Sunday, 30 June 2019

जन्‍मदिन: जनकवि बाबा नागार्जुन की कविताओं के अंश

मैथिली के अप्रतिम लेखक और जनकवि बाबा नागार्जुन का जन्‍म 30 जून 1911 को मधुबनी जिले के सतलखा गांव स्‍थित अपने ननिहाल में हुआ था। उनका पैतृक गाँव वर्तमान दरभंगा जिले का तरौनी था। इनके पिता का नाम गोकुल मिश्र और माता का नाम उमा देवी था। नागार्जुन के बचपन का नाम ‘ठक्कन मिसर’ था।
नागार्जुन के काव्य संसार की बनावट में आम आदमी की उपस्थिति है। उसकी पक्षधरता से उपजे राजनीतिक, आर्थिक सरोकार हैं। व्यवस्था और प्रभुत्वसंपन्न वर्ग के प्रति आक्रोश की सक्रियता है। उनके रचना संसार में जीवन के यथार्थ प्रतिबिंब साफ नज़र आते हैं। कविता के यथार्थ और जीवन में वहां कोई अंतर नहीं है। उनकी कविताओं में मजदूरों की जुझारू चेतना की अभिव्यक्ति है। उनकी शक्ति, जनता के निकटतम संपर्क और जनसाधारण की आशा-आकांक्षाओं से अपने आपको एकाकार करने में है। वे सच्चे अर्थों में जनकवि थे।
प्रस्तुत है जनकवि बाबा नागार्जुन की कविताओं के अंश-
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बन्दर बापू के!
सचमुच जीवनदानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बन्दर बापू के!
जल-थल-गगन-बिहारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
लीला के गिरधारी निकले तीनों बन्दर बापू के!
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके
कर दिए मनोरथ चूर–चूर !
उनको प्रणाम !
बातें–
हँसी में धुली हुईं
सौजन्य चंदन में बसी हुई
बातें–
चितवन में घुली हुईं
व्यंग्य-बंधन में कसी हुईं
बातें–
उसाँस में झुलसीं
रोष की आँच में तली हुईं
सत्य को लकवा मार गया है
वह लंबे काठ की तरह
पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात
वह फटी–फटी आँखों से
टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात
कोई भी सामने से आए–जाए
सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी फर्क नहीं पड़ता
पथराई नज़रों से वह यों ही देखता रहेगा
सारा–सारा दिन, सारी–सारी रात
पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी
नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही
जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी
पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर–
चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी
दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चाँदनी
क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में
इन शातिर निगाहों में
मुझे तो बहुत कुछ
प्रतिफलित लग रहा है!
नफरत की धधकती भट्टियाँ…
प्यार का अनूठा रसायन…
अपूर्व विक्षोभ…
जिज्ञासा की बाल-सुलभ ताजगी…
ठगे जाने की प्रायोगिक सिधाई…
प्रवंचितों के प्रति अथाह ममता…
क्या नहीं झलक रही
इन घुच्ची आँखों से?
हाय, हमें कोई बतलाए तो!
क्या नहीं है
इन घुच्ची आँखों में!
तुम मुस्कान लुटाती आओ,
तुम वरदान लुटाती जाओ,
आओ जी चाँदी के पथ पर,
आओ जी कंचन के रथ पर,
नज़र बिछी है, एक-एक दिक्पाल की
छ्टा दिखाओ गति की लय की ताल की
आओ रानी, हम ढोयेंगे पालकी !
सीधे-सादे शब्द हैं, भाव बड़े ही गूढ़
अन्न-पचीसी घोख ले, अर्थ जान ले मूढ़
कबिरा खड़ा बाज़ार में, लिया लुकाठी हाथ
बन्दा क्या घबरायेगा, जनता देगी साथ
छीन सके तो छीन ले, लूट सके तो लूट
मिल सकती कैसे भला, अन्नचोर को छूट
कर गई चाक
तिमिर का सीना
जोत की फाँक
यह तुम थीं
सिकुड़ गई रग-रग
झुलस गया अंग-अंग
बनाकर ठूँठ छोड़ गया पतझार
उलंग असगुन-सा खड़ा रहा कचनार
अचानक उमगी डालों की सन्धि में
छरहरी टहनी
पोर-पोर में गसे थे टूसे
यह तुम थीं
कालिदास! सच-सच बतलाना
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
कालिदास! सच-सच बतलाना!
शिवजी की तीसरी आँख से
निकली हुई महाज्वाला में
घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोये थे
कालिदास! सच-सच बतलाना
रति रोयी या तुम रोये थे?

Saturday, 29 June 2019

आज ही के दिन दुनिया में आए थे हास्य कवि और गीतकार शैल चतुर्वेदी

हिंदी के सुप्रसिद्ध हास्य कवि और गीतकार शैल चतुर्वेदी आज के दिन ही इस दुनिया में आए थे। हास्य व्यंग के लिए पहचाने जाने जाने वाले शैल चतुर्वेदी ने बॉलीवुड में भी बतौर चरित्र अभिनेता बेहतरीन काम किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राध्यापक के रूप में अपने करियर की शुरूआत करने वाले शैल चतुर्वेदी ने उपहार, चितचोर, नैया, हम दो हमारे दो, चमेली की शादी, नरसिम्हा और क़रीब जैसी हिंदी फिल्मों में काम किया। लोग उनकी समसामयिक राजनीति पर काव्यात्मक व्यंग्य से आज भी लोटपोट हो जाते हैं। 70 और 80 के दशक में बदलते राजनीतिक समीकरणों से उन्होंने खूब खाद-पानी लिया और अपनी काव्यात्मक टिप्पणियों में उसका उपयोग किया।
शैल चतुर्वेदी ने एक कवि और चरित्र अभिनेता के रूप में अपनी पीढ़ी को तो प्रभावित किया ही, आज की जनरेशन पर भी अपनी अमिट छाप छोड़ी।
पेश हैं उनकी कविताओं से चुनिंदा अंश-
सारे काम अपने-आप हो रहे हैं
जिसकी अंटी में गवाह है
उसके सारे खून
माफ़ हो रहे हैं
इंसानियत मर रही है
और राजनीति
सभ्यता के सफ़ेद कैनवास पर
आदमी के ख़ून से 
हस्ताक्षर कर रही है।
मूल अधिकार ?
बस वोट देना है
सो दिये जाओ
और गंगाजल के देश में
ज़हर पिये जाओ।
लोकल ट्रेन से उतरते ही
हमने सिगरेट जलाने के लिए
एक साहब से माचिस माँगी, 
तभी किसी भिखारी ने
हमारी तरफ हाथ बढ़ाया, 
हमने कहा- 
“भीख माँगते शर्म नहीं आती?”
ओके, वो बोला-
“माचिस माँगते आपको आयी थी क्या?”
बाबूजी! माँगना देश का करेक्टर है,
जो जितनी सफ़ाई से माँगे
उतना ही बड़ा एक्टर है
गरीबों का पेट काटकर
उगाहे गए चंदे से
ख़रीदा गया शाल
देश (अपने) कन्धों पर डाल
और तीन घंटे तक
बजाकर गाल
मंत्री जी ने
अपनी दृष्टि का संबंध 
तुलसी के चित्र से जोड़ा
फिर रामराज की जै बोलते हुए
(लंच नहीं) मंच छोड़ा
मार्ग में सचिव बोला-
“सर, आपने तो कमाल कर दिया
आज तुलसी जयंती है
और भाषण गांधी पर दिया।”
हमारे एक मित्र हैं
रहने वाले हैं रीवाँ के
एजेंट हैं बीमा के
मिलते ही पूछेंगे- “बीमा कब करा रहे हैं।”
मानो कहते हों- “कब मर रहे हैं?”
फिर धीरे से पूछेंगे- “कब आऊँ
कहिए तो दो फ़ार्म लाऊँ
पत्नी का भी करवा लीजिए
एक साथ दो-दो रिस्क कवर कीजिए
आप मर जाएँ तो उन्हें फ़ायदा
वो मर जाएँ
तो आपका फ़ायदा।”
अब आप ही सोचिए
मरने के बाद 
क्या फ़ायदा
और क्या घाटा
हमारे एक फ्रैंड हैं
सूरत-शक्ल से
बिल्कुल इंग्लैंड हैं 
एक दिन बोले-
“यार तीन लड़के हैं
एक से एक बढ़के हैं
एक नेता है
हर पाँचवें साल
दस-बीस हज़ार की चोट देता है
पिछले दस साल से
चुनाव लड़ रहा है
नहीं बन पाया सड़ा-सा एमएलए
बोलो तो कहता है-
“अनुभव बढ़ रहा है”
पालिटिक्स के चक्कर में
बन गया पोलिटिकल घनचक्कर
और दूसरा ले रहा है
कवियों से टक्कर
कविताएँ बनाता है
न सुनो तो
चाय पिलाकर सुनाता है
तीसरा लड़का डॉक्टर है
कई मरीज़ों को
छूते ही मार चुका है
बाहर तो बाहर
घर वालों को तार चुका है
हरा भरा घर था
दस थे खाने वाले
कुछ और थे आने वाले
केवल पांच रह गए
बाकी के सब 
दवा के साथ बह गए
मगर हमारी काकी
बड़े-बूढ़ों के नाम पर
वही थी बाकी
चल फिर लेती थी
कम से कम 
घर का काम तो कर लेती थी
जैसे-तैसे जी रही थी
कम से कम 
पानी तो पी रही थी
मगर हमारे डॉक्टर बेटे का
लगते ही हाथ
हो गया सन्निपात
बिना जल की मछली-सी
फड़फड़ाती रही
दो ही दिनों में सिकुड़कर
हाफ़ हो गई
और तीसरे दिन साफ़ हो गई
दुख तो इस बात का है
कि हमारी ग़ैरहाज़िरी में मर गई
पाला हमने 
और वसीयत दूसरे के नाम कर गई”
एक दिन अकस्मात
एक पुराने मित्र से
हो गई मुलाकात
कहने लगे-“जो लोग
कविता को कैश कर रहे हैं
वे ऐश कर रहे हैं
लिखने वाले मौन हैं
श्रोता तो यह देखता है
कि पढ़ने वाला कौन है
लोग-बाग
चार-ग़ज़लें
और दो लोक गीत चुराकर
अपने नाम से सुना रहे हैं
भगवान ने उन्हें ख़ूबसूरत बनाया है
वे ज़माने को
बेवकूफ़ बना रहे हैं

Saturday, 1 June 2019

आज अनायास ही ...प्रयाण-गीत


प्रयाण-गीत गाए जा!
तू स्वर में स्वर मिलाए जा!
ये जिन्दगी का राग है--जवान जोश खाए जा !
प्रयाण-गीत ...

तू कौम का सपूत है!
स्वतन्त्रता का दूत है!
निशान अपने देश का उठाए जा, उठाए जा !
प्रयाण-गीत...

ये आंधियां पहाड़ क्या?
ये मुश्किलों की बाढ़ क्या?
दहाड़ शेरे हिन्द! आसमान को हिलाए जा !
प्रयाण-गीत...

तू बाजुओं में प्राण भर!
सगर्व वक्ष तान कर!
गुमान मां के दुश्मनों का धूल में मिलाए जा।
प्रयाण-गीत गाए जा!
तू स्वर में स्वर मिलाए जा!
ये जिन्दगी का राग है--जवान जोश खाए जा।

- गोपालप्रसाद व्यास

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