Saturday, 18 December 2021

एक कहानी मार्म‍िक सी - इतिहास के पन्नों में सरस्वती (मदीहा खान) का नाम नहीं

 आज एक मार्म‍िक सी कहानी पढ़ने को म‍िली अंतर्धार्म‍िक व‍िवाह की। आशा है आप सबको भी पसंद आएगी। 

 पढें-------

 


वह मुस्लिम कन्या बोली, "तो फिर हमेशा के लिए अपने 52 गज के घाघरे में मुझे छिपा लो दादी।’’

यूपी में बुलंदशहर के सिकंदराबाद के  गाँव पिलखन की सच्ची घटना है ये।

1904 का सन् था, बरसात का मौसम और मदरसे की छुट्टी हो चुकी थी। लड़कियाँ मदरसे से निकल चुकी थी। अचानक ही आँधी आई और एक लड़की की आंखों में धूल भर गई, आँखें बंद और उसका पैर एक कुत्ते पर जा टिका। वह कुत्ता उसके पीछे भागने लगा। लड़की डर गई और दौड़ते हुए एक ब्राह्मण मुरारीलाल शर्मा के घर में घुस गई। जहाँ 52 गज का घाघरा पहने पंडिताइन बैठी थी।

लड़की उसके घाघरे में जाकर लिपट गई, "दादी मुझे बचा लो।"

दादी की लाठी देख कुत्ता तो वहीं से भाग गया, लेकिन बाद में जहाँ भी दादी मिलती, तो यह बालिका उसको राम-राम बोलकर अभिवादन करने लगी। दादी से उसकी मित्रता हो गई और दादी उसे समय मिलते ही अपने पास बुलाने लगी, क्योंकि दादी को पंडित कृपाराम ने उर्दू में नूरे हकीकत लाकर दी थी, दादी उर्दू जानती थी, परंतु अब आँखें कमजोर हो गई थी, इसलिए उस लड़की से रोज-रोज वह उस ग्रंथ को पढ़वाने लगी और यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा।

लड़की देखते ही देखते पंडितों के घर में रखे सारे आर्ष साहित्य को पढ़-पढ़कर सुनाते हुए कब विद्वान बन गई पता ही नहीं, पता तो तब चला, जब एक दिन उसका निकाह तय हो गया और दादी कन्यादान करने गई। निकाह के समय जैसे ही उसने अपने दूल्हे को देखा तो वह न केवल पहले से शादीशुदा था वरन एक आँख का काना भी था। इसलिए लड़की को ऐसा वर पसंद नहीं आया, परंतु घरवालों और रिश्तेदारों ने दबाव डाला लड़की पर, हाथ तक उठाया, तो विवशता के आँसुओं की गंगा जमुना की धारा उसकी आँखों से बह चली।

परंतु अबला ने जैसे ही देखा कि 52 गज के घाघरे वाली पंडिताइन कन्यादान करने आई है, अपने पोते के साथ तो एक बार फिर इतने वर्षो बाद दादी से चिपट गई थी, "दादी मुझे बचा लो, मैं काने से निकाह नहीं करूँगी।"

"काने से नहीं करेगी तो तेरे लिए क्या कोई शहजादा आएगा?" वह वधू दादी को छोड़ने का नाम न ले रही थी, दादी भी रोने लगी, उसे समझाने का प्रयास किया, कि "जैसा भी है, उसी से नियति समझकर शादी कर ले।"

"अगर आपकी बेटी होती तो क्या आप उसकी शादी काने से कर देतीं?" लड़की ने दादी से पूछा था।

"तू भी तो मेरी ही बेटी है" दादी ने कहा।

"सिर पर हाथ रखकर कहो कि मैं तुम्हारी बेटी हूँ" लड़की ने कहा।

"हाँ तुम मेरी बेटी हो।" कहते हुए पंडिताइन ने उस मुस्लिम कन्या के सिर पर हाथ रख दिया था।

"तो फिर हमेशा के लिए अपने 52 गज के घाघरे में मुझे छिपा लो दादी।"

"मतलब" दादी ने अचंभित हो कर कहा।

"अपने इस पोते से मेरा विवाह करके मुझे अपने घर ले चलो" लड़की ने कहा।

"क्या?" कोहराम मच गया, एक मुस्लिम लड़की की इतनी हिम्मत की निकाह के दिन जात-बिरादरी की बदनामी करे और पंडित के लड़के से शादी करने की बात कह दे। आखिर इतनी हिम्मत आई उसके अंदर कहाँ से। जब किसी ने पूछा तो, उसने बताया, "दादी को नूरे हकीकत यानी कि दयानंद सरस्वती का सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर सुनाते हुए। कर्म से मुझे पंडिताइन बनने का हक वेदों ने दिया है और मैं इसे लेकर रहूँगी।"

पंचायत बैठी, लड़की अब अपनी बात पर अड़ गई कि शादी करेगी तो पंडित के लड़के से वरना नहीं, पढ़ेगी तो वेद पढ़ेगी वरना कुरान नहीं।

चतुरसेन और पंडित के लड़के की यारी थी, चतुरसेन आर्य समाजी किशोर था और उसने पंडित के लड़के को मना लिया था कि मुस्लिम लड़की से शादी करेगा तो सात पीढ़ियों के पूर्वजों के पाप धुल जाएँगे। उधर पंडित कृपाराम ने दादी को समझाया और दादी भी मान गई। मुरारीलाल शर्मा ने भी हाँ भर दी। लेकिन मुस्लिम जमात में कोहराम मच गया और उस मुस्लिम परिवार का हुक्का-पानी गिरा दिया, उसे मुस्लिम धर्म से बाहर निकाल दिया, कुएँ से पानी भरना बंद हो गया। 

परंतु वह परिवार भी अब इस्लाम की दकियानूसी बातों से तंग आ चुका था और उसने अपनी पत्नी और तीन बेटों के साथ चार दिन में ही घर में कुआँ खोदकर पानी की समस्या से छुटकारा पाया और अपनी बेटी की शादी हिन्दू युवक से करने के साथ-साथ सपरिवार वैदिक धर्म अंगीकार करने की घोषणा कर दी। यज्ञ हवन के साथ उस युवती का पिता आर्य बन गया और नाम रखा चौधरी हीरा सिंह।

आज हीरा सिंह की बेटी की शादी थी, किसी ने कहा, "हिन्दू इसकी बेटी ले जाएँगे, लेकिन इसके घर का हुक्का-पानी तक न पिएँगे।" ठाकुर बडगुजर ने जब यह सुना तो हीरासिंह का हुक्का भर लाया और पहली घूँट भरी और फिर हीरा के मुँह में नेह ठोक दी और हीरा जाटों, पंडितों, और ठाकुरों के साथ बैठकर हुक्का पीने लगा।

पंडित कृपाराम ने उसके नए कुएँ से पानी भरा और सबको पिलाया और खुद भी पिया। मुरारीलाल शर्मा ने एक लंबा भाषण दिया और आर्य समाज के प्रख्यात भजनीक तेजसिंह ने कई भजन सुनाए और बिन दान-दहेज के उस मुस्लिम बालिका मदीहा खान का विवाह संस्कार ब्राह्मण के लड़के से हो गया। उस जमाने में अपनी तरह का यह पहला अंतरधर्मीय विवाह था।

पंडित कृपाराम आगे चलकर स्वामी दर्शनानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्होंने हरिद्वार के निकट एक गुरुकुल महाविद्यालय स्थापित किया। बालक चतुरसेन प्रख्यात उपन्यासकार हुए और आर्य समाज अनाज मंडी की स्थापना की और हीरा सिंह विधायक तक बना।

स्वामी दर्शनानंद, चतुरसेन शास्त्री, ठाकुर हीरासिंह आदि को आज सब जानते हैं, लेकिन इतिहास के पन्नों में सरस्वती (मदीहा खान) का कहीं नाम नहीं है, जिनकी प्रेरणामात्र से आधा दर्जन लोग विद्वान और समाजसेवी बने और सिकंदराबाद आर्य समाज वैदिक धर्म प्रचार का सबसे बड़ा गढ बन गया था।

संदर्भ

1. यादें, 

आचार्य चतुरसेन, संज्ञान प्रकाशन, संस्करण 1968, पृष्ठ 45

2. मेरी आत्मकथा, चतुरसेन शास्त्री, 

हिन्द पाकेट बुक्स, 1970

3. सिकंदराबाद आर्य समाज का गौरवशाली इतिहास, 

ठाकुर हीरा सिंह, पृष्ठ 76

4. मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय, 

स्वामी दर्शनानंद सरस्वती,

पृष्ठ 34

पुस्तक-- "मुस्लिम विदुषियों की घर वापसी" का एक अंश

आर्यखंड टेलीविजन प्राइवेट लिमिटेड का उत्कृष्ट प्रकाशन।

प्रस्तुत‍ि - अलकनंदा स‍िंंह

Monday, 13 December 2021

मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के जनक इलाचन्‍द्र जोशी- पढ़‍िए उनकी कहानी 'रेल की रात '


 हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों के जनक माने जाने वाले इलाचंन्‍द्र जोशी का आज जन्‍मदिन है। 13 दिसंबर 1903 को तत्‍कालीन उत्तर प्रदेश और आज के उत्तराखंड में जन्‍मे इलाचंन्‍द्र जोशी की मृत्‍यु 1982 में हुई थी। इलाचंन्‍द्र जोशी ने अधिकांश साहित्यकारों की तरह अपनी साहित्यिक यात्रा काव्य-रचना से ही आरम्भ की थी। पर्वतीय-जीवन विशेषकर वनस्पतियों से आच्छादित अल्मोड़ा तथा उसके आस-पास के पर्वत-शिखरों एवं हिमालय के जलप्रपातों एवं घाटियों ने, झीलों और नदियों ने इनकी काव्यात्मक संवेदना को सदा जागृत रखा।

जोशी जी बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे। उत्तरांचल में जन्मे होने के कारण वहाँ के प्राकृतिक वातावरण का इनके चिन्तन पर बहुत प्रभाव पड़ा। अध्ययन में रुचि रखन वाले इलाचन्द्र जोशी ने छोटी उम्र में ही भारतीय महाकाव्यों के साथ-साथ विदेश के प्रमुख कवियों और उपन्यासकारों की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था। औपचारिक शिक्षा में रुचि न होने के कारण इनकी स्कूली शिक्षा मैट्रिक के आगे नहीं हो सकी परन्तु स्वाध्याय से ही इन्होंने अनेक भाषाएँ सीखीं। घर का वातावरण छोड़कर इलाचन्द्र जोशी कोलकाता पहुँचे। वहाँ उनका सम्पर्क शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय से हुआ।
मुख्य रचनाएँ
कहानी- ‘धूपरेखा’, ‘आहुति’, उपन्यास- ‘संन्यासी’, ‘परदे की रानी’, ‘मुक्तिपथ’ आदि।
प्रसिद्धि
मनोवैज्ञानिक उपन्यासकार, काहानीकार, आलोचक
विशेष योगदान
हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों का प्रारम्भ श्री जोशी से ही हुआ, लेकिन श्री जोशी ने मात्र मनोवैज्ञानिक यथार्थ का निरूपण न कर अपनी रचनाओं को आदर्शपरक भी बनाया।


ये पढ़‍िए उनकी कहानी- रेल की रात 



गाड़ी आने के समय से बहुत पहले ही महेंद्र स्टेशन पर जा पहुँचा था। गाड़ी के पहुँचने का ठीक समय मालूम न हो, यह बात नहीं कही जा सकती। जिस छोटे शहर में वह आया हुआ था, वहाँ से जल्दी भागने के लिए वह ऐसा उत्सुक हो उठा था कि जान-बूझ कर भी अज्ञात मन से शायद किसी अबोध बालक की तरह वह समझा था कि उसके जल्दी स्टेशन पर पहुँचने से संभवत: गाड़ी भी नियत समय से पहले ही आ जाएगी। 

होल्डाल में बँधे हुए बिस्तरे और चमड़े के एक पुराने सूटकेस को प्लेटफ़ार्म के एक कोने पर रखवा कर वह चिंतित तथा अस्थिर-सा अन्यमनस्क भाव से टहलते हुए टिकट-घर की खिड़की के खुलने का इंतिज़ार करने लगा। 

महेंद्र की आयु बत्तीस-तैंतीस वर्ष के लगभग होगी। उसके क़द की ऊँचाई साढ़े पाँच फ़ीट से कम नहीं मालूम होती थी। उसके शरीर का गठन देखने से उसे दुबला तो नहीं कहा जा सकता, तथापि मोटा वह नाम का भी न था। रंग उसका गेहुँआ था, कपोल कुछ चौड़ा, भौंहें कुछ मोटी किंतु तनी हुई, आँखें छोटी पर लंबी, काली मूँछें घनी पर पतली और दोनों सिरों पर कुछ ऊपर को उठी थीं। वह खद्दर का एक लंबा कुरता और खद्दर की धोती पहने था। सर पर टोपी नहीं थी। पाँवों में घड़ियाल के चमड़े के बने हुए चप्पल थे। उसके व्यक्तित्व में आकर्षण अवश्य था, पर वह आकर्षण सब समय सब व्यक्तियों की दृष्टि को अपनी ओर नहीं खींचता था। 

सूरज बहुत पहले डूब चुका था और शुक्ल पक्ष का अपूर्ण गोलाकार चंद्रमा अपने किरण-जाल से दिग्-दिगंत को स्निग्ध आलोक-छटा से विभासित करने लगा था। स्टेशन पर अधिक भीड़ न थी। प्लेटफ़ार्म पर टहलते-टहलते पूर्व की ओर क़दम निकल जाने पर ऐसा मालूम होने लगता था कि चाँदनी दीर्घ-विस्तृत समतल भूमि पर अलस क्लांति की तरह पड़ी हुई है। झिल्ली-झनकार का एकांतिक मर्मर स्वर इस अलसता की वेदना को निर्मम भाव से जगा रहा था, जिससे महेंद्र के हृदय की सुप्त व्याकुलता तिलमिला उठती थी। 

सिगनल डाउन हो गया था। टिकट-घर खुल गया था। थर्ड क्लास का टिकट ख़रीद कर महेंद्र गाड़ी का इंतिज़ार करने लगा। थोड़ी देर में दूर ही से सर्चलाइट के प्रखर प्रकाश से तिमिर-विदारण करती हुई गाड़ी दिखाई दी और झक-झक करती हुई स्टेशन पर आ खड़ी हुई। 

सामने के कंपार्टमेंट में केवल दो व्यक्ति बैठे थे और वे भी उतरने की तैयारी कर रहे थे। महेंद्र एक हाथ में बिस्तर की गठरी और दूसरे हाथ से सूटकेस पकड़ कर उसी में जा घुसा। जो दो व्यक्ति कंपार्टमेंट में थे, उनके उतरते ही एक चश्माधारी सज्जन ने दो महिलाओं के साथ भीतर प्रवेश किया। कुली ने आ कर नवागंतुक महाशय का सामान भीतर रख दिया और मजूरी के संबंध में काफ़ी हुज्जत करने के बाद पैसे ले कर चला गया। चश्माधारी सज्जन महिलाओं के साथ महेंद्र के सामने वाले बेंच पर बड़े आराम से बैठ गए। मालूम होता था कि वह बड़ी हड़बड़ी के साथ गाड़ी के आने के कुछ ही समय पहले स्टेशन पहुँचे थे और घबराहट में थे, कि महिलाओं को साथ ले कर यदि किसी कंपार्टमेंट में जगह न मिली, तो क्या हाल होगा। वह अभी तक हाँफ रहे थे, जिससे उनकी अब तक की परेशानी स्पष्ट व्यक्त होती थी। अब जब आराम से बैठने को ख़ाली जगह मिल गई, तो एक लंबी साँस ले कर चश्मा उतार कर रूमाल से मुँह का पसीना पोंछने लगे। पसीना पोंछते-पोंछते महेंद्र की ओर देख कर उन्होंने प्रश्न किया, 'शिकोहाबाद कै बजे गाड़ी पहुँचेगी, आप बता सकते हैं?' 

महेंद्र ने उत्तर दिया, 'जहाँ तक मेरा ख़याल है, बारह बजे के क़रीब पहुँचेगी।' 

महेंद्र कनखियों से महिलाओं की ओर देख रहा था। महिलाएँ उसके एकदम सामने बैठी थीं और यदि दृष्टि सीधी करके स्वाभाविक रूप से उन्हें देखता रहता, तो भी शायद न तो चश्माधारी सज्जन को और न महिलाओं को कोई आपत्ति होती, पर उसे अपनी स्वाभाविक संकोचशीलता के कारण उनकी ओर स्थिर दृष्टि से देखने का साहस नहीं होता था। दोनों महिलाएँ बेपर्दा बैठी थीं। उनमें एक की अवस्था प्राय: पैंतीस वर्ष की होगी, वह एक सफ़ेद चादर ओढ़े खड़ी थी, दूसरी बाईस-तेईस वर्ष की जान पड़ती थी, वह एक गुलाबी रंग की सुंदर, सुरुचिपूर्ण साड़ी पहने थी। दोनों यथेष्ट सभ्य और सुशील जान पड़ती थीं। ज्येष्ठा के देखने से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता था कि किसी समय वह सुंदर रही होगी, पर अब अस्वस्थता के कारण उसका मुखमंडल बिलकुल निस्तेज जान पड़ता था। कनिष्ठा यद्यपि सौंदर्य-कला की दृष्टि से सुंदरी नहीं थी, तथापि उसके मुख की व्यंजना में एक ऐसी सरल मधुरिमा वर्तमान थी, जो बरबस आँखों को आकर्षित कर लेती थी। 

आज कई कारणों से महेंद्र का जी दिन भर अच्छा नहीं रहा। गाड़ी में बैठने तक वह चिंतित, अन्यमनस्क तथा उदास था। पर गाड़ी में बैठते ही शिष्ट, सुशील तथा सुंदरी महिलाओं के साहचर्य से उसके खिन्न मन में एक सुखद सरलता छा गई। यद्यपि वह संकोच के कारण कुछ कम घबराया हुआ न था, तथापि चश्माधारी सज्जन की भोली आकृति तथा सरल भाव-भंगिमाओं से और महिलाओं की शालीनता से उसे इस बात पर धीरे-धीरे विश्वास होने लगा था कि उनके बीच किसी प्रकार का संकोच अनावश्यक ही नहीं बल्कि अशोभन भी है। 

चश्माधारी सज्जन ने चश्मा उतार कर एक रूमाल से उसे पोंछते हुए पूछा, 'आप क्या शिकोहाबाद जा रहे हैं?' 

'जी नहीं, मैं दिल्ली जा रहा हूँ। क्या आप शिकोहाबाद में ही रहते हैं?' 

'जी नहीं, मुझे टुँडला जाना है। मैं वहाँ कोर्ट में प्रैक्टिस करता हूँ। इधर कुछ दिनों के लिए घर आया हुआ था। अब अपनी 'वाइफ़' को और 'सिस्टर' को ले कर वापस जा रहा हूँ। 'सिस्टर' की तबीअत ठीक नहीं रहती, इसलिए उसे हवा-बदली के लिए ले जा रहा हूँ।' 

एक साधारण-से प्रश्न के उत्तर में इतनी बातों से परिचित होने पर महेंद्र को नवपरिचित सज्जन की बेतकल्लुफ़ी पर आश्चर्य हुआ और वह मन ही मन मुस्कराने लगा। उसने अनुमान लगाया कि ज्येष्ठा महिला 'सिस्टर' होगी और कनिष्ठा 'वाइफ़'। 

थोड़ी देर में गाड़ी चलने लगी। कोई दूसरा यात्री उस डिब्बे में न आया। 

चश्माधारी महाशय गाड़ी चलने के कुछ देर बाद ऊँघने लगे। वे रह न सके और बँधे हुए बिस्तर को तकिया बना कर एक दूसरे बेंच पर लेट गए और लेटते ही ख़र्राटे लेने लगे। न जाने क्यों, महेंद्र के मन में यह विश्वास जम गया कि इन नवपरिचित महाशय का जीवन बड़ा सुखी है। उनकी बे-तकल्लुफ़ी तथा उनके मुख का आत्म-संतोषपूर्ण भाव देख कर उनके मन में यह विश्वास जमने लगा था और जब उसने उन्हें निश्चिंत सोते हुए तथा ख़र्राटे भरते देखा, तो उसकी यह धारणा दृढ़ हो गई। 

ज्येष्ठा महिला ने भी थोड़ी देर में ऊँघना शुरू कर दिया। वह ऊँघती जाती थी और बीच-बीच में जब ज़बर्दस्त हिचकोला खाती थी तो जाग पड़ती थी। केवल कनिष्ठा महिला पूर्णत: सजग थी। वह कभी खिड़की के बाहर झाँक कर चाँदनी के उज्ज्वल आलोक में शायद 'पल-पल परिवर्तित' प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेती थी, कभी ऊँघनेवाली महिला की ओर देखती थी, कभी ख़र्राटे भरनेवाले महाशय, शायद अपने पति को एक बार सरसरी निगाह से देख लेती थी और कभी महेंद्र को स्निग्ध किंतु विस्मय की उत्सुकता से पूर्ण आँखों से देखने लगती थी। उन आँखों की स्थिर दृष्टि जब महेंद्र पर आ कर पड़ती थी तो, उसे ऐसा मालूम होने लगता कि मोहाविष्ट हुआ जा रहा है और उसकी सारी आत्मा, यहाँ तक कि सारा शरीर भी अपना रूप बदल रहा है और यह किसी अव्यक्त तथा अतींद्रिय मायावी स्पर्श से कुछ का कुछ हुआ जा रहा है। वह उस स्थिर दृष्टि का तेज़ सहन न कर सकने के कारण आँखें फिरा लेता था। 

गाड़ी टटर-टट्ट-टटर-टट्ट शब्द से चली जा रही थी। जाग्रत महिला की गुलाबी साड़ी का आँचल हवा के झोंके से नीचे खिसक कर उसके लहराते हुए घनकुंचित काले केशों की बहार दिखा रहा था। गुलाबी साड़ी भी हवा के ज़ोर से फ़र-फ़र फ़हरा रही थी। महेंद्र पूर्ण जाग्रत अवस्था में स्वप्न देखने लगा। उसे यह भी भ्रम होने लगा कि यह महिला, जो इसके पहले उसके लिए एकदम अज्ञात थी और निश्चय ही सदा अज्ञात रहेगी, न जाने किस चिदानंदमय लोक से अकस्मात आविर्भूत हो कर उसके पास आ बैठी है और गुलाबी रंग की पताका फ़हरा कर विश्व-विजय को निकली है और वह उसका सारथी बन कर उस अनंतगामी रेल रूपी रथ पर चला जा रहा है। सारा विश्व, समस्त मानवी तथा मानसी सृष्टि उसके लिए उस कंपार्टमेंट के भीतर समा गई थी, जिसमें ऊँघनेवाली महिला तथा सोए हुए सज्जन का कोई अस्तित्व नहीं था, और उसके बाहर क्षण-क्षण में परिवर्तित होनेवाले अस्थिर माया जगत का चिर चंचल रूप एकदम असत्य सत्ताहीन-सा लगता था। 

महेंद्र सोचने लगा कि उसने जीवन में कितनी ही स्त्रियों को विभिन्न रूपों तथा विचित्र परिस्थितियों में देखा है, पर आज का यह बिलकुल साधारण-सा अनुभव उसे क्यों ऐसा अपूर्व तथा अनुपम लग रहा है। वह सोच ही रहा था कि फिर उस विश्व-विजयिनी ने अपनी सुंदर विस्मित आँखों की रहस्यमयी उत्सुकता से भरी स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा। वह मन ही मन संबोधित करते हुए कहने लगा, चिर अज्ञाता, चिर अपरिचिता देवी! तुम मुझसे क्या चाहती हो। तुम्हारी इस मर्मभेदिनी दृष्टि का क्या अर्थ है? दैवयोग से महाकाल के इस नगण्यतम क्षण में, जिसकी सत्ता महासागर में एक क्षुद्रतम बुदबुदे के बराबर भी नहीं है, हम दोनों का आकस्मिक मिलन घटित हुआ है, और महासागर में बुदबुदे की तरह यह क्षण सदा के लिए विलीन हो जाएगा। तथापि इतने ही अर्से में क्या तुम हम दोनों के जन्मांतर के संबंध से परिचित हो गई अथवा यह सब कुछ नहीं है? तुम्हारी आँखों की उत्सुकता का कोई मूल्य नहीं है, मेरी विह्वल भावुकता का कोई महत्व नहीं है! महत्वपूर्ण जो कुछ है, वह है तुम्हारे पास लेटे हुए व्यक्ति का ख़र्राटे भरना। 

शिकोहाबाद पहुँचने पर चश्माधारी सज्जन की नींद न टूटी और ज्येष्ठा महिला ऊँघती रही। पर महेंद्र की विश्व-विजयिनी की आँखों में एक क्षण के लिए भी निद्रा-रसावेश का लेश नहीं दिखाई दिया। वह बीच-बीच में अपनी मर्म-भेदिनी दृष्टि की प्रखर उत्सुकता से उसके हृदय को अकारण निर्मम रूप से बिद्ध करती चली जाती थी। फलस्वरूप महेंद्र की गुलाबी मोहकता भी शिकोहाबाद पहुँचने तक अखंड बनी रही। 

शिकोहाबाद पहुँचने पर विश्व-विजयिनी ने चश्माधारी सज्जन के किंचित स्थूल शरीर को हाथ से हिलाते हुए जगाया। ऊँघती हुई महिला भी सँभल कर बैठ गई। कुलियों से सामान उतरवा कर चारों व्यक्ति उतर पड़े। दिल्लीवाली गाड़ी जिस प्लेटफ़ार्म पर लगनेवाली थी, वहाँ को जाने के लिए पुल पार करना पड़ा। पुल पार करके वे लोग जिस प्लेटफ़ार्म पर आए, वहाँ कहीं एक भी बत्ती जली हुई नहीं थी। पर चूँकि सर्वत्र निर्मल चाँदनी छिटक रही थी, इसलिए बत्ती की कोई आवश्यकता न जान पड़ी। गाड़ी के आने में अभी डेढ़ घंटे की देर थी। चश्माधारी महाशय एक बेंच पर बिस्तर फैला कर लेट गए। दोनों महिलाएँ भी नीचे रखे हुए सामान के ऊपर बैठ गईं। 

चश्माधारी सज्जन ने महेंद्र से कहा, 'आप भी किसी बेंच पर बिस्तर बिछा कर लेट जाइए।' 

पर कोई बेंच ख़ाली नहीं थी और न महेंद्र सोने के लिए ही उत्सुक था। आज की रेलवे यात्रा की चंद्रोज्ज्वल रात्रि उसे चिरजाग्रत तथा चिरजीवित स्वप्न-लोक में विचरण का अवसर दे रही थी। वह प्लेटफ़ार्म पर टहलते हुए अपने अंतर्मन में नवोद्घाटित जीवन-वैचित्र्य की चहल-पहल देख कर विस्मित हो रहा था। उसे ऐसा अनुभव हो रहा था कि वह जीवन की मधुरिमा से आज प्रथम बार परिचित हो रहा था। रेलवे लाइन के उस पार दिगंत विस्तृत ज्योत्स्ना-राशि अपने आवेश में स्वयं पुलकित हो रही थी और सामने काफ़ी दूर पर दो रक्तरंजित गोलाकार प्रकाश-चिह्न आकाश-दीप की तरह मानो आनंदोज्ज्वल रंगीन जीवन का मार्ग उसके लिए इंगित कर रहे थे। रेलगाड़ी में हो कर वह अनेक बार आया था और गया था और कितनी ही बार उसे रात के समय स्टेशनों पर गाड़ी के इंतिज़ार में ठहरना पड़ा था, पर आज की ऐंद्रजालिक उल्लासपूर्ण अनुभूति उसके लिए एकदम नई थी। इस बार इंद्रजाल के उद्घाटन का श्रेय जिसको था, वह मायाविनी इस समय टीन की छत के नीचे की छाया में बैठी हुई थी और अंधकार में उसकी आँखों के जादू का चलना बंद हो गया था। पर वहाँ पर मात्र उसका अस्तित्व ही महेंद्र की आत्मा में मायालोक की मोहकता का सृजन करने के लिए पर्याप्त था। 

वह टहलते-टहलते न मालूम किन निरुद्देश्य स्वप्नों की माया के फेर में पड़ा हुआ था कि अचानक चश्माधारी महाशय ने बेंच पर से पुकारते हुए कहा, 'अरे जनाब, कब तक टहलिएगा। अगर लेटना नहीं चाहते, तो यहाँ पर बैठ तो जाइए। नींद तो अब आवेगी नहीं। इसलिए गाड़ी के आने तक गप-शप ही रहे।' महाशयजी पहले ही काफ़ी सो चुके थे इसलिए अब नींद नहीं आ रही थी। महेंद्र मुस्कराता हुआ उनके पास अपने सूटकेस के ऊपर बैठ गया। 

महाशयजी ने कहा, 'आप दिल्ली में कहीं मुलाज़िम हैं?' 

'जी नहीं।' 

'तब आप क्या करते हैं, आप खद्दर पहने हैं, क्या आप राजनीतिज्ञ हैं?' 

'पहले था, अब नहीं के बराबर हूँ।' 

'वह कैसे?' 

इस प्रश्न के उत्तर में महेंद्र ने परम क्लांति का भाव दिखाते हुए कहा, 'अरे साहब, सुन के क्या कीजिएगा। व्यर्थ में आपके संस्कारों को आघात पहुँचेगा। इस चर्चा को हटाइए और किसी अच्छे विषय की चर्चा चलाइए।' 

स्वभावत: चश्माधारी का कौतूहल बढ़ा। उन्होंने आग्रह के साथ कहा, 'फिर भी ज़रा सुनें तो सही। आख़िर कौन-सी ऐसी बात हो गई।' 

महेंद्र की सुप्त स्मृतियाँ तिलमिला उठीं थीं। कनखियों से उसने देखा, प्राय: अंधकार में बैठी हुई मायाविनी महिला का ध्यान उसी की ओर था। पल में उसके मानसिक चक्षुओं के आगे उसके सारे विगत जीवन के व्यर्थता के दु:खद संस्मरणों की झाँकी चित्रपट पर क्रम से परिवर्तित होनेवाले चित्रों की तरह भासमान होने लगी। भाव के आवेश में आ कर उसने कहा, 'अच्छा तो सुनिए। ग्यारह वर्ष से ले कर तीस वर्ष तक की अवस्था तक गाँधी के सिद्धांतों के पीछे पागल हो कर, भूखों रह कर, पग-पग ठोकरें खा कर, समाज तथा परिवार की फटकारें सह कर, जीवन के सब सुखों को अपने ध्येय के लिए तिलांजलि दे कर, राष्ट्रीय आदर्श को ब्रह्मतत्व से भी अधिक महत्व दे कर सच्ची लगन से अपनी सारी आत्मा को निमज्जित करके देश का काम किया। तीन बार काफ़ी अवधि के लिए जेल में सड़ता रहा, बार-बार पुलिस के डंडे सर पर पड़ते रहे। ज़मीन-जायदाद कुर्क हो गई, माता-पिता अपनी कपूत संतान के कारण तबाह हो कर मानसिक और शारीरिक पीड़ा की पराकाष्ठा भोग कर चल बसे, पत्नी तड़प-तड़प कर अपने भाग्य को कोसती हुई मर गई। फिर भी मैं राष्ट्र से कल्याण के परम ध्येय को स्त्री, परिवार, आत्मा और परमात्मा से बहुत ऊँचा मानता हुआ सच्ची लगन से काम करता रहा। जब अंतिम बार जेलख़ाने में बंदी मियाद पूरी करने के बाद थका-माँदा मन तथा शरीर से क्लिष्ट और क्लांत हो कर मैं बाहर आया, तब एक-एक करके उन स्नेही जनों की स्मृतियाँ मेरे मन में उदित हो-हो कर व्यक्त होने लगीं, जिनकी मैं सदा अवज्ञा करता आया था। अपनी पत्नी से मैंने जीवन में शायद दो दिन भी घनिष्ठता से बातें न की होंगी। जब मैं बाहर रहता था, तो उसके पत्र बराबर मेरे पास आते रहते थे और मैं सरसरी दृष्टि से पढ़ कर अवज्ञा से फाड़ कर फेंक देता था। एक या दो बार से अधिक मैंने उसके पत्रों का उत्तर नहीं दिया और दो बार जो उत्तर दिया था, वह भी चार पंक्तियों में बिल्कुल रूखे-सूखे ढंग से। अब जब मैं अपने को सारे संसार में अकेला, स्नेह तथा संवेदना से वंचित, असहाय तथा निरुपाय अनुभव करने लगा तो उसकी भोली-भाली, सकरुण, स्नेह की वेदना से भरी सहज सलोनी मूर्ति प्रतिपल मेरी आँखों के आगे भासित होने लगी। उसके पत्रों में सरल शब्दों में वर्णित कातर व्याकुलता के हाहाकार की पुकार मानो मेरी स्मृति के अतुल गह्वर में दीर्घ सुप्ति की घोर जड़ता के बाद अकस्मात जागरित हो कर मेरे हृदय पर जलते हुए अंगारों के गोलों से आघात करने लगी। अपने जीवन में कभी किसी बात पर नहीं रोया था। माता-पिता तथा पत्नी, किसी की मृत्यु पर आँसू की एक बूँद मेरी आँखों से न निकली थी। अब रह-रह कर उन लोगों की याद में बिलख-बिलख कर मैं बार-बार रो पड़ता। मेरी स्नेहशील पतिपरायण पत्नी की करुण पुण्यछवि उज्ज्वल नक्षत्र की तरह मेरी आँखों के आगे स्पष्ट भासमान होने लगी। रह-रह कर मेरा जी विकल हो उठता था और मुझे ऐसा प्रतीत होने लगता, जैसे मेरे हृदय में किसी के निष्कलंक सुकुमार प्राणों की पैशाचिक हत्या का अपराध पाषाण-भार की तरह पड़ा हो। बहुत दिनों तक इस नृशंस अपराध की भयंकर अनुभूति का भूत मेरी आत्मा को अत्यंत निष्ठुरता से दबाता रहा। अब भी यह भौतिक आतंक कभी-कभी मेरे मन में जागरित हो उठता है। फिर भी अब मैंने अपने मन को बहुत समझा लिया है और जीवन को एक नई दृष्टि से नए रूप में देखने लगा हूँ और साधारण से साधारण घटना भी कभी-कभी मेरे मन में एक अलौकिक आनंद का आश्चर्य उत्पन्न करने लगती है। किसी स्त्री को देखते ही अब मेरे हृदय में एक श्रद्धा-पूर्ण उत्सुकता का भाव जाग पड़ता है। ऐसा मालूम होने लगता है, जैसे अपने जीवन में पहले स्त्री को देखा भी न हो, अब पहली बार इस आनंददायिनी रहस्यमयी जाति के अस्तित्व का अनुभव मुझे हुआ हो।' 

महेंद्र का लंबा लेक्चर समाप्त होते ही चश्माधारी सज्जन 'हा हा' करके ठठा कर हँसते हुए बोले, 'आप भी बड़े मज़े के आदमी हैं। ख़ूब!' यह कह कर वह बेंच पर आराम से लेट गए और उन्होंने आँखें बंद कर लीं। थोड़ी देर बाद वह ज़ोरों से ख़र्राटे लेने लगे। 

एक लंबी साँस लेते हुए महेंद्र ने प्राय: अंधकार में अस्पष्ट झलकती हुई गुलाबी साड़ी की ओर देखा। दो आँखों की मार्मिक दृष्टि से तीव्र मोहकता उस अर्द्ध अंधकार में भी विस्मित वेदना की उत्सुक उज्ज्वल रेखाओं को विकीरित कर रही थी। महेंद्र पुलक-विह्वल हो कर मंत्र-मुग्ध-सा बैठा रहा। 

घंटी बजी, दिल्ली को जानेवाली गाड़ी के आने की सूचना देते हुए सिगनल डाउन हुआ। सामने रक्त आकाश-द्वीप के बदले हरे रंग का प्रकाश जल उठा। यह हरित आलोक महेंद्र के मानस-पट में साड़ी के गुलाबी रंग के साथ मिल कर एक स्निग्ध-शुचि सौंदर्य-लोक का सृजन करने लगा। 

थोड़ी देर में दूर ही से गाड़ी का सर्चलाइट दिखाई दिया। चश्माधारी महाशय महेंद्र के जगाने पर फड़फड़ाते हुए उठे। कुलियों ने सामान सँभाल लिया। भक-भक करती हुई गाड़ी प्लेटफ़ार्म पर आ लगी। बड़ी भीड़ थी। चश्माधारी सज्जन को महिलाओं के साथ कुली लोग इंजन के उल्टी ओर बहुत दूर तक ले गए। कहीं स्थान न पा कर अंत में एक डिब्बे में ज़बर्दस्ती घुस गए। महेंद्र भी उन लोगों के साथ-साथ जा रहा था पर जिस डिब्बे में वे लोग घुसे, उस डिब्बे में स्थान का निपट अभाव देख कर वह विवश हो कर एक दूसरे डिब्बे में चला गया। वहाँ भी काफ़ी भीड़ थी। किसी प्रकार उसने अपने बैठने के लिए थोड़ा-सा स्थान बनाया। 

गार्ड ने सीटी दी। गाड़ी चल पड़ी। महेंद्र के मस्तिष्क में नाना अस्पष्ट भावनाएँ चक्कर काटने लगीं। दो दिन से उसे नींद नहीं आई थी। आज भी वह अभी तक सो नहीं पाया। इसलिए सोचते-सोचते वह ऊँघने लगा। ऊँघते हुए उसने देखा कि गुलाबी रंग की साड़ी द्रौपदी के चीर की तरह फैलती हुई अकारण सारे आकाश में छा गई है। सहसा दो स्थानों पर वह गगनव्यापी साड़ी फटी और उन दो छिद्रों से हो कर दो वेदनाशील, तीक्ष्ण, उज्ज्वल आँखें तीर की तरह प्रखर वेग से उसकी ओर धावित हो कर एक रूप में मिल कर एक बड़ी आँख के आकार में परिणत हो गईं। वह बड़ी आँखें उसके शरीर को छेद कर उसके हृत्पिंड को छू कर फिर ऊपर आकाश की ओर तीर की तरह छूटीं और आकाश में फैली हुई गुलाबी साड़ी में जा लगीं और फट कर फिर से दो सुंदर, किंतु करुणा-विकल आँखों के आकार में विभक्त हो गईं। 

टुँडला स्टेशन पर गाड़ी ठहरने पर महेंद्र पूर्णत: सचेत हो कर बैठ गया। चश्माधारी महाशय दोनों महिलाओं को साथ ले कर कंपार्टमेंट से बाहर उतरे और सामान को कुलियों के हवाले करके उनके साथ बाहर फाटक की ओर चले। महेंद्र ने अपने कंपार्टमेंट से अपनी विश्वविजयिनी को देखा। वह इस उत्सुकता में था कि एक बार अंतिम समय के लिए दोनों की आँखें चार हो जावें, पर न हुईं और गुलाबी साड़ी से आवृत सजीव प्रतिमा व्यस्त विह्वल-सी आगे को निकल गई। 

टुँडला से गाड़ी छूटने पर महेंद्र के कानों में चश्माधारी सज्जन के ठठा कर हँसने का शब्द गूँजने लगा। उसके अदृष्ट का चिर व्यंग्य पुकार मानो बार-बार कहता था - हा हा! आप भी बड़े मज़े के आदमी हैं : ख़ूब! 

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंंह

Friday, 3 December 2021

जन्‍मदिन विशेष: आसमान में धान बोने वाले कवि थे ‘विद्रोही’


‘विद्रोही’ के नाम से पहचाने जाने वाले कवि रमाशंकर यादव का जन्‍म 3 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला अंतर्गत आहिरी फिरोजपुर गांव में हुआ।

उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। सुल्तानपुर में उन्होंने स्नातक किया। इसके बाद उन्होंने कमला नेहरू इंस्टीट्यूट में वकालत करने के लिए दाखिला लिया लेकिन वो इसे पूरा नहीं कर सके। उन्होंने १९८० में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया। १९८३ में छात्र-आंदोलन के बाद उन्हें जेएनयू से निकाल दिया गया। इसके बावजूद वे आजीवन जेएनयू में ही रहे।

वे कहते थे, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं।" वे बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे

प्रगतिशील परंपरा के इस कवि की रचनाओं का एकमात्र प्रकाशित संग्रह ‘नई खेती’ है। इसका प्रकाशन इनके जीवन के अंतिम दौर २०११ ई में हुआ। वे स्नातकोत्तर छात्र के रूप में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े। यह जुड़ाव आजीवन बना रहा। इनका निधन ८ दिसंबर २०१५ को ५८ वर्ष की अवस्था में हो गया।
विद्रोही मुख्यतः प्रगतिशील चेतना के कवि हैं। उनकी कविताएं लंबे समय तक अप्रकाशित और उनकी स्मृति में सुरक्षित रही। वे अपनी कविता सुनाने के अंदाज के कारण बहुत लोकप्रि‍य रहे।

जुलूस, नारे, भीड़ और समारोह ही उनकी किताबें थीं। बदलाव की लड़ाइयों के हमवार रहे वे। सबकी बातों के बाद आख़िर में अपनी बात कहते, जोर से कहते और यही उनकी कविता होती। जिसमे इतिहास से वर्तमान तक सिमटा होता। वह इतिहास जो लिखा नहीं गया। जिसे लिखने के बजाय हर बार मिटाया जाता रहा। उसी मिटे हुए को वे सुनाते रहे। कविता में इतिहास को बताते रहे। वे अपने को बचाने की बात कहते हुए एक इतिहासबोध, एक सभ्यता को बचाने की बात करते हैं। 

नई खेती (कविता) में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जी  लिखते हैं कि-

मैं किसान हूँ, आसमान में धान बो रहा हूँ
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता
मैं कहता हूँ कि
गेगले-गोगले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है

तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी पर पड़ी है
मुझको बचाना उस इंसान को बचाना है
जिसकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है
तुम मुझे बचाओ !
मैं तुम्हारा कवि हूँ।

इसी तरह अवधी भषा की कव‍िता "इहवइ धरतिया हमार महतरिया" में ल‍ि‍खा है क‍ि-  

अमवा इमिलिया महुवआ की छइयाँ

जेठ बैसखवा बिरमइ दुपहरिया

धान कइ कटोरा मोरी अवध कइ जमिनिया

धरती अगोरइ मोरी बरख बदरिया

लगतइ असढ़वा घुमड़ि आये बदरा

पड़ि गईं बुनिया जुड़ाइ गयीं धरती

गुरबउ गरीब लइ के फरुहा कुदरिया

तोरइ चले बबुआ जुगदिया कै परती

पहिलइ वरवा पथरवा पै परिगा

छटकी कुदार मोर खुलि गा कपरवा

मितवा न जनव्या जमिनिया क पिरिया

टनकइ खोपड़ी मोरा दुखवा अपरवा

खुनवा बहा हइ मोरा जइसे पसिनवा

तोर तोर परती बनाइ दिहे जमता

इहवइ धरतिया हमार महतरिया

मरेउ पै न जइहैं जमिनिया क ममता

उहवइ धरती मोरी होइ गइ हरनवा

इहवइ हयेन मोरे दुख के करनवा

सथवा निभाइ देत्या मितवा दुलरुआ

छिड़ी बा लड़ायी मोरे खेते खरिहनवा

हमरी समरिया गहे जे तरुअरिया

ओनही के गीत गाना ओनही के रगिया

हम खुनवा रँगि-रँगि रेसम कै पगड़िया

बबुआ बाँधब तोरे मथवा पै पगिया

हमरा करेजवा जनमवइ क बिरही

अब न बुतायी मोरी छतिया कै अगिया

हम छनही मा बारि के बुताइ देबइ दुनिया

बहुतइ बिरही मोरे बिरहा कै अगिया...।


कव‍िता "औरतें" को कुछ इस तरह ल‍िखा है कि‍- 

कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी

ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है

और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं

ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है


मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ

क्या जल्दी है


मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ

औरतों की अदालत में तलब करूँगा

और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा


मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा

जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं

मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा

जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं

मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा

जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.


मैं उन औरतों को

जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं

फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात

दोबारा कलमबंद करूँगा

कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?

कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?

कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?


क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ

जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में

ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं

और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली

जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह


औरत की लाश धरती माता की तरह होती है

जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक


मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है

चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस

सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.


वे महाराज जो मर चुके हैं

महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं

और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?

इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.


मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है

जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं


कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना

जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता


औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं

औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं

औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं

मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं


इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,

मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी

जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?

मैं नहीं जानता

लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी

और यह मैं नहीं होने दूँगा.

वे अपनी परंपरा को क‍ितना मान देते हैं, इसे "दुनिया मेरी भैंस" में कहा है- 

मैं अहीर हूँ
और ये दुनिया मेरी भैंस है
मैं उसे दुह रहा हूँ
और कुछ लोग कुदा रहे हैं
ये कउन (कौन) लोग हैं जो कुदा रहे हैं ?
आपको पता है.
क्यों कुदा रहे हैं?
ये भी पता है.
लेकिन एक बात का पता
न हमको है न आपको न उनको
कि इस कुदाने का क्या परिणाम होगा
हाँ ...इतना तो मालूम है
कि नुकसान तो हर हाल में खैर
हमारा ही होगा
क्योंकि भैंस हमारी है
दुनिया हमारी है!

"राजा रानी किसी का पानी" पर ल‍िखे उनके आत्‍मसम्‍मान से भरे ये शब्‍द भी पढ़‍िए - 

राजा रानी किसी का पानी नहीं भरते हैं हम
सींच कर बागों को अपने अब हरा करते हैं हम।

शर्म से सिकुड़ी हुई इस देह को हैं तानते
दोस्तो, अपने झुके कन्धे खड़ा करते हैं हम।

ऐसा करने में है जलता ख़ून, तुम मत खेल जानो
मोम जैसे दिल को पत्थर-सा कड़ा करते हैं हम।

मान जाएँ हार अपने ऐसी तो आदत नहीं
बाद मरने के भी काफ़िर मौत से लड़ते हैं हम।

आग भड़काने के पीछे अपना ही घर फूँक डालें
सोचिएगा मत कि ख़ाली शायरी करते हैं हम। 

और अंत में 'तुम्हारा भगवान' पर ल‍िखी ये कव‍िता झकझोरती हैं हमें-

तुम्हारे मान लेने से
पत्थर भगवान हो जाता है,
लेकिन तुम्हारे मान लेने से
पत्थर पैसा नहीं हो जाता।
तुम्हारा भगवान पत्ते की गाय है,
जिससे तुम खेल तो सकते हो,
लेकिन दूध नहीं पा सकते। 

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंंह


Monday, 22 November 2021

शरद ॠतु पर ल‍िखी पढ़‍िए कुछ प्रस‍िद्ध कव‍िताऐं



5 सितम्बर, 1948 को इलाहाबाद प्रवास के समय ल‍िखी अज्ञेय की कव‍िता-  शरद 


सिमट गयी फिर नदी, सिमटने में चमक आयी 

गगन के बदन में फिर नयी एक दमक आयी 

दीप कोजागरी बाले कि फिर आवें वियोगी सब 

ढोलकों से उछाह और उमंग की गमक आयी 


बादलों के चुम्बनों से खिल अयानी हरियाली 

शरद की धूप में नहा-निखर कर हो गयी है मतवाली 

झुंड कीरों के अनेकों फबतियाँ कसते मँडराते 

झर रही है प्रान्तर में चुपचाप लजीली शेफाली 


बुलाती ही रही उजली कछार की खुली छाती 

उड़ चली कहीं दूर दिशा को धौली बक-पाँती 

गाज, बाज, बिजली से घेर इन्द्र ने जो रक्खी थी 

शारदा ने हँस के वो तारों की लुटा दी थाती 


मालती अनजान भीनी गन्ध का है झीना जाल फैलाती 

कहीं उसके रेशमी फन्दे में शुभ्र चाँदनी पकड़ पाती! 

घर-भवन-प्रासाद खण्डहर हो गये किन-किन लताओं की जकड़ में 

गन्ध, वायु, चाँदनी, अनंग रहीं मुक्त इठलाती! 


साँझ! सूने नील में दोले है कोजागरी का दिया 

हार का प्रतीक - दिया सो दिया, भुला दिया जो किया! 

किन्तु शारद चाँदनी का साक्ष्य, यह संकेत जय का है 

प्यार जो किया सो जिया, धधक रहा है हिया, पिया! 

..............

सुमित्रानंदन पंत द्वारा ल‍िखी गई कव‍िता- शरद चाँदनी!


शरद चाँदनी!

विहँस उठी मौन अतल

नीलिमा उदासिनी!


आकुल सौरभ समीर

छल छल चल सरसि नीर,

हृदय प्रणय से अधीर,

जीवन उन्मादिनी!


अश्रु सजल तारक दल,

अपलक दृग गिनते पल,

छेड़ रही प्राण विकल

विरह वेणु वादिनी!


जगीं कुसुम कलि थर् थर्

जगे रोम सिहर सिहर,

शशि असि सी प्रेयसि स्मृति

जगी हृदय ह्लादिनी!

शरद चाँदनी!

..............

केदारनाथ अग्रवाल द्वारा रच‍ित कव‍िता - दिवस शरद के


मुग्ध कमल की तरह

पाँखुरी-पलकें खोले,

कन्धों पर अलियों की व्याकुल

अलकें तोले,

तरल ताल से

दिवस शरद के पास बुलाते

मेरे सपने में रस पीने की

प्यास जगाते !

...........

कव‍ि गिरधर गोपाल द्वारा रच‍ित - शरद हवा 

शरद की हवा ये रंग लाती है,

द्वार-द्वार, कुंज-कुंज गाती है।


फूलों की गंध-गंध घाटी में

बहक-बहक उठता अल्हड़ हिया

हर लता हरेक गुल्म के पीछे

झलक-झलक उठता बिछुड़ा पिया


भोर हर बटोही के सीने पर

नागिन-सी लोट-लोट जाती है।


रह-रह टेरा करती वनखण्डी

दिन-भर धरती सिंगार करती है

घण्टों हंसिनियों के संग धूप

झीलों में जल-विहार करती है


दूर किसी टीले पर दिवा स्वप्न

अधलेटी दोपहर सजाती है।


चाँदनी दिवानी-सी फिरती है

लपटों से सींच-सींच देती है

हाथ थाम लेती चौराहों के

बाँहों में भींच-भींच लेती है


शिरा-शिरा तड़क-तड़क उठती है

जाने किस लिए गुदगुदाती है।

..........


सन् 1966 में पंकज सिंह  द्वारा रच‍ित कव‍िता- शरद के बादल 

फिर सताने आ गए हैं

शरद के बादल


धूप हल्की-सी बनी है स्वप्न

क्यों भला ये आ गए हैं

यों सताने

शरद के बादल


धैर्य धरती का परखने

और सूखी हड्डियों में कंप भरने

हवाओं की तेज़ छुरियाँ लपलपाते

आ गए हैं

शरद के बादल।

प्रस्‍तुत‍ि- अलकनंदा स‍िंह





Monday, 8 November 2021

मशहूर शायर जॉन एल‍िया… वो शख़्स ज‍िसे खुद को तबाह करने का मलाल नहीं रहा


 Jaun elia की शायरी में उनकी छलकती हुई संवेदनाएं हैं, वो जो भी हैं, जैसे भी हैं अपने जैसे हैं। दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में एक संभ्रांत परिवार में जौन ने जन्म लिया। जौन का इंतकाल आज ही के द‍िन यान‍ि  8 नवंबर, 2002 को हुआ।

जॉन एल‍िया यानी ऐसा नाम, कौतूहल जिनके नाम के साथ ही शुरू हो जाता है। अमरोहा में जन्मे,विभाजन के बाद भी दस साल तक भारत में रहे और फिर कराची चले गए। उसके बाद दुबई भी गए। संवाद शैली में,आसान शब्दों में,लगभग हर विषय पर नज्म या ग़ज़ल कह सकने वाले … मन के उलझे हुए तारों के गुंजलक को बड़ी सादगी के साथ सुलझाने वाले जौन मौत के बाद और भी अधिक मश्हूर हुए। उनकी गजलों पर दो किताबें देवनागरी में सामने आई हैं।

हिंदी जानने पढ़ने वालों को भी इस शायर के पास हर एहसास की ग़ज़लें दिखी हैं। नौजवान हों या बुजुर्ग, जॉन को सब पसंद करते हैं। उनका सोचने और कहने का ढंग लगभग सभी शायरों से अलग है। अब दौर यह है कि सोशल मीडिया पर जॉन अहमद फरा़ज और ग़ालिब से भी अधिक लोकप्रिय दिखते हैं।

14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे एलिया अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं।’शायद’,’यानी’,’गुमान’,’लेकिन’ और गोया’ प्रमुख संग्रह हैं। इनकी मृत्यु 8 नवंबर 2004 को हुई। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 2000 में प्राइड ऑफ परफार्मेंस अवार्ड भी दिया था। उन्‍हें अब तक सहज शब्‍दों में कठिन बात करने वाला,अजीब-ओ-गरीब जिंदगी जीने वाला,मंच पर ग़ज़ल पढ़ते हुए विभिन्‍न मुद्राएं बनाने वाला शायर ही माना गया है,लेकिन जॉन को अभी और बाहर आना है।

वह केवल रूमान के शायर नहीं थे,उनकी निजी जिंदगी जितनी भी दुश्‍वार क्‍यों न रही हो,वह ऐसे शायर हैं जिन्‍हें हर पीढ़ी पढ़ती है।

उनकी ये ग़ज़लेंं-   

 

रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है

दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है

शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है

एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है

तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है।

2. 

तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो

बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो

तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो

मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो

तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो

मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो

अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो।

उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या 

दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या 

मेरी हर बात बे-असर ही रही 

नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या 

मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं 

यही होता है ख़ानदान में क्या 

अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं 

हम ग़रीबों की आन-बान में क्या 

ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से 

आ गया था मिरे गुमान में क्या 

शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद 

नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या 

ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़ 

तू नहाती है अब भी बान में क्या 

बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में 

आबले पड़ गए ज़बान में क्या 

ख़ामुशी कह रही है कान में क्या 

आ रहा है मिरे गुमान में क्या 

दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत 

ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या 

वो मिले तो ये पूछना है मुझे 

अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या 

यूँ जो तकता है आसमान को तू 

कोई रहता है आसमान में क्या 

है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद 

ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या 

ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता 

एक ही शख़्स था जहान में क्या।


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नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम 

बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम 


ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी 

कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम 


ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं 

वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम 

- अलकनंदा स‍िंंह

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