Friday, 16 February 2018

निराला के शब्‍द-क्रीड़ांगन में यमुना-गान

आज के दिन 16 फरवरी 1896- हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि, साहित्यकार और लेखक सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म हुआ था, हालांकि विकीपीडिया पर 21 फरवरी अंकित है परंतु पंचांग-तिथि के अनुसार इनके जन्‍म के संबंध में अलग अलग मत हैं।

बहरहाल इस अवसर पर उन्‍हें याद करते हुए हम ब्रजवासी उनके अत्‍यंत आभारी हैं क्‍योंकि उन्‍होंने ''यमुना के प्रति'' लिखकर हमारी आराध्‍या यमुना को जिसतरह शब्‍दों के क्रीड़ांगन में उतारा है, वह आजतक हमारी प्रार्थना में है और सदैव रहेगा। यमुना आज जिस दयनीय दशा से गुजर रही हैं, उस दर्द से व्‍यथित ब्रजवासियों को निराला के ये शब्‍द उपहार हैं। 

ये रहीं वो अद्भुत रचना ''यमुना के प्रति''-----

स्वप्नों-सी उन किन आँखों की
पल्लव-छाया में अम्लान
यौवन की माया-सा आया
मोहन का सम्मोहन ध्यान?
गन्धलुब्ध किन अलिबालों के
मुग्ध हृदय का मृदु गुञ्जार
तेरे दृग-कुसुमों की सुषमा
जाँच रहा है बारम्बार?

यमुने, तेरी इन लहरों में
किन अधरों की आकुल तान
पथिक-प्रिया-सी जगा रही है
उस अतीत के नीरव गान?

बता कहाँ अब वह वंशी-वट?
कहाँ गये नटनागर श्याम?
चल-चरणों का व्याकुल पनघट
कहाँ आज वह वृंदा धाम?
कभी यहाँ देखे थे जिनके
श्याम-विरह से तप्त शरीर,
किस विनोद की तृषित गोद में
आज पोंछती वे दृगनीर?



रंजित सहज सरल चितवन में     
उत्कण्ठित सखियों का प्यार
क्या आँसू-सा ढुलक गया वह
विरह-विधुर उर का उदगार?



तू किस विस्मृति की वीणा से
उठ-उठकर कातर झंकार
उत्सुकता से उकता-उकता
खोल रही स्मृति के दृढ़ द्वार?----
अलस प्रेयसी-सी स्वप्नों में
प्रिय की शिथिल सेज के पास
लघु लहरों के मधुर स्वरों में
किस अतीत का गूढ़ विलास?


उर-उर में नूपुर की ध्वनि-सी
मादकता की तरल तरंग
विचर रही है मौन पवन में
यमुने, किस अतीत के संग?


किस अतीत का दुर्जय जीवन
अपनी अलकों में सुकुमार
कनक-पुष्प-सा गूँथ लिया है ----
किसका है यह रूप अपार?
निर्निमेष नयनों में छाया
किस विस्मृति मदिरा का राग
जो अब तक पुलकित पलकों से
छलक रहा यह मृदुल सुहाग?


मुक्त हृदय के सिंहासन पर
किस अतीत के ये सम्राट
दीप रहे जिनके मस्तक पर
रवि-शशि-तारे-विश्व-विराट? 


निखिल विश्व की जिज्ञासा-सी
आशा की तू झलक अमन्द
अंत:पुर की निज शय्या पर
रच-रच मृदु छन्दों के बन्द,
किस अतीत के स्नेह-सुहृद को
अर्पण करती तू निज ध्यान ---
ताल-ताल के कम्पन से, द्रुत
बहते हैं ये किसके गान?



विहगों की निद्रा से नीरव
कानन के संगीत अपार
किस अतीत के स्वप्न-लोक में
करते हैं मृदु-पद-संचार?


मुग्धा के लज्जित पलकों पर
तू यौवन की छवि अज्ञात
आँख-मिचौनी खेल रही है
किस अतीत शिशुता के साथ?
किस अतीत सागर-संगम को
बहते खोल हृदय के द्वार
बोहित के हित सरल अनिल-से
नयन-सलिल के स्त्रोत अपार?

उस सलज्ज ज्योत्स्ना-सुहाग की
फेनिल शय्या पर सुकुमार,
उत्सुक, किस अभिसार-निशा में,
गयी कौन स्वप्निल पर मार ?



उठ-उठकर अतीत विस्मृति से
किसकी स्मिति यह --- किसका प्यार
तेरे श्याम कपोलों में खुल
कर जाती है चकित विहार?
जीवन की इस सरस सुरा में,
कह, यह किसका मादक राग
फूट पड़ा तेरी ममता में
जिसकी समता का अनुराग?



किन नियमों का निर्मम बन्धन
जग की संसृति का परिहास
कर बन जाते करुणा-क्रन्दन?
सखि, वे किसके निर्दय पाश?



कलियों की मुद्रित पलकों में
सिसक रही जो गन्ध अधीर
जिसकी आतुर दुख-गाथा पर
ढुलकाते दृग-पल्लव नीर,
बता, करुण-कर-किरण बढ़ाकर
स्वप्नों का सचित्र संसार
आँसू पोंछ दिखाया किसने
जगती का रहस्यमय द्वार?


जागृति के इस नवजीवन में
किस छाया का माया-मन्त्र
गूँज-गूँज मृदु खींच रहा है
अलि दुर्बल जन का मन-यन्त्र ?



अलि अलकों के तरल तिमिर में
किसकी लोल लहर अज्ञात
जिसके गूढ़ मर्म में निश्चित
शशि-सा मुख ज्योत्स्ना-सी गात?
कह, सोया किस खंजन-वन में
उन नयनों का अंजन-राग?
बिखर गये अब किन पातों में
वे कदम्ब-मुख-स्वर्ण-पराग?


चमक रहे अब किन तारों में
उन हारों के मुक्ता-हीर?
बजते हैं अब किन चरणों में
वे अधीर नुपुर-मंजीर?



किस समीर से कांप रही वह
वंशी की स्वर-सरित-हिलोर?
किस वितान से तनी प्राण तक
छू जाती वह करुण मरोर?
खींच रही किस आशा-पथ पर
वह यौवन की प्रथम पुकार?
सींच रही लालसा-लता नित
किस कंकन की मृदु झंकार?


उमड़ चला अब वह किस तट पर
क्षुब्ध प्रेम का पारावार?
किसकी विकच वीचि-चितवन पर
अब होता निर्भय अभिसार



भटक रहे वे किस के मृग-दृग?
बैठी पथ पर कौन निराश?---
मारी मरु-मरीचिका की-सी
ताक रही उदास आकाश।
हिला रहा अब कुंजों के किन
द्रुम-पुंजों का हृदय कठोर
विगलित विफल वासनाओं से
क्रन्दन-मलिन पुलिन का रोर?


किस प्रसाद के लिए बढ़ा अब
उन नयनों का विरस विषाद?
किस अजान में छिपा आज वह
श्याम गगन का घन उन्माद?



कह किस अलस मराल-चाल पर
गूंज उठे सारे संगीत
पद-पद के लघु ताल-ताल पर
गति स्वच्छन्द, अजीत अभीत?
स्मित-विकसित नीरज नयनों पर
स्वर्ण-किरण-रेखा अम्लान
साथ-साथ प्रिय तरुण अरुण के
अन्धकार में छिपी अजान।


किस दुर्गम गिरि के कंदर में
डूब जग का नि:श्वास?
उतर रहा अब किस अरण्य में
दिन मणिहीन अस्त आकाश?



आप आ गया प्रिय के कर में
कह, किसका वह कर सुकुमार
विटप-विहग ज्यों फिरा नीड़ में
सहम तमिस्त्र देख संसार?
स्मर-सर के निर्मल अन्तर में
देखा था जो शशि प्रतिभात
छिपा लिया है उसे जिन्होंने
हैं वे किस घन वन के पात?


कहाँ आज वह निद्रित जीवन
बंधा बाहुओं में भी मुक्त?
कहाँ आज वह चितवन चेतन
श्याम--मोह--कज्जल--अभियुक्त?



वह नयनों का स्वप्न मनोहर
हृदय-सरोवर का जलजात,
एक चन्द्र निस्सीम व्योम का,
वह प्राची का विमल प्रभात,
वह राका की निर्मल छवि, वह
गौरव रवि, कवि का उत्साह,
किस अतीत से मिला आज वह
यमुने तेरा सरस प्रवाह?


खींच रहा है मेरा मन वह
किस अतीत का इंगित मौन
इस प्रसुप्ति से जगा रही जो
बता, प्रिया-सी है वह कौन?


वह अविकार गहन-सुख-दुःख-गृह,
वह उच्छृंखलता उद्दाम,
वह संसार भीरु-दृग-संकुल,
ललित-कल्पना-गति अभिराम,
वह वर्षों का हर्षित क्रीड़न,
पीड़न का चंचल संसार,
वह विलास का लास-अंक, वह
भृकुटि-कुटिल-प्रिय-पथ का पार ;


वह जागरण मधुर अधरों पर,
वह प्रसुप्ति नयनों में लीन,
मुग्ध मौन मन में सुख उन्मुख,
आकर्षण मय नित्य नवीन,



वह सहसा सजीव कम्पन-द्रुत
सुरभि-समीर, अधीर वितान,
वह सहसा स्तम्भित वक्षस्थल,
टलमल पद, प्रदीप निर्वाण,
गुप्त-रहस्य-सृजन-अतिशय श्रम,
वह क्रम-क्रम से संचित ज्ञान,
स्खलित-वसन-तनु-सा तनु अभरण,
नग्न, उदास, व्यथित अभिमान,


वह मुकुलित लावण्य लुप्तामधु,
सुप्त पुष्प में विकल विकास,
वह सहसा अनुकूल प्रकृति के
प्रिय दुकूल में प्रथम प्रकाश;



वह अभिराम कामनाओं का
लज्जित उर, उज्ज्वल विश्वास,
वह निष्काम दिवा-विभावरी,
वह स्वरूप-मद-मंजुल हास,
वह सुकेश-विस्तार कुंज में
प्रिय का अति-उत्सुक सन्धान,
तारों के नीरव समाज में,
यमुने, वह तेरी मृदु गान;


वह अतृप्त आग्रह से सिंचित
विरह-विटप का मूल मलीन
अपने ही फूलों से वंचित
वह गौरव-कर निष्प्रभ, क्षीण,



वह  निशीथ की नग्न वेदना,
दिन की दम्य दुराशा आज
कहाँ अँधेरे का प्रिय-परिचय,
कहाँ दिवस की अपनी लाज?
उदासीनता गृह-कर्मों में,
मर्म मर्म में विकसित स्नेह,
निरपराध हाथों में छाया
अंजन-रंजन-भ्रम, सन्देह;


विस्मृत-पथ-परिचायक स्वर से
छिन्न हुए सीमा-दृढ़पाश,
ज्योत्स्ना के मण्डप में निर्भय
कहाँ हो रहा है वह रास?



वह कटाक्ष-चंचल यौवन-मन
वन-वन प्रिय-अनुसरण-प्रयास
वह निष्पलक सहज चितवन पर
प्रिय का अचल अटल विश्वास;
अलक-सुगन्ध-मंदिर सरि-शीतल
मंद अनिल, स्वच्छन्द प्रवाह,
वह विलोल हिल्लोल चरण कटि,
भुज, ग्रीवा का वह उत्साह;



मत्त-भृंग-सम संग-संग तम---
तारा मुख-अम्बुज-मधु-लुब्ध,
विकल विलोड़ित चरण-अंक पर
शरण-विमुख नूपुर-उर क्षुब्ध,
वह संगीत विजय-मद-गर्वित

नृत्य-चपल अधरों पर आज
वह अजीत-इंगित-मुखरित मुख
कहाँ आज वह सुखमय साज?

         
वह अपनी अनुकूल प्रकृति का
फूल, वृन्त पर विचक अधीर,
वह उदार सम्वाद विश्व का
वह अनन्त नयनों का नीर,



वह स्वरूप-मध्याह्न-तृषा का
प्रचुर आदि-रस, वह विस्तार
सफल प्रेम का, जीवन के वह
दुस्तर सर-सागर का पार;



वह अंजलि कलिका की कोमल,
वह प्रसून की अन्तिम दृष्टि,
वह अनन्त का ध्वंस सान्त, वह
सान्त विश्व की अगणित सृष्टि:
वह विराम-अलसित पलकों पर
सुधि की चंचल प्रथम तरंग,
वह उद्दीपन, वह मृदु कम्पन,
वह अपनापन, वह प्रिय-संग,


वह अज्ञात पतन लज्जा का
स्खलन शिथिल घूंघट का देख
हास्य-मधुर निर्लज्ज उक्ति वह
वह नवयौवन का अभिषेक;



मुग्ध रूप का वह क्रय-विक्रय,
वह विनिमय का निर्दय भाव,
कुटिल करों को सौंप सुहृद-मन,
वह विस्मरण, मरण, वह चाव,
असफल छल की सरल कल्पना,
ललनाओं का मृदु उदगार
बता, कहाँ विक्षुब्ध हुआ वह
दृढ़ यौवन का पीन उभार;


उठा तूलिका मृदु चितवन की,
भर मन की मदिरा में मौन,
निर्निमेष नभ-नील-पटल पर
अटल खींचती छवि, वह कौन?



कहाँ यहाँ अस्थिर तृष्णा का
बहता अब वह स्त्रोत अजान?
कहाँ हाय निरुपाय तृणों से
बहते अब वे अगणित प्राण?
नहीं यहाँ नयनों में पाया
कहीं समाया वह अपराध,
कहाँ यहाँ अधिकृत अधरों पर
उठता वह संगीत अबाध?


मिली विरह के दीर्घ श्वास से
बहती कहीं नहीं बातास,
कहाँ सिसक मृदु मलिन मर्म में
मुरझा जाता वह निश्वास?



कहाँ छलकते अब वैसे ही
ब्रज-नागरियों के गागर?
कहाँ भीगते अब वैसे ही
बाहु, उरोज़, अधर, अम्बर?
बंधा बहुओं में घट क्षण-क्षण
कहाँ प्रकट बकता अपवाद?
अलकों को किशोर पलकों को
कहाँ वायु  देती सम्वाद?


कहाँ कनक-कोरों के  नीरव,
अश्रु-कणों में भर मुस्कान,
विरह-मिलन के एक साथ ही
खिल पड़ते वे भाव महान!



कहाँ सूर के रूप-बाग़ के
दाड़िम, कुन्द, विकच अरविन्द,
कदली, चम्पक, श्रीफल, मृगशिशु,
खंजन, शुक, पिक, हंस, मिलिन्द!
एक रूप में कहाँ आज वह   
हरि मृग का निर्वैर विहार,
काले नागों से मयूर का
बन्धु-भाव सुख सहज अपार!



पावस की प्रगल्भ धारा में
कुंजों का वह कारागार
अब जग के विस्मित नयनों में
दिवस-स्वप्न-सा पड़ा असार!


द्रव-नीहार अचल-अधरों से
गल-गल गिरि उर के सन्ताप
तेरे तट से अटक रहे थे
करते अब सिर पटक विलाप;
विवश दिवस के-से आवर्त्तन
बढ़ते हैं अम्बुधि की ओर,
फिर-फिर फिर भी ताक रहे हैं
कोरों में निज नयन मरोर!



एक रागिनी रह जाती जो
तेरे तट पर मौन उदास,
स्मृति-सी भग्न भवन की, मन को 
दे जाती अति क्षीण प्रकाश।


टूट रहे हैं पलक-पलक पर
तारों के ये जितने तार
जग के अब तक के रागों से
जिनमें छिपा पृथक गुंजार,
उन्हें खींच निस्सीम व्योम की
वीणा में कर कर झंकार,
गाते हैं अविचल आसन पर
देवदूत जो गीत अपार,


कम्पित उनसे करुण करों में
तारक तारों की-सी तान
बता, बता, अपने अतीत के
क्या तू भी गाती है गान?

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Tuesday, 13 February 2018

आज महाशिवरात्रि पर जानिए- क्‍या है महामृत्युंजय मंत्र की पूर्ण व्‍याख्‍या

आपने अकसर देखा सुना होगा धार्मिकजन किसी शारीरिक व मानसिक परेशानियों को दूर करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र की आराधना-जाप के बारे में बताते हैं मगर ऐसा क्‍यों, यह जानने के लिए इस महामंत्र की व्‍याख्‍या को जानना जरूरी है।


महामृत्युंजय का वेदोक्त मंत्र -

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्‌।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्‌ ॥

इस मंत्र में 32 शब्दों का प्रयोग हुआ है और इसी मंत्र में ॐ’ लगा देने से 33 शब्द हो जाते हैं। इसे ‘त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। श्री वशिष्ठजी ने इन 33 शब्दों के 33 देवता अर्थात्‌ शक्तियाँ निश्चित की हैं जो कि निम्नलिखित हैं।

इस मंत्र में 8 वसु, 11 रुद्र, 12 आदित्य 1 प्रजापति तथा 1 वषट को माना है।

मंत्र विचार :
इस मंत्र में आए प्रत्येक शब्द को स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि शब्द ही मंत्र है और मंत्र ही शक्ति है।
इस मंत्र में आया प्रत्येक शब्द अपने आप में एक संपूर्ण अर्थ लिए हुए होता है और देवादि का बोध कराता है।

शब्द बोधक -

‘त्र’ ध्रुव वसु ‘यम’ अध्वर वसु
‘ब’ सोम वसु ‘कम्‌’ वरुण
‘य’ वायु ‘ज’ अग्नि
‘म’ शक्ति ‘हे’ प्रभास
‘सु’ वीरभद्र ‘ग’ शम्भु
‘न्धिम’ गिरीश ‘पु’ अजैक
‘ष्टि’ अहिर्बुध्न्य ‘व’ पिनाक
‘र्ध’ भवानी पति ‘नम्‌’ कापाली
‘उ’ दिकपति ‘र्वा’ स्थाणु
‘रु’ भर्ग ‘क’ धाता
‘मि’ अर्यमा ‘व’ मित्रादित्य
‘ब’ वरुणादित्य ‘न्ध’ अंशु
‘नात’ भगादित्य ‘मृ’ विवस्वान
‘त्यो’ इंद्रादित्य ‘मु’ पूषादिव्य
‘क्षी’ पर्जन्यादिव्य ‘य’ त्वष्टा
‘मा’ विष्णुऽदिव्य ‘मृ’ प्रजापति
‘तात’ वषट

इसमें जो अनेक बोधक बताए गए हैं, वे देवताओं के नाम हैं।

शब्द की शक्ति-
शब्द वही हैं और उनकी शक्ति निम्न प्रकार से है-  जैसे त्र्यम्बक का पूर्ण विवरण इस प्रकार है-


त्रि-शक्ति तथा त्रिनेत्र
 ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘म’ मंगल ‘ब’ बालार्क तेज
‘कं’ काली का कल्याणकारी बीज ‘य’ यम तथा यज्ञ
‘जा’ जालंधरेश ‘म’ महाशक्ति
‘हे’ हाकिनो ‘सु’ सुगन्धि तथा सुर
‘गं’ गणपति का बीज ‘ध’ धूमावती का बीज
‘म’ महेश ‘पु’ पुण्डरीकाक्ष
‘ष्टि’ देह में स्थित षटकोण ‘व’ वाकिनी
‘र्ध’ धर्म ‘नं’ नंदी
‘उ’ उमा ‘र्वा’ शिव की बाईं शक्ति
‘रु’ रूप तथा आँसू ‘क’ कल्याणी
‘व’ वरुण ‘बं’ बंदी देवी
‘ध’ धंदा देवी ‘मृ’ मृत्युंजय
‘त्यो’ नित्येश ‘क्षी’ क्षेमंकरी
‘य’ यम तथा यज्ञ ‘मा’ माँग तथा मन्त्रेश
‘मृ’ मृत्युंजय ‘तात’ चरणों में स्पर्श

यह पूर्ण विवरण ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ के अनुसार पूर्णतः सत्य प्रमाणित हुआ है।

प्रस्‍तुति : वेदोक्‍त विधियों से संकलन के आधार पर

Thursday, 8 February 2018

Nida Fazli साहब ने हमेशा रोटी, चटनी और मां से जुड़े लफ़्जों को जिया

भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाजे गए निदा फ़ाज़ली की आज पुण्‍यतिथि है, उन्‍होंने आज ही के दिन 8 फरवरी 2016 को मुंबई में इस दुनिया को अलविदा कहा।
निदा फ़ाज़ली हिंदुस्तानी तहजीब में ‘वाचिक-परंपरा’ के शायर हैं. वाचिकी के लिए ये बेहद जरूरी है की बात चित्रों के जरिए की जाय. रोटी, चटनी, फूंकनी, खुर्री-खाट, कुण्डी कुलमिलाकर मां से जुड़े हर प्रतीक के सहारे निदा ने मां को जिया है। 
निदा फाजली दोहों की सरपरस्ती करते हैं इसीलिए प्रतीकों से दिलचस्पी रखते हैं.
लीजिए आप भी पढ़िए और महसूस कीजिए ज़िंदादिल शायर की ज़िंदादिली….
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो
यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
……………….

आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया
खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया
बात बहुत मा’मूली सी थी उलझ गई तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया
दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया .

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह
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