सोचों की कब्र से यूं
धूल झाड़कर उठते
नया जन्म लेते रिश्ते
कभी देखे हैं तुमने
नहीं ना, तो...फिर अब देखो
मांस के लोथड़ों पर टपकती
पल पल ये लारें, ये निगाहें
किस तरह पूरे वज़ूद को
बदल देती हैं एक ज़िंदा कब्र में
फिर कोई रिश्ता नहीं जन्मता ,
बंजर सोच की ज़मीन में।
- अलकनंदा सिंह