Friday, 8 November 2019

Jaun elia… वो शख़्स ज‍िसे खुद को तबाह करने का मलाल नहीं रहा

Jaun elia की शायरी में उनकी छलकती हुई संवेदनाएं हैं, वो जो भी हैं, जैसे भी हैं अपने जैसे हैं। दिसंबर 1931 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा में एक संभ्रांत परिवार में जौन ने जन्म लिया। जौन का इंतकाल आज ही के द‍िन यान‍ि  8 नवंबर, 2002 को हुआ।
Jaun elia यानी ऐसा नाम, कौतूहल जिनके नाम के साथ ही शुरू हो जाता है। अमरोहा में जन्मे,विभाजन के बाद भी दस साल तक भारत में रहे और फिर कराची चले गए। उसके बाद दुबई भी गए। संवाद शैली में,आसान शब्दों में,लगभग हर विषय पर नज्म या ग़ज़ल कह सकने वाले … मन के उलझे हुए तारों के गुंजलक को बड़ी सादगी के साथ सुलझाने वाले जौन मौत के बाद और भी अधिक मश्हूर हुए। उनकी गजलों पर दो किताबें देवनागरी में सामने आई हैं।
हिंदी जानने पढ़ने वालों को भी इस शायर के पास हर एहसास की ग़ज़लें दिखी हैं। नौजवान हों या बुजुर्ग, जॉन को सब पसंद करते हैं। उनका सोचने और कहने का ढंग लगभग सभी शायरों से अलग है। अब दौर यह है कि सोशल मीडिया पर जॉन अहमद फरा़ज और ग़ालिब से भी अधिक लोकप्रिय दिखते हैं।
14 दिसंबर 1931 को अमरोहा में जन्मे एलिया अब के शायरों में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शायरों में शुमार हैं।’शायद’,’यानी’,’गुमान’,’लेकिन’ और गोया’ प्रमुख संग्रह हैं। इनकी मृत्यु 8 नवंबर 2004 को हुई। पाकिस्तान सरकार ने उन्हें 2000 में प्राइड ऑफ परफार्मेंस अवार्ड भी दिया था। उन्‍हें अब तक सहज शब्‍दों में कठिन बात करने वाला,अजीब-ओ-गरीब जिंदगी जीने वाला,मंच पर ग़ज़ल पढ़ते हुए विभिन्‍न मुद्राएं बनाने वाला शायर ही माना गया है,लेकिन जॉन को अभी और बाहर आना है।
वह केवल रूमान के शायर नहीं थे,उनकी निजी जिंदगी जितनी भी दुश्‍वार क्‍यों न रही हो,वह ऐसे शायर हैं जिन्‍हें हर पीढ़ी पढ़ती है।
उनकी दो ग़ज़लेंं-   

रूह प्यासी कहाँ से आती है
ये उदासी कहाँ से आती है
दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद
तू निदासी कहाँ से आती है
शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम
नाशिफासी कहाँ से आती है
एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम
ये सबासी कहाँ से आती है
तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू
होके बासी कहाँ से आती है।
2. 
तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो।
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