Saturday, 6 June 2020

हर शाख पे उल्लू बैठा है… के रचयिता थे शौक बहराइची

मशहूर शायर शौक़ बहराइची का जन्म 6 जून 1884 को अयोध्या के सैयदवाड़ा मोहल्ले में हुआ था। शौक़ का वास्तविक नाम ‘रियासत हुसैन रिज़वी’ था। शौक़ का मृत्यु: 13 जनवरी 1964 को हुई।
नेताओं व ग़लत कार्यों में लिप्त व्यक्तियों पर कटाक्ष करने के लिए लिखा गया उनका एक शेर देश में सर्वाधिक इस्तेमाल होता है पर बहुत कम ऐसे लोग हैं, जिन्हें यह पता होगा कि इस शेर को लिखने वाले शायर का नाम ‘शौक़ बहराइची’ है।
वो शेर है-
‘बर्बाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफ़ी है
हर शाख पे उल्लू बैठें हैं अंजाम ऐ गुलिस्तां क्या होगा।’
जीवन परिचय
शौक़ एक साधारण मुस्लिम शिया परिवार में पैदा हुए जो बाद में बहराइच जाकर बस गए। इस कारण इनके नाम से बहराइची जुड़ गया। यहीं पर उन्होंने ग़रीबी में भी शायरी से नाता जमाए रखा। रियासत हुसैन रिज़वी यहां ‘शौक़ बहराइची’ के नाम से शायरी के नए आयाम गढ़ने लगे। उनके बारे में जो भी जानकारी प्रामाणिक रूप से मिलती है, वह उनकी मौत के तकरीबन 50 साल बाद बहराइच जनपद के निवासी व लोक निर्माण विभाग के रिटायर्ड इंजीनियर ताहिर हुसैन नक़वी के नौ वर्षों की मेहनत का नतीजा है। उन्होंने उनके शेरों को संकलित कर ‘तूफ़ान’ किताब की शक्ल दी गयी है।
ग़रीबी में बीता जीवन
ताहिर नक़वी बताते हैं “जितने मशहूर अंतर्राष्‍ट्रीय शायर शौक़ साहब हुआ करते थे उतनी ही मुश्किलें उनके शेरों को ढूँढने में सामने आईं। निहायत ही ग़रीबी में जीने वाले शौक़ की मौत के बाद उनकी पीढ़ियों ने उनके कलाम या शेरों को सहेजा नहीं।
ऐसे में ताहिर को अपनी खोज के दौरान तमाम शेर कबाड़ी की दुकानों से खुशामत करके और ढूंढ-ढूंढकर खोजने पड़े”। शौक़ बहराइची की एक मात्र आयल पेंटिग वाली फोटो के बारे में ताहिर नक़वी बताते हैं “यह फोटो भी हमें अचानक एक कबाड़ी की ही दुकान पर मिल गई अन्यथा इनकी कोई भी फोटो मौजूद नहीं थी।” व्यंग्‍य जिसे उर्दू में तंज ओ मजाहिया कहा जाता है, इसी विधा के शायर शौक़ ने अपना वह मशहूर शेर बहराइच की कैसरगंज विधानसभा से विधायक और 1957 के प्रदेश मंत्री मंडल में कैबिनेट स्वास्थ मंत्री रहे हुकुम सिंह की एक स्वागत सभा में पढ़ा था, जहाँ से वह मशहूर होता ही चला गया। ताहिर नक़वी बताते हैं कि यह शेर जो प्रचलित है उसमें और उनके लिखे में थोड़ा सा अंतर कहीं कहीं होता रहता है। वह बताते हैं कि सही शेर यह है “बर्बाद ऐ गुलशन कि खातिर बस एक ही उल्लू काफ़ी था, हर शाख पर उल्लू बैठा है अंजाम ऐ गुलशन क्या होगा”


गुमनाम शायर
शौक़ बहराइची की मौत के बाद भी उनकी कहीं कोई सुध ना लेना एक मशहूर शायर को गुमनाम मौत देने का जिम्मेदार माना जा सकता है। शौक़ की इस गुमनामियत पर उनका ही एक और मशहूर शेर सही बैठता है।
“अल्लाहो गनी इस दुनिया में, सरमाया परस्ती का आलम, बेज़र का कोई बहनोई नहीं, ज़रदार के लाखों साले हैं”
शौक़ बहराइची के बहराइच में बीते दिन काफ़ी ग़रीबी में रहे और यहाँ तक की उन्हें कोई मदद भी नहीं मिलती थी। आज़ादी के बाद सरकार की ओर से कुछ पेंशन बाँध देने के बाद भी जब पेंशन की रकम उन तक नहीं पहुंची तो बहुत बीमार चल रहे शायर शौक़ के मन ने उस पर भी तंज कर ही दिया।
“सांस फूलेगी खांसी सिवा आएगी, लब पे जान हजी बराह आएगी, दादे फ़ानी से जब शौक़ उठ जाएगा, तब मसीहा के घर से दवा आएगी”
-संकलित

Monday, 1 June 2020

यशस्वी कवि की बलदेव वंशी की जयंती पर पढ़िए उनकी कुछ रचनाएं


भारतीय भाषाओं को उनका हक दिलाने के आंदोलन में भी अग्रणी भूमिका निभाने वाले बलदेव वंशी इतने अच्छे कवि और लेखक थे कि उनके शब्दों की गूंज से हिंदी साहित्य जगत आज भी जाज्वल्यमान है. उनका जन्म 1 जून 1938 को मुलतान में हुआ था. उनकी कविताओं में स्वातंत्र्योत्तर भारत के मनुष्य की तकलीफ, संघर्ष और संवेदना को हृदयग्राही अभिव्यक्ति मिली है. उनकी कविताओं में प्रकृति और मनुष्य के बीच एक अनोखा तादात्म्य लिए है. उनकी कविताएं एक तरफ दूर-निकट इतिहास के पत्र और परिवेश उठाकर समकालीन जीवन की संभावनाएँ तलाशती हैं तो दूसरी तरफ मिथकों को उठाकर उनके जरिये अपनी बात अपने तरीके से कहने की कोशिश करती हैं.
उनके लगभग पंद्रह कविता संकलन ‘दर्शकदीर्घा से’, ‘उपनगर में वापसी’, ‘अंधेरे के बावजूद’, ‘बगो की दुनिया’, ‘आत्मदान’, ‘कहीं कोई आवाज़ नहीं’, ‘टूटता हुआ तार’, ‘एक दुनिया यह भी’, ‘हवा में खिलखिलाती लौ’, ‘पानी के नीचे दहकती आग’, ‘खुशबू की दस्तक’, ‘सागर दर्शन’, ‘अंधेरे में रह दिखाती लौ, ‘नदी पर खुलता द्वार’, ‘मन्यु’, ‘वाक् गंगा’, ‘इतिहास में आग’, ‘पत्थर तक जाग रहे हैं’, ‘धरती हांफ रही है’, ‘महाआकाश कथा’, ‘पूरा पाठ गलत’, तथा ‘चाक पर चढ़ी’ नाम से प्रकाशित हो चुके हैं. इनके अलावा दस आलोचक पुस्तकों सहित पैंतालीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित रहीं. उन्होंने ‘दादू ग्रंथावली’, ‘सन्त मलूकदास ग्रंथावली’, ‘सन्त मीराबाई’ और ‘सन्त सहजो कवितावलियाँ’ नाम से भक्ति साहित्य पर भी बड़ा काम किया और ‘कबीर शिखर सम्मान’, ‘मलूक रत्‍न पुरस्कार’ और ‘दादू शिखर सम्मान’ आदि से सम्मनित हुए. 07 जनवरी 2018 को उनका निधन हुआ.
यशस्वी कवि की बलदेव वंशी की जयंती पर पढ़िए उनकी कुछ रचनाएं:
1.
सूर्योदय
सुरमई अंधकार था–
मछुआरी खपरैलों पर बिछा-बिछा
टूटी नावों पर रोया-सोया
भीतर-बाहर लिखा-दिखा
समूचे सागर पर अछोर
इसे बेचने आते हैं त्रिनेत्र !
लो !
देखते-देखते
आरक्त हो उठी
प्रति दिशा-दिशा
रंग गई प्रति लहर-लहर
खिल-खिला उठा राग-
अब जीवन जल
पुन: छलल छलल छलल…
2.
जन-समुद्र
समुद्र की लहरों के साथ
लोग खेलते हैं
जबकि समुद्र भी खेलता है लोगों के साथ…
लहरों को अपनी ओर आता देख
पाँव उचका
उछल जाते हैं कौतुकी लोग
पर ये लहरें
उन्हें अपने सर्पमुखी फन पर उठा
किनारे पर छोड़ आती हैं–
लो, यह तुम्हारा किनारा है
इसे थामो !
लहरें
लोगों के किनारे जानती हैं
जबकि इन लोगों को पता नहीं
समुद्र का किनारा कहाँ है
जब-जब किनारा लांघते हैं लोग
तो ये लहरें उन्हें भिगोती-उछालती ही नहीं
अपने में समो लती हैं
जिन हाथों से थपकी देती हैं मस्ती-भरी
उन्हीं से पकड़ कर
बरबस,
भीतर डुबो देती हैं !
क्योंकि इन बेचारे लोगों को
पता नहीं,
समुद्र का किनारा कहाँ है !
3.
अधूरा है: सुन्दर है
अधूरा है!
इसीलिए सुन्दर है!
दुधिया दाँतों तोतला बोल
बुनाई हाथों के स्पर्श का अहसास!
ऊनी धागों में लगी अनजानी गाँठें, उचटने
सिलाई के टूटे-छूटे धागे
चित्र में उभरी, बे-तरतीब रंगतें-रेखाएं
शायद इसीलिए
अभावों में भाव अधिक खिलते हैं,
चुभते सालते और खलते हैं
एक टीस की अबूझ स्मृति
जीवन भर सालने वाली
आकाश को दो फाँक करती तड़ित रेखा
और ऐसा ही और भी बहुत कुछ
जिसे लोग अधूरा या अबूझ मानते आए हैं
उसे ही सयाने लोग
पूरा और सुन्दर बखानते गए हैं
चाहे हुए रास्ते, जीवन और पूरे व्यक्ति
कहाँ मिलते हैं!
नियति के हाथों
औचक मिले
मानसिक घाव
पूरे कहाँ सिलते हैं!…
4.
कैनवास पर काली लकीरें
बड़े करीने से
आकाँक्षा को काटकर
सजा दिया था कैनवस पर
मौन क्रन्दन !
तुम्हारा आत्मविश्वास
सम्वेदन
दुर्लभ स्पन्द
और सन्तुलन !
बड़ी महीन और तीखी और नफ़ीस
लकीरें कुछ
उकेर दी थीं तुमने
बचपन की
कैनवास पर खिंची
काली लकीरें
कला की क्या-क्या ख़ूबियाँ
बयाँ करतीं…
अचानक एक दिन घर आए
एक माहिर चित्रकार ने देखा वह
कोरा कैनवास
तो चकित रह गया । देखता
कि कैसे एक भोला बचपन
खिंची उन लकीरों में
उधर का
क्या कुछ नहीं कह गया !…
5.
लड़की का इतिहास
हर बाग़ का एक इतिहास होता है जैसे-
इस बाग़ का भी अपना एक इतिहास है
हर व्यक्ति का एक इतिहास होता है जैसे
इस लड़की का भी अपना एक इतिहास है
हर लड़की एक बाग़ होती है जैसे
इस लड़की का भी अपना एक बाग़ है
सबसे पहले यह एक लड़की है
जो बाग़ लगाती हुई इतिहास बनाती है
साथ-साथ कई-कई क्यारियाँ
जुदा-जुदा कई-कई फुलवारियाँ सजाती है
ख़ुशबू और रंग का
पहचान और पहनावे का अलग-अलग सिलसिला…
क्योंकि वह लड़की बाग़ है
इसलिए फूलों को तोड़ने
और भँवरों के मंडराने पर रोक है…
लड़की की पदचापों के संकेतों पर
खिलते हैं फूल; महकती हैं फूलवारियाँ
लड़की की साँसों के सुरों में
गाते हैं पक्षी, सजती हैं क्यारियाँ
ख़ुशबू की दस्तकें
झक्क खिली हरियाली के कहकहे…
यों इन फूल-बेलों से भारी / क्यारियों से घिरे-
मक़बरों / और उनकी पथराई ख़ामोशियों का भी
अपना इतिहास है…
लड़की कहीं कुछ बेल-बीज बो कर
गाती-गुनगुनाती करती है इन्तज़ार-
बेलों के दीवारों पर चढ़ने
दीवारों को फांदने का…
फिर एक दिन
इन बेलों के नाज़ुक इरादों के साथ
लड़की दीवार फांद
इतिहास में बदल जाती है
यों बाग़ों का इतिहास-
लड़की का इतिहास है-
जहाँ मुर्दे-गड़े मक़बरें हैं जीवित
डबडबाए पानी के तालाब; फूलों के सघन झाड़
गाते पक्षियों के समूह, मंडराते भँवरों के झुंड
ख़ामोश दीवारों के लम्बे साए…
यहाँ और-और लड़कियाँ आईं
आती रहीं…
यहाँ और-और फूल खिले
खिलते रहे…
यहाँ और-और मक़बरे बने
बनते रहे…
यहाँ और-और बेलें खिलीं
खिलती रहीं…
अपनी ख़ुशबुओं महकी मिट्टी को
अंजुरी में उठाए,
टप-टप आँसुओं भिगोती रही लड़की
बाग़ में चोरी छिपे
आती रही लड़की
जाती रही लड़की
फूल और पत्थर के साथ-साथ होने के
नए-नए रिश्तों के साथ
फूल खिलते रहे
बेलें दीवारें फांदती रहीं
मक़बरों की दीवारें उन्हें देखती ख़ामोश…
यों बड़े-बड़े ऎतिहासिक बाग़ों को
बाग़ों के इतिहासों को
लड़की ने बनाया है
अपनी ख़ुशबूदार साँसों से
दीवार फांदनी बेलदार इच्छाओं
डबडबाए तालाबों
और मक़बरा बनती देहों से
सजाया है!
-Legend News
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