Friday, 20 March 2020

उर्दू अदब के शायरों में एक अलग स्थान रखते हैं नज़ीर

सदियों की उपेक्षा के बाद जब हिंदी-उर्दू के साहित्य-संसार ने नज़ीर को कवि माना, तब से उनके कलामों को बहुत श‍िद्दत से याद किया जाने लगा। उर्दू अदब में एक से एक बेहतरीन शायर हुए हैं, लेकिन नज़ीर अपना अलग स्थान रखते हैं।
नज़ीर को सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल के तौर पर देखा जाता है। उन्होंने होली से लेकर लगभग सभी हिंदू-मुस्लिम त्योहारों पर अपनी कलम चलाई। नज़ीर के शायराने मिज़ाज पर होली का पूरा रंग चढ़ता था, उनकी कलम की स्याही होली के रंगों में मिल जाती थी, उन्होंने झूमकर लिखा। पेश है नज़ीर की कविताओं से होली के रंग…
जब आई होली रंग भरी, सो नाज़-ओ-अदा से मटक-मटक
और घूंघट के पट खोल दिये, वह रूप दिखाया चमक-चमक
कुछ मुखड़ा करता दमक-दमक कुछ अबरन करता झलक-झलक
जब पांव रखा खु़शवक़्ती से तब पायल बाजी झनक-झनक
कुछ उछलें, सैनें नाज़ भरें, कुछ कूदें आहें थिरक-थिरक
खड़ी बोली आधुनिक हिंदी कविता के प्रथम कवि नज़ीर अकबराबादी को गंगा जमुनी तहज़ीब का प्रतिनिधि कवि कहना चाहिए और नज़ीर को इसी रूप में पढ़ने और समझने की जरूरत है। लेकिन यह एक स्थापित तथ्य है कि नज़ीर उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में ही अपनी कविता के उत्कर्ष पर पहुँच चुके थे, पर बहुत दिनों तक उसे वह मान्यता न मिल सकी जिसका वह अधिकारी थे।
नज़ीर के काव्य पर विभिन्न संदर्भों में फिर कभी विस्तार से बात होगी, आज तो बस होली और फागुनी फुहारों पर उनकी रचनाओं को पढ़वाना उद्देश्य है।
यह रूप दिखाकर होली के, जब नैन रसीले टुक मटके
मंगवाये थाल गुलालों के, भर डाले रंगों से मटके
फिर स्वांग बहुत तैयार हुए, और ठाठ खु़शी के झुरमुट के
गुल शोर हुए ख़ुश हाली के, और नाचने गाने के खटके
मरदंगें बाजी, ताल बजे, कुछ खनक-खनक कुछ धनक-धनक
होली संबंधी कविताओं में नज़ीर की मस्ती, खुलापन आदि और भी रंग लाते हैं। नज़ीर दो समुदायों के उन तमाम दूरियों को मिटा देते हैं और सही-सही हिंदुस्तानियत के रंग से सराबोर कर देते हैं। उनका खुलापन और मस्ती देखिए-
सनम तू हमसे न हो बदगुमान होली में
कि यार रखते हैं यारों का मान होली में
वह अपनी छोड़ दे अब ज़िद की आन होली में
हमारे साथ तू चल महरबान होली में
फिर तेरी घट न जावेगी शान होली में॥
सामान्य रूप में आज हमारी धारणा बन गई है कि मुसलमान होली में रंग खेलना पसंद नहीं करते। पर नज़ीर के जमाने में हिंदू-मुसलमान साथ मिलकर होली मनाने में परहेज नहीं करते थे। उन्होंने इसका वर्णन ‘होली (1)’ में किया है। सांप्रदायिक सद्भाव का यह अद्भुत नजारा है…
उधर से रंग लिए आओ तुम इधर से हम
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके खुश हर दम
खुशी से बोलें हँसें होली खेलकर बाहम
बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की कसम
इसी उम्मीद में था इंतिजार होली का
‘होली’ पर 20 से अधिक रचनाएं नज़ीर ने लिखी हैं और सब एक से बढ़कर एक। हिंदुस्तान एक उत्सवधर्मी देश है और त्यौहारों में आमो-ख़ास के उल्लास दिखाई पड़ते हैं, नज़ीर उसी उल्लास को पकड़ते हैं और होली के एक-एक रंग को अपने अल्फ़ाज़ों से सजा देते हैं।
क़ातिल जो मेरा ओढ़े इक सुर्ख़ शाल आया
खा-खा के पान ज़ालिम कर होंठ लाल आया
गोया निकल शफ़क़ से बदरे-कमाल आया
जब मुंह में वह परीरू मल कर गुलाल आया।
एक दम तो देख उसको होली को हाल आया।
चेहरों पे गुलाल उनके लगा है जो बहुत सा।
आता है नज़र हुस्न का कुछ ज़ोर ही नक्शा।
है रंग में और रूप में झमका जो परी का।
देख उनकी बहारें यही कहते हैं अहा हा।
दुनियां में यह आई है परिस्तान से ‘होली’॥
हैं क्या-क्या सर में रंग भरे और स्वांग भी क्या-क्या आते हैं
कर बातें हर दम चुहल भरी, खुश हंसते और हंसाते हैं
कुछ जोगी चेले बैठे हैं कुछ कामिनियों की गाते हैं
कुछ और तरह के स्वांग बने कुछ नाचते हैं कुछ गाते हैं।
हर आन ‘नज़ीर’ इस फ़रहत का, सामान दिखाया होली ने॥
कोई तो शर्म से घूंघट में सैन करती है।
और अपने यार के नैनों में नैन करती है।
कोई तो दोनों की बातों को गै़न करती है।
कोई निगाहों में आशिक़ को चैन करती है।
ग़रज तमाशे हैं होते हज़ार होली में॥
कोई तो बांधे है दस्तार गुलनारी।
किसी के हाथ में हैंगा गुलाल पिचकारी॥
किसी की रंग में पोशाक ग़र्क है सारी।
किसी के गाल पे है सुर्ख़ रंग की धारी॥
अजब बहार जो ठहरी है आन होली में
कोई तो हुस्न में अपने कहे हैं गुलशन हूं।
कोई बहार दिखाकर कहे हैं लालन हूं॥
लुभा के दिल के और बोला कि मैं तो मोहन हूं।
कोई पुकारे है आशिक मैं बामन हूं॥
दिलाओ अब कोई बोसे का दान होली में
मिलने का तेरे रखते हैं हम ध्यान इधर देख।
भाती है बहुत हमको तेरी आन इधर देख।
हम चाहने वाले हैं तेरे जान! इधर देख।
होली है सनम, हंस के तो एक आन इधर देख।
ऐ! रंग भरे नौ गुले खंदान इधर देख॥
मजे़ की होती है होली भी राव राजों के यां।
कई महीनों से होता है फाग का सामां।
महकती होलियां गाती हैं गायनें खड़ियां।
गुलाल अबीर भी छाया है दर ज़मीनों ज़मां।
चहार तरफ़ है रंगों की मार होली में॥
भागे हैं कहीं रंग किसी पर जो कोई डाल
वह पोटली मारे है उसे दौड़ के फ़िलहाल
यह टांग घसीटे है तो वह खींचे पकड़ बाल
वह हाथ मरोड़े तो यह तोड़े है खड़ा गाल
इस ढब के हर इक जा पे मचे ढंग ज़मीं पर
होली ने मचाया है अज़ब रंग ज़मीं पर॥
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