Wednesday, 5 April 2017

राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर

राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर बस वो ही कहना है
जो अनकहा रह जाए और अनकहा कह जाए
सुनो राम! सिया, शबरी, अहिल्‍या, सब तुम्‍हारी बाट जोहती हैं
आज भी ये सब कण कण में राम खोजती हैं।
गीध व्‍याध वानर को अब कौन गले लगाता है
करुणा, क्षमा, दया को बाजार में नित्‍य बेचा जाता है।

त्रेता से कलियुग की यात्रा बहुत कठिन रही होगी
अब बैठो राम किसी वन में छद्म भरा कलियुग देखो
नाम तुम्‍हारे बिकते , बाजारों में जोरशोर से
घर में मां-बाप-भाई के रिश्‍ते कैसे रिसते हैं देखो।

तुम्‍हारे नाम पर आज कितनों की रोजीरोटी ज़िंदा है
तुम्‍हारे नाम पर आज पूरे शहर-गांव-कस्‍बे में मेला है
सब पूजते हैं राम, कहां जानते हैं राम,नहीं मानते हैं राम
पाथर में ढूढ़कर तुम्‍हें पूजने वाले फिर भी कहां शर्मिदा हैं।

बस राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन इतना ही कहना है
क्षमा शील बन इनके व्‍यापारों को इतना मत उगने देना
कल हो जायें पाथर राम, राम को पाथर मत होने देना
राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर बस इतना ही अब कहना है।

बात अधूरी है मेरी फिर कभी बोलूंगी तुमसे
अभी जन्‍मदिन और मनाओ हे वनवासी राम
राजा रह कर मन में वन और वन में मन
व्‍याख्‍याओं से परे तुम्‍हें मुझे अपने मन में रखना है
बस राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन इतना ही कहना है।

-अलकनंदा सिंह

Sunday, 2 April 2017

'वेबलेंथ' का खेल

भावों के विशाल पर्वत पर, उगती
खिलती आकाश बेल चढ़ती-
कुछ हकीकतें और कुछ आस्‍था,
का मेल होती है मित्रता।

तय परिधियों के अरण्‍य में
ब्रह्म कमल सी एक बार खिलती
मन-सुगंध को अपनी नाभि में
समेटने का खेल होती है मित्रता।

स्‍त्री- पुरुष, पुरुष -स्‍त्री, स्‍त्री-स्‍त्री, पुरुष- पुरुष,
के सारे विभेद नापती,
अविश्‍वास से परे चलकर
'वेबलेंथ' का खेल होती है मित्रता

ये तेरा-मेरा, तुझमें-मुझमें,
अलग कहां, ये तो आत्‍मा से निकले,
रंगों से खेलती, उन्‍हें धूल में मिलाकर,
एक तस्‍वीर का शून्‍य उकेरती है मित्रता।

ये बंधन है पर खुला हुआ,
जो स्‍वतंत्रता की रक्षा में,
देह की देहरियों के पार आत्‍मा की,
आवाज की बात होती है मित्रता।

अपने मूल अर्थ और दृढ़ता के साथ,
समय की हथेलियों पर चलकर,
एक स्‍वयं से दूसरे स्‍वयं तक की यात्रा,
असीम यात्रा की मानिंद होती है मित्रता

ये मित्रता है...ये ही मित्रता है...हमारी,
हमारी जीभ पर घुलती सी होती है मित्रता ।

- अलकनंदा सिंह
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