आलता भरे पांव से वो ठेलती है,
उन प्रभामयी रश्मियों को,
कि सूरज आने से पहले लेता हो आज्ञा उससे
प्रेम का ऐसा हठयोग
देखा है तुमने कभी
कैसे पहचानोगे कि
कौन बेताल है,
और
कौन विक्रमादित्य,
जिसके कांधे पर झूलता है
मेरा और तुम्हारा मन
ठंडी हुई आंच में भी सुलगने लगता है
कोई अक्षर सा... कोई मौसम सा... तब ,
कह सकते हैं कि
तुम्हारी सांस के संग एक और सांस
सो रही हैं अलसुबह तक
क्या तुमने देखी है मेरे उन मनकों की माला
जो तुम्हारे रंग से सूरज हो जाया करती है
अपने वादों की गठरी में से उछाल दिए हैं
कुछ ऐसे ही मनके मैंने... संभलो और
चुनकर एक माला फिर बना दो,
ये बसंत ये फागुन ये प्रलोभन रंगों के
सूरज की रश्मियों को रोक कर
तुम्हारे लिए दान करती रही हूं मैं ,
एक कैनवास मेरे भी रंग का हो
लीपे हुए घर की तरह सु्गंधित ...
- अलकनंदा सिंह