Sunday, 26 September 2021

अवधी भाषा के कव‍ि पढ़ीस जी, पढ़‍िए उनकी ये अनमोल कव‍ितायें


 आज कवि एवम् गद्यकार बलभद्र प्रसाद दीक्षित उर्फ “पढ़ीस” जी का जन्मदिन है। 25 सितम्बर 1898 को ग्राम अम्बरपुर, सीतापुर, उत्तर प्रदेश में जन्‍मे पढ़ीस जी का न‍िधन 09 जनवरी 1943 को हुआ था। 

अवधी भाषा में कविताओं के अलावा उन्होंने हिंदी में कई कहानियों का भी सृजन किया। 

अगर आपके पास समय है तो पढ़ीस जी कि ‘क्या से क्या’, ‘चमार भाई’, ‘कंगले’, ‘कांग्रेसी भाई’, ‘काजी साहब’ कहानियाँ पढ़ डालिए। पढ़ने पर स्पष्ट हो जाएगा कि जिस लेखक को सिर्फ एक लोकभाषा का कवि जानकर साहित्य रसिको ने जिनकी उपेक्षा की वो दरअसल सामाजिक मतभेद, छुआछूत, साम्राज्यवाद के काल प्रबल आलोचक व हिन्दू - मुस्लिम एकता, समता व किसान हितों के प्रबल पक्षधर थे।

फरवरी सन् 1937 से लेकर मार्च 38 के बीच “पढ़ीस” जी के कुछ बालमनोवैज्ञानिक लेखों की श्रंखला उस जमाने की चर्चित पत्रिका “माधुरी” में छपी, जिसे वे “बच्चो के बाप” शीर्षक पुस्तक में संग्रहित कराना चाहते थे जो कि उनके जीवन तो क्या ? आज तक सफल नहीं हो सकी।

इनके कविता संग्रह “चकल्लस” की भूमिका स्वयं “महाप्राण निराला” ने लिखी थी।

निराला जी और पढ़ीस जी परम मित्र थे। निराला जी द्वारा लिखित चकल्लस की भूमिका की अंतिम पंक्तियाँ...

पुस्तक के पाठ से स्मरण हो आया ------- “वयं शस्त्रान्वेषणे हता:। मधुकर, त्वं खलु कृती।”


लीज‍िये पढ़‍िए "पढ़ीस" जी की पांच अवधी कव‍िताऐं - 

1.  कयिसी चकल्लस आई!


अब च्यातउ (सजग हो) कढ़िले काका, बिथरे कर पुरला झारउ!

जंगल की डुँड़ी-डँगरी, बाड़ी तक पूँछ उठायिनि!

अँउँघानी आँखी ख्वालउ,

अब बड़ी चकल्लस आई।

द्याखउ तउ तनुकु उकसि कयि, दुनिया कस पल्टा खायिस,

उयि लाटि [लाट साहब] कमहटर[कमांडर] बच्चा, खरगू ते खीस निप्वारयिं!

जब हमका बेदु पढ़ावहिं,

तब बड़ी चकल्लस आई।

बड़कये काँग्रेस वाले, पहिंदे गज्जी के ज्वाड़ा,

तुम अपना का पहिंचान्यउ, तबहे तुमका पहिंचानिनि,

यहि पर कुछु स्वाचउ समुझउ,

तउ बड़ी चकल्लस आई।

द्यााखउ तउ को-को आवयि, यी खगई के ख्यातन मा

चकिया म्यलवारि न होई ? जो देयि किसनऊ झाँसा।

तुम चितवउ चारिउ कयिती,

तउ बड़ी चकल्लस आई।

सब अपने-अपने मन मा, हयिं बइठ बसंतु बनाए,

स्यावा का सोंगु[स्वाँग, नाटक] सजाये पउढ़े घर पर तनियाए।

तुम सबकी कलई ख्वालउ।

हो, बड़ी चकल्लस आई।

तुमरे टुकरन के ऊपर सब व्वार मचा लतिहाउजु[लत्तम-जूतम]

मुलु कोई कबहूँ जानिसि, यह किहिकी कयिसि तपस्या ?

सब हयि पढ़ीस के बच्चा,

बस बड़ी चकल्लस आई!


2.  
बउरे आँबन की डारन क्वयिली मदमहती[मदमस्त] बूँकयि लागी;
भँउरा फूलन का चूमि-चूमि झन्नायि उठे, भन्नाय लाग;
कटनासु बसन्ती ब्वालन पर गरगय्या ते अठिलायि लाग;
तुइ बड़ी चुवानि सयानि देखु,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
कोई बनरा अस बना-ठना, जानउ जनवासे जाइ रहा,
जिरई चुन-गुन बिरवा किरवा तकु, बिहँसि उठे अगवानी का;
अधखिली कली कचनार, कुआँरी कन्या की आभा ओढ़े,
पूजयि लागीं, परिछयि लागीं,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
फूलन की केसरि भरी बयारी, लपटि-लपटि लहँकयि[तीव्र होना] लागीं,
बेली फूलन के घूँघुट काढ़े, दुलहिन असि महकयि लागीं,
सहिंजन से हँसि-हँसि फूल झरयि, पछियउहा जब धक्का मारयि-
करूआ कस फूलि-फूलि गावयि,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
दिनु अयिस मातदिल जान परयि, गरमी-सरदी का भेदु भूला,
स्वॅतियन[वर्षा का नक्षत्र-‘स्वाती’] का पानी जूड़-जूड़, चीख्ति मा कयिस नीक लागयि,
कथरी-गुदरी काने धरिकयि, चरवाह कंज गोली ख्यालयिं,
गंधरब[गायन कला पारंगत -‘गंधर्व’] अलापि बसन्तु रहे,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!
माह की उजेरी पाँचयि ते, डूँड़ि-डँगरिउ[बिना पूँछ की दुबली-पतली] कूदयि लागीं,
ह्वरिहार अरंडा गाड़ि-गाड़ि, फिर अण्टु-सण्टु अल्लायि लाग,
लरिका खुरपा के बेंटु अयिस, तउनउ कबीर चिल्लायि चले,
बाबा बुढ़वा बउरायि उठे,
आवा बसन्तु छावा बसन्तु!

3.  उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं? 
धरती पर जब ते पाउँ धरिनि, सुभ करमन का संहारू किहिनि,
उलटी-पलटी बुद्धि के सहारे, अपनयि मतु पहचारि दिहिनि;
कोई जो सूधे दिल ते ब्वाला, बड़े दिमागन झारि दिहिनि-
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
जो-नंगे भूखे परे रहीयँ, तिन का अउरउ नंगा किहनिनि;
जेतनी मरजादयि झंपी रहयि, बेदरदी से उधारि लिहिनिनि,
जबरन ते धक्का खायिनि तउ, निबरन के मुक्का जड़ि दिहिनिनि;
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
कोई की सुन्दरि बिटिया देखिनि, तुरतयि पाछे लागि लिहिनिद्ध
अपनिन से कउनु बात पूँछयि, उयि जहाँ चहिनि उधारू मारू खायिनि-
कुतवा ब्वकरा अस घुसे छहोरिन, मारिनि अउर मारू खायिनि-
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
हन्निन-भइँसन का मारिनि, ध्वाखा-धंधी मा, मचानु गाड़िनि!
ढुक्के-ढुक्के लुक्के लुक्के चुप्पे ते बाघु पछारि दिहिनि,
दूयिउ ते दउरि दहारि हिहिसिन तउ तंबा तकु तर कयि डारिनि;
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
तोबइ, बंबयि, जहरीली गैसयि, बड़ी-बड़ी ईजाद किहिनि,
बदरे चढ़ि कयि, पिरथी पर डारिनि मानउ सक कुछु संघारिनि,
दिन-राति निहत्थे मनइन का जयिसी पायिनि तायिसि भूँजिनि;
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!
साह्यब का हाथा-पइयाँ  ध्यरउ, द्याखउ असिलि बहादुरी जब,
खींसयि द्याखउ लूरखुरिया द्याखउ, अउर पालिसी द्याखउ अब;
उयि हत्या करयि क बड़े सिपाही, यिहि का मउका पावयिं तब
उयि क्यतने बड़े बहादुर हयिं!

4. कयिस-कयिस कनवजिया ह‍उ? 

घर मा, बँभनन माँ, हिन्दुन मा, हिन्दुस्तानिन, संसार बीच
मरजाद का झंडा गाड़ि दिह्यउ, अब कयिस-कयिस कनवजिया हउ।
तुम बड़े पवित्र, पूर पण्डित, नस-नस मा दउरा असिल खून,
तुम खटकुल की खीसयि द्याखउ ? तुम अयिस बड़े कनवजिया हउ।
बहिनी, बिटिया कंगाल जाति की, तुमरे कारन पिसी जायि,
तुम सह्यब बने सभा मा भूल्यउ, कयिस, अयिस कनवजिया हउ।
पढ़ि-पढ़ि पूरे पथरा भे हउ, घर-घर मा जगुआ छायि रहा।
यी सयिति दिल्ली ते घाखति हयि, अयस बड़े कनवजिया हउ।
ध्वड़हा, उँटहा लदुआ किसान निज करमु करयि तउ तुम डहुँकउ,
अपनी बिरादरी का तूरति हउ, अयिस नीक कनवजिया हउ।
तुम दकियानूसी बतन भूल, देस-काल ते पाछे हउ,
तुम का गल्लिन का गिटई हँसती, अयिस खरे कनवजिया हउ।
तुम जस-जस चउका पर झगरय्उ, तस जाति बीच भमोलु भवा,
दादा, अब हे कुछु चेति जाउ, तुम कयिस कनवजिया हउ।

5.  चमारिनि 

फूले मटरा के म्याड़न पर, हम जोलिन ते ठलुहायि करति
निःचिंत जुवानि जगी नस-नस, जागे मन-हे-मन खिलति
वह चटकि चमारिन च्वाट करयि, कच ढिल्लन पर डिंगारूअयिसि-
सतजुग वाली।
वुयि साँची-सूधी बातयि वहि की, आपुइ रूपु बनयिं कविता-
जस उवति सुर्ज्ज-किरनन की कॉबी हिरदउॅ भीतर घुसि जायि,
बेजा दबावु पर तिलमिलायि का नागिनि असि फनु काढ़ि देयि;
को चितयि सकयि?
दुनिया के पाप-पुण्य की कयिंची का वुहिका का कतरिसि-ब्यउँतिसि?
‘तुइ अस न हँसे,’ ‘तुइ वसयि रहे’ मुरही बातन के तीख तीर;
अपने साथी बिरवा पर मानउ लता अयिसि लपिटायि रही-
तन ते - मन ते।
‘मइँ तुहि ते, तब तुई महिते हयि,’ जिहि के चमार का एकु कौल
दूनउ वारन के खुले क्यॅवाँरन की पियार की क्वठरी मा,
अंतरजामी बनि, आँखी मँूदे, लुकी - लुकउवरि खेलि रहे,
को छुइ पावयि ?
ब्यल्हरातयि आवा, हँसतयि पूछिसि, ‘के री, रोटी कहाँ धरी ?’
‘‘रूखी-सूखी, सिकहर मोरे छइला, मोरे साजन।’’
कहि आँखिन पर बइठारि लिहिस, धनु धूरि भवा, युहु धरमु देखि,
समुझवु कोई? 

प्रस्‍तुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह



Sunday, 5 September 2021

शिक्षक दिवस पर पढ़िए उन कवियों की रचनाएं, जिन्‍होंने शिक्षक धर्म भी निभाया


 कवि और शिक्षक दोनों का ही धर्म है कि वह समाज को रास्ता दिखाकर उसका मार्गदर्शन करें इसलिए किसी कवि का शिक्षक हो जाना बहुत ही सहज है। उसी तरह किसी शिक्षक का कवि हो जाना भी उतना ही सरल है। आज शिक्षक दिवस के मौके पर पढ़ें उन कवियों की रचनाएं जिन्होंने शिक्षक का धर्म भी निभाया था।


कुमार विश्वास

कुछ छोटे सपनों के बदले,
बड़ी नींद का सौदा करने,
निकल पडे हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे !
वही प्यास के अनगढ़ मोती,
वही धूप की सुर्ख कहानी,
वही आंख में घुटकर मरती,
आंसू की खुद्दार जवानी,
हर मोहरे की मूक विवशता, चौसर के खाने क्या जाने
हार जीत तय करती है वे, आज कौन से घर ठहरेंगे
निकल पडे़ हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे !

कुछ पलकों में बंद चांदनी,
कुछ होंठों में कैद तराने,
मंजिल के गुमनाम भरोसे,
सपनों के लाचार बहाने,
जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे,
उनके भी दुर्दम्य इरादे, वीणा के स्वर पर ठहरेंगे
निकल पडे़ हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे

कुछ छोटे सपनों की ख़ातिर
बड़ी नींद का सौदा करने
निकल पड़े हैं पाँव अभागे
जाने कौन नगर ठहरेंगे

वही प्यास के अनगढ़ मोती
वही धूप की सुर्ख़ कहानी
वही ऑंख में घुट कर मरती
ऑंसू की ख़ुद्दार जवानी
हर मोहरे की मूक विवशता
चौसर के खाने क्या जानें
हार-जीत ये तय करती है
आज कौन-से घर ठहरेंगे

कुछ पलकों में बंद चांदनी
कुछ होठों में क़ैद तराने
मंज़िल के गुमनाम भरोसे
सपनों के लाचार बहाने
जिनकी ज़िद के आगे सूरज
मोरपंख से छाया मांगे
उनके ही दुर्गम्य इरादे
वीणा के स्वर पर ठहरेंगे

हरिवंश राय बच्चन

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ
कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर
मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ

मैं स्नेह-सुरा का पान किया करता हूँ
मैं कभी न जग का ध्यान किया करता हूँ
जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ
है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ

मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ
जग भ्ाव-सागर तरने को नाव बनाए
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ

मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ
उन्मादों में अवसाद लए फिरता हूँ
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता

मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ
हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर
मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना

मैं दीवानों का एक वेश लिए फिरता हूँ
मैं मादकता नि:शेष लिए फिरता हूँ
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।

स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है।

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है।

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है।

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है।

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है।

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीया जलाना कब मना है।

मैथिलीशरण गुप्त

तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?
सब द्वारों पर भीड़ मची है,
कैसे भीतर जाऊं मैं?

द्बारपाल भय दिखलाते हैं,
कुछ ही जन जाने पाते हैं,
शेष सभी धक्के खाते हैं,
क्यों कर घुसने पाऊं मैं?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

तेरी विभव कल्पना कर के,
उसके वर्णन से मन भर के,
भूल रहे हैं जन बाहर के
कैसे तुझे भुलाऊं मैं?
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

बीत चुकी है बेला सारी,
किंतु न आयी मेरी बारी,
करूँ कुटी की अब तैयारी,
वहीं बैठ गुन गाऊं मैं।
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

कुटी खोल भीतर जाता हूँ
तो वैसा ही रह जाता हूँ
तुझको यह कहते पाता हूँ-
‘अतिथि, कहो क्या लाउं मैं?’
तेरे घर के द्वार बहुत हैं,
किसमें हो कर आऊं मैं?

नर हो, न निराश करो मन को

कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को।

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को।

प्रभु ने तुमको कर दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को।

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को।

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो।

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंंह

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