
कोई एक घंण्टे बाद वह बोली,”सूडी, मुझे लगता है कि मैं कभी न कभी नेपल्स की खाड़ी का चित्र जरूर बनाऊंगी।”
शाम को डाक्टर साहब फ़िर आये सू, कुछ बहाना बनाकर, उनसे बाहर जाकर मिली। सू दे दुर्बल कांपते हाथ को अपने हाथों में लेकर डाक्टर साहब बोले, “अब संभावना आठ आना मानी जा सकती है। अगर परिचर्या अच्छी हुई तो तुम जीत जाओगी और अब मैं, नीचे की मंजिल पर, एक-दूसरे मरीज को देखने जा रहा हूं। क्या नाम है उसका- बेहरमैन!-शायद कोई कलाकार है-निमोनिया हो गया है। अत्यन्त दुर्बल और बुरा आदमी है और झपट जोर की लगी है। बचने की कोई संभावना नहीं। आज उसे अस्पताल भिजवां दूंगा। वहां आराम ज्यादा मिलेगा।”
दूसरे दिन डाक्टर ने सू से कहा,”जान्सी, अब खतरे से बाहर है। तुम्हारी जीत हुई। अब तो सिर्फ़ पथ्य और देखभाल की जरूरत है।”
उस दिन शाम को सू, जान्सी के पलंग के पास आकर बैठ गयी। वह नीली ऊन का एक बेकार-सा गुलबन्द, निश्चिन्त होकर बुन रही थी। उसने तकिये के उस ओर से, अपनी बांह, सू के गले में डाल दी।
सू बोली,”मेरी भोली बिल्ली, तुझसे एक बात कहनी है। आज सुबह अस्पताल में, मिस्टर बेहरमैन की निमोनिया से म्रत्यु हो गयी। वह सिर्फ़ दो रोज बीमार रहा। परसों सुबह ही चौकीदार ने उसे अपने कमरे में दर्द से तड़पता पाया था। उसके कपड़े-यहां तक कि जूते भी पूरी तरह से भीगे हुए और बर्फ के समान ठंडे हो रहे थे। कोई नहीं जानता कि ऎसी भयानक रात में वह कहां गया था। लेकिन उसके कमरे से एक जलती हुई लालटेन, एक नसैनी, दो-चार ब्रश और फ़लक पर कुछ हरा और पीला रंग मिलाया हुआ मिला। जरा खिड़की से बाहर तो देख-दीवार के पास की उस अन्तिम पत्ती को। क्या तुझे कभी आश्चर्य नहीं हुआ कि इतनी आंधी और तूफ़ान में भी वह पत्ती हिलती क्यों नहीं? प्यारी सखी, यही बेहरमैन की उत्क्रष्ट कलाक्रति थी जिस रात को अन्तिम पत्ती गिरी उसी रात उसने उसका निर्माण किया था।”
– Legend News 

http://legendnews.in/o-henry-death-anniversary-read-his-story-the-last-leaf-aakhiri-patta/

Tuesday, 1 June 2021

बलदेव वंशी: मुलतान में जन्‍मे कव‍ि की आज जयंती, पढ़‍िए उनकी कुछ कव‍िताऐं

भारतीय भाषाओं को उनका हक दिलाने के आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाने वाले बलदेव वंशी इतने अच्छे कवि और लेखक थे कि उनके शब्दों की गूंज से हिंदी साहित्य जगत आज भी जाज्वल्यमान है. उनका जन्म 1 जून 1938 को मुलतान में हुआ था. उनकी कविताओं में स्वातंत्र्योत्तर भारत के मनुष्य की तकलीफ, संघर्ष और संवेदना को हृदयग्राही अभिव्यक्ति मिली है. उनकी कविताओं में प्रकृति और मनुष्य के बीच एक अनोखा तादात्म्य लिए है. उनकी कविताएं एक तरफ दूर-निकट इतिहास के पत्र और परिवेश उठाकर समकालीन जीवन की संभावनाएँ तलाशती हैं तो दूसरी तरफ मिथकों को उठाकर उनके जरिये अपनी बात अपने तरीके से कहने की कोशिश करती हैं.

उनके लगभग पंद्रह कविता संकलन ‘दर्शकदीर्घा से’, ‘उपनगर में वापसी’, ‘अंधेरे के बावजूद’, ‘बगो की दुनिया’, ‘आत्मदान’, ‘कहीं कोई आवाज़ नहीं’, ‘टूटता हुआ तार’, ‘एक दुनिया यह भी’, ‘हवा में खिलखिलाती लौ’, ‘पानी के नीचे दहकती आग’, ‘खुशबू की दस्तक’, ‘सागर दर्शन’, ‘अंधेरे में रह दिखाती लौ, ‘नदी पर खुलता द्वार’, ‘मन्यु’, ‘वाक् गंगा’, ‘इतिहास में आग’, ‘पत्थर तक जाग रहे हैं’, ‘धरती हांफ रही है’, ‘महाआकाश कथा’, ‘पूरा पाठ गलत’, तथा ‘चाक पर चढ़ी’ नाम से प्रकाशित हो चुके हैं. इनके अलावा दस आलोचक पुस्तकों सहित पैंतालीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित रहीं. उन्होंने ‘दादू ग्रंथावली’, ‘सन्त मलूकदास ग्रंथावली’, ‘सन्त मीराबाई’ और ‘सन्त सहजो कवितावलियाँ’ नाम से भक्ति साहित्य पर भी बड़ा काम किया और ‘कबीर शिखर सम्मान’, ‘मलूक रत्‍न पुरस्कार’ और ‘दादू शिखर सम्मान’ आदि से सम्मनित हुए. 07 जनवरी 2018 को उनका निधन हुआ.
यशस्वी कवि की बलदेव वंशी की जयंती पर पढ़िए उनकी कुछ रचनाएं:
1.
सूर्योदय

सुरमई अंधकार था–
मछुआरी खपरैलों पर बिछा-बिछा
टूटी नावों पर रोया-सोया
भीतर-बाहर लिखा-दिखा
समूचे सागर पर अछोर
इसे बेचने आते हैं त्रिनेत्र !

लो !
देखते-देखते
आरक्त हो उठी
प्रति दिशा-दिशा
रंग गई प्रति लहर-लहर
खिल-खिला उठा राग-
अब जीवन जल
पुन: छलल छलल छलल…

2.
जन-समुद्र

समुद्र की लहरों के साथ
लोग खेलते हैं
जबकि समुद्र भी खेलता है लोगों के साथ…

लहरों को अपनी ओर आता देख
पाँव उचका
उछल जाते हैं कौतुकी लोग
पर ये लहरें
उन्हें अपने सर्पमुखी फन पर उठा
किनारे पर छोड़ आती हैं–
लो, यह तुम्हारा किनारा है
इसे थामो !

लहरें
लोगों के किनारे जानती हैं
जबकि इन लोगों को पता नहीं
समुद्र का किनारा कहाँ है

जब-जब किनारा लांघते हैं लोग
तो ये लहरें उन्हें भिगोती-उछालती ही नहीं
अपने में समो लती हैं
जिन हाथों से थपकी देती हैं मस्ती-भरी
उन्हीं से पकड़ कर
बरबस,
भीतर डुबो देती हैं !
क्योंकि इन बेचारे लोगों को
पता नहीं,
समुद्र का किनारा कहाँ है !

3.
अधूरा है: सुन्दर है

अधूरा है!
इसीलिए सुन्दर है!
दुधिया दाँतों तोतला बोल
बुनाई हाथों के स्पर्श का अहसास!
ऊनी धागों में लगी अनजानी गाँठें, उचटने
सिलाई के टूटे-छूटे धागे
चित्र में उभरी, बे-तरतीब रंगतें-रेखाएं

शायद इसीलिए
अभावों में भाव अधिक खिलते हैं,
चुभते सालते और खलते हैं

एक टीस की अबूझ स्मृति
जीवन भर सालने वाली
आकाश को दो फाँक करती तड़ित रेखा
और ऐसा ही और भी बहुत कुछ
जिसे लोग अधूरा या अबूझ मानते आए हैं
उसे ही सयाने लोग
पूरा और सुन्दर बखानते गए हैं

चाहे हुए रास्ते, जीवन और पूरे व्यक्ति
कहाँ मिलते हैं!
नियति के हाथों
औचक मिले
मानसिक घाव
पूरे कहाँ सिलते हैं!…

4.
कैनवास पर काली लकीरें

बड़े करीने से
आकाँक्षा को काटकर
सजा दिया था कैनवस पर
मौन क्रन्दन !

तुम्हारा आत्मविश्वास
सम्वेदन
दुर्लभ स्पन्द
और सन्तुलन !
बड़ी महीन और तीखी और नफ़ीस
लकीरें कुछ
उकेर दी थीं तुमने
बचपन की
कैनवास पर खिंची
काली लकीरें
कला की क्या-क्या ख़ूबियाँ
बयाँ करतीं…

अचानक एक दिन घर आए
एक माहिर चित्रकार ने देखा वह
कोरा कैनवास
तो चकित रह गया । देखता
कि कैसे एक भोला बचपन
खिंची उन लकीरों में
उधर का
क्या कुछ नहीं कह गया !…

5.
लड़की का इतिहास

हर बाग़ का एक इतिहास होता है जैसे-
इस बाग़ का भी अपना एक इतिहास है
हर व्यक्ति का एक इतिहास होता है जैसे
इस लड़की का भी अपना एक इतिहास है
हर लड़की एक बाग़ होती है जैसे
इस लड़की का भी अपना एक बाग़ है

सबसे पहले यह एक लड़की है
जो बाग़ लगाती हुई इतिहास बनाती है
साथ-साथ कई-कई क्यारियाँ
जुदा-जुदा कई-कई फुलवारियाँ सजाती है

ख़ुशबू और रंग का
पहचान और पहनावे का अलग-अलग सिलसिला…

क्योंकि वह लड़की बाग़ है
इसलिए फूलों को तोड़ने
और भँवरों के मंडराने पर रोक है…

लड़की की पदचापों के संकेतों पर
खिलते हैं फूल; महकती हैं फूलवारियाँ
लड़की की साँसों के सुरों में
गाते हैं पक्षी, सजती हैं क्यारियाँ
ख़ुशबू की दस्तकें
झक्क खिली हरियाली के कहकहे…

यों इन फूल-बेलों से भारी / क्यारियों से घिरे-
मक़बरों / और उनकी पथराई ख़ामोशियों का भी
अपना इतिहास है…

लड़की कहीं कुछ बेल-बीज बो कर
गाती-गुनगुनाती करती है इन्तज़ार-
बेलों के दीवारों पर चढ़ने
दीवारों को फांदने का…

फिर एक दिन
इन बेलों के नाज़ुक इरादों के साथ
लड़की दीवार फांद
इतिहास में बदल जाती है

यों बाग़ों का इतिहास-
लड़की का इतिहास है-
जहाँ मुर्दे-गड़े मक़बरें हैं जीवित
डबडबाए पानी के तालाब; फूलों के सघन झाड़
गाते पक्षियों के समूह, मंडराते भँवरों के झुंड
ख़ामोश दीवारों के लम्बे साए…
यहाँ और-और लड़कियाँ आईं
आती रहीं…
यहाँ और-और फूल खिले
खिलते रहे…
यहाँ और-और मक़बरे बने
बनते रहे…
यहाँ और-और बेलें खिलीं
खिलती रहीं…
अपनी ख़ुशबुओं महकी मिट्टी को
अंजुरी में उठाए,
टप-टप आँसुओं भिगोती रही लड़की
बाग़ में चोरी छिपे
आती रही लड़की
जाती रही लड़की

फूल और पत्थर के साथ-साथ होने के
नए-नए रिश्तों के साथ
फूल खिलते रहे
बेलें दीवारें फांदती रहीं
मक़बरों की दीवारें उन्हें देखती ख़ामोश…

यों बड़े-बड़े ऎतिहासिक बाग़ों को
बाग़ों के इतिहासों को
लड़की ने बनाया है
अपनी ख़ुशबूदार साँसों से
दीवार फांदनी बेलदार इच्छाओं
डबडबाए तालाबों
और मक़बरा बनती देहों से
सजाया है!

-Legend News

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