Thursday, 28 December 2017

आज सुमित्रानंदन पंत की पुण्‍यतिथि है इस अवसर पर उनकी कुछ कविताएँ

आज सुमित्रानंदन पंत की पुण्‍यतिथि है इस अवसर पर उनकी कुछ कविताएँ 

सुमित्रानंदन पंत (२० मई १९०० - २८ दिसम्बर १९७७)  हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में  से एक हैं। छायावादी युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और रामकुमार वर्मा जैसे  कवियों का युग कहा जाता है।

बागेश्वर (उत्‍तराखंड) में जन्‍म लेने के कारण झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भंवरा गुंजन, उषा किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने।

निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के  रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही।

उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।



1. सुख-दुख

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !
जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन !

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !



2. जीना अपने ही में

जीना अपने ही में… एक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोग… यह मनुज धर्म है
अपने ही में रहना… एक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने में… सबका सहज भला है
जग का प्यार मिले… जन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन को… प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए
ज्ञानी बनकर… मत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्य… प्रथम सत्कर्म कीजिए



3. मोह

छोड़ द्रुमों की मृदु-छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल-तरंगों को,
इन्द्र-धनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू-भंगों से कैसे बिंधवा दूँ निज मृग-सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल-बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह, तब तेरे ही प्रिय-स्वर से कैसे भर लूँ सजनि!  श्रवन?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!



4. झर पड़ता जीवन डाली से

झर पड़ता जीवन-डाली से
मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!–
केवल, केवल जग-कानन में
लाने फिर से मधु का प्रभात!
मधु का प्रभात!–लद लद जातीं
वैभव से जग की डाल-डाल,
कलि-कलि किसलय में जल उठती
सुन्दरता की स्वर्णीय-ज्वाल!
नव मधु-प्रभात!–गूँजते मधुर
उर-उर में नव आशाभिलास,
सुख-सौरभ, जीवन-कलरव से
भर जाता सूना महाकाश!
आः मधु-प्रभात!–जग के तम में
भरती चेतना अमर प्रकाश,
मुरझाए मानस-मुकुलों में
पाती नव मानवता विकास!
मधु-प्रात! मुक्त नभ में सस्मित
नाचती धरित्री मुक्त-पाश!
रवि-शशि केवल साक्षी होते
अविराम प्रेम करता प्रकाश!
मैं झरता जीवन डाली से
साह्लाद, शिशिर का शीर्ण पात!
फिर से जगती के कानन में
आ जाता नवमधु का प्रभात!



5. अमर स्पर्श

खिल उठा हृदय,
पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,
अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?
तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,
युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,
हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,
तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Friday, 1 December 2017

30 दिस. पुण्‍यतिथि है हिंदी गज़ल के पहले शायर दुष्यंत कुमार की, पढ़िए ये चुनिंदा रचनाएं

हिंदी गज़ल के पहले शायर और सत्ता के खिलाफ मुखर होकर खड़े होने वाले लेखक दुष्यंत कुमार की आज पुण्‍यतिथि है. उनकी गज़लों के कुछ शेर युवाओं की ज़ुबां पर चढ़े हुए हैं. 1 सितंबर 1933 को उत्तर प्रदेश के राजपुर नवादा में जन्मे दुष्यंत कुमार को इलाहाबाद ने खूब संवारा. उसके बाद दिल्ली और भोपाल में भी वो कई वर्षों तक रहे. 30 दिसम्‍बर 1975 को उनका देहावसान हो गया.
दुष्यन्त कुमार त्यागी समकालीन हिन्दी कविता के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने कविता, गीति नाट्‌य, उपन्यास आदि सभी विधाओं पर लिखा है । उनकी गज़लों ने हिन्दी गज़ल को नया आयाम दिया । उर्दू गज़लों को नया परिवेश और नयी पहचान देते हुए उसे आम आदमी की संवेदना से जोड़ा ।
उनकी हर गज़ल आम आदमी की गज़ल बन गयी है, जिसमें चित्रित है, आम आदमी का संघर्ष, आम आदमी का जीवनादर्श, राजनैतिक विडम्बनाएं और विसंगतियां । राजनीतिक क्षेत्र का जो भ्रष्टाचार है, प्रशासन तन्त्र की जो संवेदनहीनता है, वही इसका स्वर है । दुष्यन्त कुमार ने गज़ल को रूमानी तबिअत से निकालकर आम आदमी से जोड़ने का कार्य किया है ।
कवि दुष्यन्त कुमार त्यागी का जन्म 1 सितम्बर सन् 1933 में बिजनौर जनपद की नजीबाबाद तहसील के अन्तर्गत नांगल के निकट ग्राम-नवादा में एक सम्पन्न त्यागी परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री भगवतसहाय तथा माता श्रीमती राजकिशोरी थीं। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा नहटौर, जनपद-बिजनौर में हुई ।
उनके हाई स्कूल की परीक्षा एन॰एस॰एम॰ इन्टर कॉलेज चन्दौसी, जिला-मुरादाबाद से उत्तीर्ण की थी । उनका विवाह सन् 1949 में सहारनपुर जनपद निवासी श्री सूर्यभानु की सुपुत्री राजेश्वरी से हुआ । उन्होंने सन् 1954 में हिन्दी में एम॰ए॰ की उपाधि प्राप्त की ।
सन् 1958 में आकाशवाणी दिल्ली में पटकथा लेखक के रूप में कार्य करते हुए सहायक निदेशक के पद पर उन्नत होकर सन् 1960 में भोपाल आ गये । साहित्य साधना स्थली भोपाल में 30 दिसम्बर 1975 में मात्र 42 वर्ष की अल्पायु में वे साहित्य जगत् से विदा हो गये ।
उन्होंने इतने अल्प समय में भी नाटक, एकांकी, रेडियो नाटक, आलोचना तथा अन्य विधाओं पर अपनी सशक्त लेखनी चलायी । उनकी रचनाओं में ”सूर्य का स्वागत”, ”आवाजों के घेरे में”, ”एक कण्ठ विषपायी”, ”छोटे-छोटे सवाल”, ”साये में धूप”, “जलते हुए वन का वसंत”, ”आगन में एक वृक्ष”, ”दुहरी जिन्दगी” प्रमुख हैं ।
साये में धूप से उनको विशेष पहचान मिली, जिसमें गज़लों का आक्रामक तेवर अन्दर तक तिलमिला देने वाला है । देशभक्तों ने आजादी के लिए इतनी कुरबानियां दी थीं कि देश का प्रत्येक व्यक्ति शान्ति और सुख से सामान्य जीवन जी सके, किन्तु राजतन्त्र एवं प्रशासन तन्त्र ने आम आदमी की ऐसी दुर्दशा की है।
उनकी कुछ अतिप्रसिद्ध रचनाऐं
कहा तो तै था, चिरागां हरेक घर के लिए,
कहां चिराग मयस्सर नही, शहर के लिए ।
आम आदमी बदहाली में जीने की विवशता पर-
न हो तो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब है, इस सफर के लिए ।
आजादी के बाद हम अपनी संस्कृति को भूलकर शोषण की तहजीब को आदर्श माने जाने पर-
अब नयी तहजीब की पेशे नजर हम,
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं।
गरीबी व भुखमरी पर-
कई फांके बिताकर मर गया जो, उसके बारे में,
वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा ।
संवेदनाएं इतनी मर गयी हैं, कवि के शब्दों में-
इस शहर में हो कोई बारात या वारदात ।
अब किसी बात पर नहीं, खुलती है खिड़कियां ।।
ऐसा नहीं है कि कवि व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह नहीं करना चाहता है; वह व्यवस्था तन्त्र को पूरी तरह बदल देना चाहता है-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना, मेरा मकसद नहीं,
कोशिश ये है कि सूरत बदलनी चाहिए ।
वह परिवर्तन लाना चाहता है, आमूल-चूल परिवर्तन-
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कंवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं
पक गयी आदतें बातों से सर होंगी नहीं ।
कोई हंगामा खड़ा करो ऐसे गुजर होगी नहीं ।
आम आदमी की दुर्दशा और देश की दुर्दशा का व्यक्ति बिम्ब कवि के शब्दों में-
कल की नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है ।
कुलमिलाकर कवि दुष्यन्त कुमार एक ऐसे रचनाकार रहे हैं, जिन्होंने गज़ल का परम्परागत रोमानी भावुकता से बाहर लाकर आम आदमी से जोड़ने का कार्य किया है ।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में आम आदमी की पीडा, शासकों का दोहरा चरित्र, चारित्रिक पतन, देश की दुर्दशा को देखकर कवि चुप नहीं रहना चाहता है; क्योंकि उन्हीं के शब्दों में-
मुझमें बसते हैं करोड़ो लोग, चुप रही कैसे ?
हर गज़ल अब सल्तनत के नाम बयान है ।
दुष्यन्त कुमार त्यागी सचमुच ही एक साहित्यकार थे । स्वधर्म से अच्छी तरह वाकिफ, जिसे उन्होंने निभाया भी है । उनका प्रदेय साहित्य जगत् में अमर रहेगा ।
-Legend News

Wednesday, 15 November 2017

एक एक कर चले जा रहे हैं सभी...कुंवर नारायण जी को उन्‍हीं की 5 कविताओं से हम श्रद्धांजलि देते हैं

एक एक कर चले जा रहे हैं सभी...आज 'अयोध्‍या 1992' पर कविता से भगवान श्री राम को मौजूदा हालात के प्रति आगाह करने वाले कवि-साहित्‍यकार कुंवर नारायण जी भी चले गए। मैं आज उनको उन्‍हीं की कुछ कविताओं के द्वारा श्रद्धांजलि दे रही हूं।

यूं तो वे हर विधा में लिखकर गए, मगर आज भी उनकी कुछ कविताऐं कितनी सटीक बैठ रही हैं ''बीत रहे समय'' पर ... तनिक आप भी देखिए।

1. अयोध्या, 1992 पर तब लिखी उनकी कविता-


हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य !

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर - लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है.

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
'मानस' तुम्हारा 'चरित' नहीं
चुनाव का डंका है !

हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग !

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान - किसी धर्मग्रन्थ में
सकुशल सपत्नीक....
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक !


2. मनुष्‍यता को घायल करती समाज की कुछ विषमताओं पर ये रचना-

अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल रहे लोगों को
तरेर कर न देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों से

अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला पड़ा
पिद्दी-सा जानवर नहीं

अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा

अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबके हिताहित को सोचता
पूर्णतर लौटूंगा

3. इसी भांति कभी हमें अपने बचपने में चले जाने को बाध्‍य करती उनकी ये कविता

मेले से लाया हूँ इसको
छोटी सी प्‍यारी गुड़िया,
बेच रही थी इसे भीड़ में
बैठी नुक्‍कड़ पर बुढ़िया


मोल-भव करके लया हूँ
ठोक-बजाकर देख लिया,
आँखें खोल मूँद सकती है
वह कहती पिया-पिया।


जड़ी सितारों से है इसकी
चुनरी लाल रंग वाली,
बड़ी भली हैं इसकी आँखें
मतवाली काली-काली।


ऊपर से है बड़ी सलोनी
अंदर गुदड़ी है तो क्‍या?
ओ गुड़िया तू इस पल मेरे
शिशुमन पर विजयी माया।


रखूँगा मैं तूझे खिलौने की
अपनी अलमारी में,
कागज़ के फूलों की नन्‍हीं
रंगारंग फूलवारी में।


नए-नए कपड़े-गहनों से
तुझको राज़ सजाऊँगा,
खेल-खिलौनों की दुनिया में
तुझको परी बनाऊँगा।

4. अब प्‍यार की अनेक परिभाषाओं में देखिए कुंवर नारायण जी को  

मैंने कई भाषाओँ में प्यार किया है
पहला प्यार
ममत्व की तुतलाती मातृभाषा में...
कुछ ही वर्ष रही वह जीवन में:

दूसरा प्यार
बहन की कोमल छाया में
एक सेनेटोरियम की उदासी तक :

फिर नासमझी की भाषा में
एक लौ को पकड़ने की कोशिश में
जला बैठा था अपनी उंगुलियां:

एक परदे के दूसरी तरफ़
खिली धूप में खिलता गुलाब
बेचैन शब्द
जिन्हें होठों पर लाना भी गुनाह था

धीरे धीरे जाना
प्यार की और भी भाषाएँ हैं दुनिया में
देशी-विदेशी

और विश्वास किया कि प्यार की भाषा
सब जगह एक ही है
लेकिन जल्दी ही जाना
कि वर्जनाओं की भाषा भी एक ही है:

एक-से घरों में रहते हैं
तरह-तरह के लोग
जिनसे बनते हैं
दूरियों के भूगोल...

अगला प्यार
भूली बिसरी यादों की
ऐसी भाषा में जिसमें शब्द नहीं होते
केवल कुछ अधमिटे अक्षर
कुछ अस्फुट ध्वनियाँ भर बचती हैं
जिन्हें किसी तरह जोड़कर
हम बनाते हैं
प्यार की भाषा।

5. और अंत में उनकी वो रचना जो मुझे बेहद पसंद है 

"अभी-अभी आया हूँ दुनिया से
थका-मांदा
अपने हिस्से की पूरी सज़ा काट कर..."
स्वर्ग की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए
जिज्ञासु ने पूछा − "मेरी याचिकाओं में तो
नरक से सीधे मुक्तिधाम की याचना थी,
फिर बीच में यह स्वर्ग-वर्ग कैसा?"

स्वागत में खड़ी परिचारिका
मुस्करा कर उसे
एक सुसज्जित विश्राम-कक्ष में ले गई,
नियमित सेवा-सत्कार पूरा किया,
फिर उस पर अपनी कम्पनी का
'संतुष्ट-ग्राहक' वाला मशहूर ठप्पा
लगाते हुए बोली − "आपके लिए पुष्पक-विमान
बस अभी आता ही होगा।"

कुछ ही देर बाद आकाशवाणी हुई −
"मुक्तिधाम के यात्रियों से निवेदन है
कि अगली यात्रा के लिए
वे अपने विमान में स्थान ग्रहण करें।"

भीतर का दृश्य शांत और सुखद था।
अपने स्थान पर अपने को
सहेज कर बांधते हुए
सामने के आलोकित पर्दे पर
यात्री ने पढ़ा −
"कृपया अब विस्फोट की प्रतीक्षा करें।"

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Wednesday, 8 November 2017

सबसे बड़ा हिन्‍दी उपन्‍यास ‘कृष्ण की आत्मकथा लिखने वाले मनु शर्मा को विनम्र श्रद्धांजलि

सबसे बड़ा हिन्‍दी novel लिखने वाले प्रख्‍यात साहित्यकार लेखक व चिंतक पद्मश्री मनु शर्मा का निधन हो गया। स्‍वच्‍छ भारत अभियान के नवरत्‍नों में शामिल थे मनु शर्मा। वरिष्ठ साहित्यकार और हिन्दी में सबसे बड़ा उपन्यास लिखने वाले मनु शर्मा का आज सुबह वाराणसी में निधन हो गया.

उन्‍हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि

मनु शर्मा का सबसे बड़ा हिन्‍दी उपन्‍यास  ‘कृष्ण की आत्मकथा’ 8 खण्डों में लिखा गया। इसका अंतिम 8वें खण्‍ड के ये अंश देखिए...

मुझे देखना हो तो तूफानी सिंधु की उत्ताल तरंगों में देखो। हिमालय के उत्तुंग शिखर पर मेरी शीतलता अनुभव करो। सहस्रों सूर्यों का समवेत ताप ही मेरा ताप है। एक साथ सहस्रों ज्वालामुखियों का विस्फोट मेरा ही विस्फोट है। शंकर के तृतीय नेत्र की प्रलयंकर ज्वाला मेरी ही ज्वाला है। शिव का तांडव मैं हूँ ; प्रलय में मैं हूँ, लय में मैं हूँ, विलय में मैं हूँ। प्रलय के वात्याचक्र का नर्तन मेरा ही नर्तन है। जीवन और मृत्यु मेरा ही विवर्तन है। ब्रह्मांड में मैं हूँ, ब्रह्मांड मुझमें है। संसार की सारी क्रियमाण शक्ति मेरी भुजाओं में है। मेरे पगों की गति धरती की गति है। आप किसे शापित करेंगे, मेरे शरीर को ? यह तो शापित है ही – बहुतों द्वारा शापित है ; और जिस दिन मैंने यह शरीर धारण किया था उसी दिन यह मृत्यु से शापित हो गया था।

यूं तो  नारद की भविष्यवाणी 
दुरभिसंधि 
द्वारका की स्थापना 
लाक्षागृह 
खांडव दाह 
राजसूय यज्ञ 
संघर्ष 
प्रलय

ये कुल 8 खंड लिखे गये मगर जिसतरह  इन खंडों में श्रीकृष्‍ण को मनु शर्मा जी ने जिया ...वह  अद्भुत है। 

कृष्ण के अनगिनत आयाम हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ में कृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है। 
यथार्थ कहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है।

प्रस्‍तुति:अलकनंदा सिंह

Sunday, 22 October 2017

‘मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको’

अदम गोंडवी के जन्‍मदिन पर उनकी poem
आज अदम गोंडवी का जन्‍मदिन है इस अवसर पर उनकी poem ‘मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको’ की बात ना की जाए यह कैसे हो सकता है.
सामाजिक आलोचना के प्रखर कवि अदम गोंडवी की आज 22 अक्‍तूबर को जन्‍मदिन  है. इस मौके पर पेश है उनकी सबसे चर्चित poem, ‘मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको.’ 
यह कविता एक दलित युवती की कहानी है जिसे सवर्णों के अत्याचार का शिकार होने के बाद भी हमारा सामाजिक ढांचा न्याय नहीं दिला पाता. आइए, एक कड़वे सच से रूबरू हों.
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएं में डूब कर
है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
चीख निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
और उस दिन ये हवेली हंस रही थी मौज में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में
जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
कोई हो संघर्ष से हम पांव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएंगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुंह काला करें
बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पांव के नीचे था रुतबा पा गया
कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो।
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिेंह

Saturday, 23 September 2017

एक श्रृद्धांजलि: याचना


आज रामधारी सिंह 'दिनकर' का जन्‍म दिन है तो लीजिए  पढ़िए उनकी ये रचना जो उनकी 'रेणुका' से ली गई है जिसे दिनकर ने १९३४ में लिखा था -

याचना / रामधारी सिंह "दिनकर"

प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?
शतदल, मृदुल जीवन-कुसुम में प्रिय! सुरभि बनकर बसो।
घन-तुल्य हृदयाकाश पर मृदु मन्द गति विचरो सदा।
प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?


दृग बन्द हों तब तुम सुनहले स्वप्न बन आया करो,
अमितांशु! निद्रित प्राण में प्रसरित करो अपनी प्रभा।
प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?

उडु-खचित नीलाकाश में ज्यों हँस रहा राकेश है,
दुखपूर्ण जीवन-बीच त्यों जाग्रत करो अव्यय विभा।
प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?

निर्वाण-निधि दुर्गम बड़ा, नौका लिए रहना खड़ा,
कर पार सीमा विश्व की जिस दिन कहूँ ‘वन्दे, विदा।’
प्रियतम! कहूँ मैं और क्या?



Thursday, 31 August 2017

नाज सच्चे इश्‍क पर है, हुनर का दावा नहीं... मेरा इर्फाने-कलम सालक ही कोई पाएगा

बादलों से लेकर चांद पर अपने शब्‍दों  के दस्‍तखत करने वाली अमृता प्रीतम 31 अगस्‍त को ही जन्‍मी थीं और  आज ही यानि 31 अगस्‍त को मेरी बेटी का भी जन्‍म दिन है...शायद इसीलिए मुझे अब और भी प्रिय लगती हैं अमृता जी...

लीजिए मेरी प्रिय कवियत्री की 5 कविताओं को पढ़िए------

अमृता बेहद भावुक थीं, लेकिन उतनी ही खूबसूरती के साथ उन्हें अपनी भावनाओं और रिश्तों के बीच सामंजस्य बिठाना आता था। आजीवन उन्होंने साहिर से प्रेम किया, दो बच्चे कि मां बनी। साहिर कि मुहब्बत दिल में होने के कारण शादी- शुदा जीवन से बाहर निकलने का फैसला लिया और फिर साहिर ने भी उन्हें छोड़ दिया, लेकिन फिर भी वह सम्मान के साथ  उस रिश्ते से अलग हो गईं।जीवन के आखिरी समय में सच्चा प्यार उन्हें इमरोज के रूप में मिला। उनकी जीवन के उतर- चढाव को उनकी आत्मकथा के रूप में लिखा गया, खुशवंत सिंह के सुझाव पर उनके जीवनी को रशीदी टिकट नाम दिया गया।

1. रोजी

नीले आसमान के कोने में
रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
सफ़ेद गाढ़ा धुआँ उठता हैाेें

सपने — जैसे कई भट्टियाँ हैं
हर भट्टी में आग झोंकता हुआ
मेरा इश्क़ मज़दूरी करता है

तेरा मिलना ऐसे होता है
जैसे कोई हथेली पर
एक वक़्त की रोजी रख दे।

जो ख़ाली हँडिया भरता है
राँध-पकाकर अन्न परसकर
वही हाँडी उलटा रखता है

बची आँच पर हाथ सेकता है
घड़ी पहर को सुस्ता लेता है
और खुदा का शुक्र मनाता है।

रात-मिल का साइरन बोलता है
चाँद की चिमनी में से
धुआँ इस उम्मीद पर निकलता है

जो कमाना है वही खाना है
न कोई टुकड़ा कल का बचा है
न कोई टुकड़ा कल के लिए है…

2. कुफ़्र

आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की

सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली

आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली

यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे

3. मुकाम

क़लम ने आज गीतों का क़ाफ़िया तोड़ दिया
मेरा इश्क़ यह किस मुकाम पर आ गया है

देख नज़र वाले, तेरे सामने बैठी हूँ
मेरे हाथ से हिज्र का काँटा निकाल दे

जिसने अँधेरे के अलावा कभी कुछ नहीं बुना
वह मुहब्बत आज किरणें बुनकर दे गयी

उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो
राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी…

4.चुप की साज़िश

रात ऊँघ रही है…
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।

चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।

5. आदि स्मृति

काया की हक़ीक़त से लेकर —
काया की आबरू तक मैं थी,
काया के हुस्न से लेकर —
काया के इश्क़ तक तू था।

यह मैं अक्षर का इल्म था
जिसने मैं को इख़लाक दिया।
यह तू अक्षर का जश्न था
जिसने ‘वह’ को पहचान लिया,
भय-मुक्त मैं की हस्ती
और भय-मुक्त तू की, ‘वह’ की

मनु की स्मृति
तो बहुत बाद की बात है…

प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Wednesday, 5 April 2017

राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर

राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर बस वो ही कहना है
जो अनकहा रह जाए और अनकहा कह जाए
सुनो राम! सिया, शबरी, अहिल्‍या, सब तुम्‍हारी बाट जोहती हैं
आज भी ये सब कण कण में राम खोजती हैं।
गीध व्‍याध वानर को अब कौन गले लगाता है
करुणा, क्षमा, दया को बाजार में नित्‍य बेचा जाता है।

त्रेता से कलियुग की यात्रा बहुत कठिन रही होगी
अब बैठो राम किसी वन में छद्म भरा कलियुग देखो
नाम तुम्‍हारे बिकते , बाजारों में जोरशोर से
घर में मां-बाप-भाई के रिश्‍ते कैसे रिसते हैं देखो।

तुम्‍हारे नाम पर आज कितनों की रोजीरोटी ज़िंदा है
तुम्‍हारे नाम पर आज पूरे शहर-गांव-कस्‍बे में मेला है
सब पूजते हैं राम, कहां जानते हैं राम,नहीं मानते हैं राम
पाथर में ढूढ़कर तुम्‍हें पूजने वाले फिर भी कहां शर्मिदा हैं।

बस राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन इतना ही कहना है
क्षमा शील बन इनके व्‍यापारों को इतना मत उगने देना
कल हो जायें पाथर राम, राम को पाथर मत होने देना
राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन पर बस इतना ही अब कहना है।

बात अधूरी है मेरी फिर कभी बोलूंगी तुमसे
अभी जन्‍मदिन और मनाओ हे वनवासी राम
राजा रह कर मन में वन और वन में मन
व्‍याख्‍याओं से परे तुम्‍हें मुझे अपने मन में रखना है
बस राम तुम्‍हारे जन्‍मदिन इतना ही कहना है।

-अलकनंदा सिंह

Sunday, 2 April 2017

'वेबलेंथ' का खेल

भावों के विशाल पर्वत पर, उगती
खिलती आकाश बेल चढ़ती-
कुछ हकीकतें और कुछ आस्‍था,
का मेल होती है मित्रता।

तय परिधियों के अरण्‍य में
ब्रह्म कमल सी एक बार खिलती
मन-सुगंध को अपनी नाभि में
समेटने का खेल होती है मित्रता।

स्‍त्री- पुरुष, पुरुष -स्‍त्री, स्‍त्री-स्‍त्री, पुरुष- पुरुष,
के सारे विभेद नापती,
अविश्‍वास से परे चलकर
'वेबलेंथ' का खेल होती है मित्रता

ये तेरा-मेरा, तुझमें-मुझमें,
अलग कहां, ये तो आत्‍मा से निकले,
रंगों से खेलती, उन्‍हें धूल में मिलाकर,
एक तस्‍वीर का शून्‍य उकेरती है मित्रता।

ये बंधन है पर खुला हुआ,
जो स्‍वतंत्रता की रक्षा में,
देह की देहरियों के पार आत्‍मा की,
आवाज की बात होती है मित्रता।

अपने मूल अर्थ और दृढ़ता के साथ,
समय की हथेलियों पर चलकर,
एक स्‍वयं से दूसरे स्‍वयं तक की यात्रा,
असीम यात्रा की मानिंद होती है मित्रता

ये मित्रता है...ये ही मित्रता है...हमारी,
हमारी जीभ पर घुलती सी होती है मित्रता ।

- अलकनंदा सिंह

Sunday, 26 February 2017

यूं आसमां न ताक...

यूं आसमां न ताक, ना नाप किसी परवाज को
कुछ परिंदे जमीं पर भी हैं,
जो अपनी आंखों में,
तेरी नज़र का आसमां सजाए बैठे हैं,

महसूस किया है कभी तुमने,
उस एक अनहद आसमां का ताप...
जो सतरंगी सा सुलग रहा है-
इनके परों से ढंके ठंडे पड़े सीनों में,

पर हैं सिले- भीगे हुए,...जकड़े हुए हैं अभी,
मगर यकीं है, एक दिन हठात्
अपनी सींवन उधेड़ लेंगे,
टांकों को भी ढीला कर लेंगे,

तब ये पर फैला कर परवज का दामन थामेंगे,
तब उन्‍हें चाहिए होगी तुम्‍हारी यही नज़र,
एक प्रेम और भरोसे की नज़र,
परवाज भरने को...,
अपने पर फैलाने को...,
तुम्‍हारी यही एक नज़र
उन्‍हें वजूद से मिला देगी,

हौसलों का आगाज़ अंजाम तक पहुंचेगा
तभी जब बचा कर रखो अपनी
ये गहरी नज़र...
उनके लिए...तबके लिए...।

-अलकनंदा सिंह

Friday, 24 February 2017

कविता- ये गरल तुम्‍हें पीना होगा

सृष्‍टि की खातिर शिव ने तब एक हलाहल पीया था,
अब एक हलाहल तुमको भी इसी तरह पीना होगा,

समरस सब होता जाए, निज और द्विज में फर्क मिटे,

आग्रह से अनाग्रह सब इसी तरह एक शून्‍य बनें ,

जीवन के अविरल तट तक पहुंचा दो सब तृष्‍णाओं को,

आस्‍तीनों के विषधरों को तुम्‍हें निजतन पै धारण करना होगा,

निश्‍चित कर लो इस रण के नियम- कि अब,
शीश उठाकर जीना है तो उन असुरों से लड़ना होगा,

जो छिपे हैं मन के कोनों में उन असुरों को बाहर करने को,
निज मन को विलोम में दौड़ाओ,
मन भीतर जिनका डेरा है, उन्‍हें त्‍याज्‍य अभी करना होगा,

धारण कर अब ‘त्रिशूल’ तुमको सृष्‍टि का शिव बनना होगा,
कालातीत को कालजयी कर काल-भाल पर मलना होगा।

कालजयी को अवसानों का भय कैसा, ये तो क्षणभर का तम है,
अंतहीन होता है वही जो स्‍वयं शिव सा सुंदरतम है,
ठीक समझ लो- फूल और कांटे दोनों ही शिव के अनन्‍य हैं

तो गरल उठा लो हर विरोध का, तुम सोना हो तो लपटों से भय क्‍या,
इसी आग से बाहर आकर तो तुमको शिव सा कुंदन बनना होगा।

- अलकनंदा सिंह

Saturday, 18 February 2017

कृष्णा सोबती के जन्‍मदिन पर उनकी लिखी कहानी- दादी अम्मा

हिन्दी की फिक्शन एवं निबन्ध लेखिका कृष्णा सोबती का आज १८ फ़रवरी को जन्‍मदिन है, वे इसी दिन १९२५ को गुजरात (अब पाकिस्तान में) जन्‍मी थीं। वे अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुथरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती रहीं हैं।

विभिन्न सम्मानों जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य शिरोमणि सम्मान, शलाका सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, साहित्य कला परिषद पुरस्कार, कथा चूड़ामणि पुरस्कार, महत्तर सदस्य, साहित्य अकादमी से सम्मानित कि जा चुकीं हैं।

कृष्णा जी ने डार से बिछुड़ी, मित्रो मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अंधेरे के, ज़िन्दगी़नामा, ऐ लड़की, दिलोदानिश, हम हशमत भाग एक तथा दो और समय सरगम तक उनकी कलम ने उत्तेजना, आलोचना विमर्श, सामाजिक और नैतिक बहसों की जो फिज़ा साहित्य में पैदा की है उसका स्पर्श पाठक लगातार महसूस करता रहा है।


लीजिए पढ़िए कृष्णा सोबती की कहानी- दादी अम्मा



बहार फिर आ गई। वसन्त की हल्की हवाएँ पतझर के फीके ओठों को चुपके से चूम गईं। जाड़े ने सिकुड़े-सिकुड़े पंख फड़फड़ाए और सर्दी दूर हो गई। आँगन में पीपल के पेड़ पर नए पात खिल-खिल आए। परिवार के हँसी-खुशी में तैरते दिन-रात मुस्कुरा उठे।

भरा-भराया घर। सँभली-सँवरी-सी सुन्दर सलोनी बहुएँ। चंचलता से खिलखिलाती बेटियाँ। मजबूत बाँहोंवाले युवा बेटे। घर की मालकिन मेहराँ अपने हरे-भरे परिवार को देखती है और सुख में भीग जाती हैं यह पाँचों बच्चे उसकी उमर-भर की कमाई हैं।

उसे वे दिन नहीं भूलते जब ब्याह के बाद छह वर्षों तक उसकी गोद नहीं भरी थी। उठते-बैठते सास की गंभीर कठोर दृष्टि उसकी समूची देह को टटोल जाती। रात को तकिए पर सिर डाले-डाले वह सोचती कि पति के प्यार की छाया में लिपटे-लिपटे भी उसमें कुछ व्यर्थ हो गया है, असमर्थ हो गया है। कभी सकुचाती-सी ससुर के पास से निकलती तो लगता कि इस घर की देहरी पर पहली बार पाँव रखने पर जो आशीष उसे मिली थी, वह उसे सार्थक नहीं कर पाई। वह ससुर के चरणों में झुकी थी और उन्होंने सिर पर हाथ रखकर कहा था, ”बहूरानी, फूलो-फलो।“ कभी दर्पण के सामने खड़ी-खड़ी वह बाँहें फैलाकर देखती-क्या इन बाँहों में अपने उपजे किसी नन्हे-मुन्ने को भर लेने की क्षमता नहीं!

छह वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा के बाद सर्दियों की एक लम्बी रात में करवट बदलते-बदलते मेहराँ को पहली बार लगा था कि जैसे नर्म-नर्म लिहाफ से वह सिकुड़ी पड़ी है, वैसे ही उसमें, उसके तन-मन-प्राण के नीचे गहरे कोई धड़कन उससे लिपटी आ रही है। उसने अँधियारे में एक बार सोए हुए पति की ओर देखा था और अपने से लजाकर अपने हाथों से आँखें ढाँप ली थीं। बन्द पलकों के अन्दर से दो चमकती आँखें थीं, दो नन्हें-नन्हे हाथ थे, दो पाँव थे। सुबह उठकर किसी मीठी शिथिलता में घिरे-घिरे अँगड़ाई ली थी। आज उसका मन भरा है। सास ने भाँपकर प्यार बरसाया थाः ”बहू, अपने को थकाओ मत, जो सहज-सहज कर सको, करो। बाकी मैं सँभाल लूँगी।“

वह कृतज्ञता से मुस्कुरा दी थी। काम पर जाते पति को देखकर मन में आया था कि कहे- ‘अब तुम मुझसे अलग बाहर ही नहीं, मेरे अंदर भी हो।’
दिन में सास आ बैठी, माथा सहलाते-सहलाते बोली, ”बहूरानी, भगवान मेरे बच्चे को तुम-सा रूप दे और मेरे बेटे-सा जिगरा।“
बहू की पलकें झुक आईं।
”बेटी, उस मालिक का नाम लो, जिसने बीज डाला है। वह फल भी देगा।“
मेहराँ को माँ का घर याद हो आया। पास-पड़ोस की स्त्रियों के बीच माँ भाभी का हाथ आगे कर कह रही है, ”बाबा, यह बताओ, मेरी बहू के भाग्य में कितने फल हैं?“
पास खड़ी मेहराँ समझ नहीं पाई। हाथ में फल?
”माँ, हाथ में फल कब होते हैं? फल किसे कहती हो माँ?“
माँ लड़की की बात सुनकर पहले हँसी, फिर गुस्सा होकर बोली, ”दूर हो मेहराँ, जा, बच्चों के संग खेल!“
उस दिन मेहराँ का छोटा सा मन यह समझ नहीं पाया था, पर आज तो सास की बात वह समझ ही नहीं, बूझ भी रही थी। बहू के हाथ में फल होते हैं, बहू के भाग्य में फल होते हैं और परिवार की बेल बढ़ती है।

मेहराँ की गोद से इस परिवार की बेल बढ़ी है। आज घर में तीन बेटे हैं, उनकी बहुएँ हैं। ब्याह देने योग्य दो बेटियाँ हैं। हल्के-हल्के कपड़ों में लिपटी उसकी बहुएँ जब उसके सामने झुकती हैं तो क्षण-भर के लिए मेहराँ के मस्तक पर घर की स्वामिनी होने का अभिमान उभर आता है। वह बैठे-बैठे उन्हें आशीष देती है और मुस्कुराती है। ऐसे ही, बिल्कुल ऐसे ही वह भी कभी सास के सामने झुकती थी। आज तो वह तीखी निगाहवाली मालकिन, बच्चों की दादी-अम्मा बनकर रह गई है। पिछवाड़े के कमरे में से जब दादा के साथ बोलती हुई अम्मा की आवाज़ आती है तो पोते क्षण-भर ठिठककर अनसुनी कर देते हैं। बहुएँ एक-दूसरे को देखकर मन-ही-मन हँसती हैं। लाड़ली बेटियाँ सिर हिला-हिलाकर खिलखिलाती हुई कहती हैं, ”दादी-अम्मा बूढ़ी हो आई, पर दादा से झगड़ना नहीं छोड़ा।“

मेहराँ भी कभी-कभी पति के निकट खड़ी हो कह देती है, ”अम्मा नाहक बापू के पीछे पड़ी रहती हैं। बहू-बेटियोंवाला घर है, क्या यह अच्छा लगता है?“

पति एक बार पढ़ते-पढ़ते आँखें ऊपर उठाते हैं। पल-भर पत्नी की ओर देख दोबारा पन्ने पर दृष्टि गड़ा देते हैं। माँ की बात पर पति की मौन-गंभीर मुद्रा मेहराँ को नहीं भाती। लेकिन प्रयत्न करने पर भी वह कभी पति को कुछ कह देने तक खींच नहीं पाई। पत्नी पर एक उड़ती निगाह, और बस। किसी को आज्ञा देती मेहराँ की अवाज़ सुनकर कभी उन्हें भ्रम हो आता है। वह मेहराँ का नहीं अम्मा का ही रोबीला स्वर है। उनके होश में अम्मा ने कभी ढीलापन जाना ही नहीं। याद नहीं आता कि कभी माँ के कहने को वह जाने-अनजाने टाल सके हों। और अब जब माँ की बात पर बेटियों को हँसते सुनते हैं तो विश्वास नहीं आता। क्या सचमुच माँ आज ऐसी बातें किया करती हैं कि जिन पर बच्चे हँस सकें।

और अम्मा तो सचमुच उठते-बैठते बोलती है, झगड़ती है, झुकी कमर पर हाथ रखकर वह चारपाई से उठकर बाहर आती है तो जो सामने हो उस पर बरसने लगती है। बड़ा पोता काम पर जा रहा है। दादी-अम्मा पास आ खड़ी हुई। एक बार ऊपर-तले देखा और बोली, ”काम पर जा रहे हो बेटे, कभी दादा की ओर भी देख लिया करो, कब से उनका जी अच्छा नहीं। जिसके घर में भगवान के दिए बेटे-पोते हों, वह इस तरह बिना दवा-दारू पड़े रहते हैं।“
बेटा दादी-अम्मा की नज़र बचाता है। दादा की खबर क्या घर-भर में उसे ही रखनी है! छोड़ो, कुछ-न-कुछ कहती ही जाएँगी अम्मा, मुझे देर हो रही है। लेकिन दादी-अम्मा जैसे राह रोक लेती है, ”अरे बेटा, कुछ तो लिहाज करो, बहू-बेटे वाले हुए, मेरी बात तुम्हें अच्छी नहीं लगती!“
मेहराँ मँझली बहू से कुछ कहने जा रही थी, लौटती हुई बोली, ”अम्मा कुछ तो सोचो, लड़का बहू-बेटोंवाला है। तो क्या उस पर तुम इस तरह बरसती रहोगी?“
दादी-अम्मा ने अपनी पुरानी निगाह से मेहराँ को देखा और जलकर कहा, ”क्यों नहीं बहू, अब तो बेटों को कुछ कहने के लिए तुमसे पूछना होगा! यह बेटे तुम्हारे हैं, घर-बार तुम्हारा है, हुक्म हासिल तुम्हारा है।“

मेहराँ पर इस सबका कोई असर नहीं हुआ। सास को वहीं खड़ा छोड़ वह बहू के पास चली गई। दादी-अम्मा ने अपनी पुरानी आँखों से बहू की वह रोबीली चाल देखी और ऊँचे स्वर में बोली, ”बहूरानी, इस घर में अब मेरा इतना-सा मान रह गया है!
तुम्हें इतना घमंड...!“
मेहराँ को सास के पास लौटने की इच्छा नहीं थी, पर घमंड की बात सुनकर लौट आई।
”मान की बात करती हो अम्मा? तो आए दिन छोटी-छोटी बात लेकर जलने-कलपने से किसी का मान नहीं रहता।“

इस उलटी आवाज़ ने दादी-अम्मा को और जला दिया। हाथ हिला-हिलाकर क्रोध में रुक-रुककर बोली, ”बहू, यह सब तुम्हारे अपने सामने आएगा! तुमने जो मेरा जीना दूभर कर दिया है, तुम्हारी तीनों बहुएँ भी तुम्हें इसी तरह समझेंगी क्यों नहीं, जरूर समझेंगी।“

कहती-कहती दादी-अम्मा झुकी कमर से पग उठाती अपने कमरे की ओर चल दी। राह में बेटे के कमरे का द्वार खुला देखा तो बोली, ”जिस बेटे को मैंने अपना दूध पिलाकर पाला, आज उसे देखे मुझे महीनों बीत जाते हैं, उससे इतना नहीं हो पाता कि बूढ़ी अम्मा की सुधि ले।“

मेहराँ मँझली बहू को घर के काम-धन्धे के लिए आदेश दे रही थी। पर कान इधर ही थे। ‘बहुएँ उसे भी समझेंगी’ इस अभिशाप को वह कड़वा घूँट समझकर पी गई थी, पर पति के लिए सास का यह उलाहना सुनकर न रहा गया। दूर से ही बोली, ”अम्मा, मेरी बात छोड़ो, पराए घर की हूँ, पर जिस बेटे को घर-भर में सबसे अधिक तुम्हारा ध्यान है, उसके लिए यह कहते तुम्हें झिझक नहीं आती? फिर कौन माँ है, जो बच्चों को पालती-पोसती नहीं!“

अम्मा ने अपनी झुर्रियों-पड़ी गर्दन पीछे की। माथे पर पड़े तेवरों में इस बार क्रोध नहीं भर्त्सना थी। चेहरे पर वही पुरानी उपेक्षा लौट आई, ”बहू, किससे क्या कहा जाता है, यह तुम बड़े समधियों से माथा लगा सबकुछ भूल गई हो। माँ अपने बेटे से क्या कहे, यह भी क्या अब मुझे बेटे की बहू से ही सीखना पड़ेगा?
सच कहती हो बहू, सभी माएँ बच्चों को पालती हैं। मैंने कोई अनोखा बेटा नहीं पाला था, बहू! फिर तुम्हें तो मैं पराई बेटी ही करके मानती रही हूँ। तुमने बच्चे आप जने, आप ही वे दिन काटे, आप ही बीमारियाँ झेलीं!“
मेहराँ ने खड़े-खड़े चाहा कि सास यह कुछ कहकर और कहतीं। वह इतनी दूर नहीं उतरी कि इन बातों का जवाब दे। चुपचाप पति के कमरे में जाकर इधर-उधर बिखरे कपड़े सहेजने लगी।

दादी-अम्मा कड़वे मन से अपनी चारपाई पर जा पड़ी। बुढ़ापे की उम्र भी कैसी होती है! जीते-जी मन से संग टूट जाता है। कोई पूछता नहीं, जानता नहीं। घर के पिछवाड़े जिसे वह अपनी चलती उम्र में कोठरी कहा करती थी, उसी में आज वह अपने पति के साथ रहती है। एक कोने में उसकी चारपाई और दूसरे कोने में पति की, जिसके साथ उसने अनगणित बहार और पतझर गुज़ार दिए हैं। कभी घंटों वे चुपचाप अपनी-अपनी जगह पर पड़े रहते हैं। दादी-अम्मा बीच-बीच में करवट बदलते हुए लम्बी साँस लेती है। कभी पतली नींद में पड़ी-पड़ी वर्षों पहले की कोई भूली-बिसरी बात करती है, पर बच्चों के दादा उसे सुनते नहीं। दूर कमरों में बहुओं की मीठी दबी-दबी हँसी वैसे ही चलती रहती है। बेटियाँ खुले-खुले खिलखिलाती हैं। बेटों के कदमों की भारी आवाज़ कमरे तक आकर रह जाती है और दादी-अम्मा और पास पड़े दादा में जैसे बीत गए वर्षों की दूरी झूलती रहती है।

आज दादा जब घंटों धूप में बैठकर अंदर आए तो अम्मा लेटी नहीं, चारपाई की बाँह पर बैठी थी। गाढ़े की धोती से पूरा तन नहीं ढका था। पल्ला कंधे से गिरकर एक ओर पड़ा था। वक्ष खुला था। आज वक्ष में ढकने को रह भी क्या गया था? गले और गर्दन की झुर्रियाँ एक जगह आकर इकट्ठी हो गई थीं। पुरानी छाती पर कई तिल चमक रहे थे। सिर के बाल उदासीनता से माथे के ऊपर सटे थे।

दादा ने देखकर भी नहीं देखा। अपने-सा पुराना कोट उतारकर खूँटी पर लटकाया और चारपाई पर लेट गए। दादी-अम्मा देर तक बिना हिले-डुले वैसी-की-वैसी बैठी रही। सीढ़ियों पर छोटे बेटे के पाँवों की उतावली-सी आहट हुई। उमंग की छोटी सी गुनगुनाहट द्वार तक आकर लौट गई। ब्याह के बाद के वे दिन, मीठे मधुर दिन। पाँव बार-बार घर की ओर लौटते हैं। प्यारी-सी बहू आँखों में प्यार भर-भरकर देखती है, लजाती है, सकुचाती है और पति की बाँहों में लिपट जाती है। अभी कुछ महीने हुए, यही छोटा बेटा माथे पर फूलों का सेहरा लगाकर ब्याहने गया था। बाजे-गाजे के साथ जब लौटा तो संग में दुलहिन थी।

सबके साथ दादी-अम्मा ने भी पतोहू का माथा चूमकर उसे हाथ का कंगन दिया था। पतोहू ने झुककर दादी-अम्मा के पाँव छुए थे और अम्मा लेन-देन पर मेहराँ से लड़ाई-झगड़े की बात भूलकर कई क्षण दुलहिन के मुखड़े की ओर देखती रही थीं। छोटी बेटी ने चंचलता से परिहास कर कहा था, ”दादी-अम्मा, सच कहो भैया की दुलहिन तुम्हें पसंद आई? क्या तुम्हारे दिनों में भी शादी-ब्याह में ऐसे ही कपड़े पहने जाते थे?“

कहकर छोटी बेटी ने दादी के उत्तर की प्रतीक्षा नहीं की। हँसी-हँसी में किसी और से उलट पड़ी। मेहराँ बहू-बेटे घेरकर अंदर ले चली। दादी-अम्मा भटकी-भटकी दृष्टि से अगणित चेहरे देखती रही। कोई पास-पड़ोसिन उसे बधाई दे रही थी, ”बधाई हो अम्मा, सोने-सी बहू आई है शुक्र है उस मालिक का, तुमने अपने हाथों छोटे पोते का भी काज सँवारा।“

अम्मा ने सिर हिलाया। सचमुच आज उस-जैसा कौन है! पोतों की उसे हौंस थी, आज पूरी हुई। पर काज सँवारने में उसने क्या किया, किसी ने कुछ पूछा नहीं तो करती क्या? समधियों से बातचीत, लेन-देन, दुलहिन के कपड़े-गहने, यह सब मेहराँ के अभ्यस्त हाथों से होता रहा है। घर में पहले दो ब्याह हो जाने पर अम्मा से सलाह-सम्मति करना भी आवश्यक नहीं रह गया। केवल कभी-कभी कोई नया गहना गढ़वाने पर या नया जोड़ा बनवाने पर मेहराँ उसे सास को दिखा देती रही है।

बड़ी बेटी देखकर कहती है, ”माँ! अम्मा को दिखाने जाती हो, वह तो कहेंगी, ‘यह गले का गहना हाथ लगाते उड़ता है। कोई भारी ठोस कंठा बनवाओ, सिर की सिंगार-पट्टी बनवाओ। मेरे अपने ब्याह में मायके से पचास तोले का रानीहार चढ़ा था। तुम्हें याद नहीं, तुम्हारे ससुर को कहकर उसी के भारी जड़ाऊँ कंगन बनवाए थे तुम्हारे ब्याह में!’“

मेहराँ बेटी की ओर लाड़ से देखती है। लड़की झूठ नहीं कहती। बड़े बेटों की सगाई में, ब्याह में, अम्मा बीसियों बार यह दोहरा चुकी हैं। अम्मा को कौन समझाए कि ये पुरानी बातें पुराने दिनों के साथ गईं! अम्मा नाते-रिश्तों की भीड़ में बैठी-बैठी ऊँघती रही। एकाएक आँख खुली तो नीचे लटकते पल्ले से सिर ढक लिया। एक बेखबरी कि उघाड़े सिर बैठी रही। पर दादी-अम्मा को इस तरह अपने को सँभालते किसी ने देखा तक नहीं। अम्मा की ओर देखने की सुधि भी किसे है?

बहू को नया जोड़ा पहनाया जा रहा है। रोशनी में दुलहिन शरमा रही है। ननदें हास-परिहास कर रही हैं। मेहराँ घर में तीसरी बहू को देखकर मन-ही-मन सोच रही है कि बस, अब दोनों बेटियों को ठिकाने लगा दे तो सुर्खरू हो।

बहू का शृंगार देख दादी-अम्मा बीच-बीच में कुछ कहती हैं, ”लड़कियों में यह कैसा चलन है आजकल? बहू के हाथों और पैरों में मेहँदी नहीं रचाई। यही तो पहला सगुन है।“ दादी-अम्मा की इस बात को जैसे किसी ने सुना नहीं।

साज-शृंगार में चमकती बहू को घेरकर मेहराँ दूल्हे के कमरे की ओर ले चली। नाते-रिश्ते की युवतियाँ मुस्कुरा-मुस्कुराकर शरमाने लगीं, दुल्हे के मित्र-भाई आँखों में नहीं, बाँहों में नए-नए चित्र भरने लगे और मेहराँ बहु पर आशीर्वाद बरसाकर लौटी तो देहरी के संग लगी दादी-अम्मा को देखकर स्नेह जताकर बोली, ”आओ अम्मा, शुक्र है भगवान का, आज ऐसी मीठी घड़ी आई।“

अम्मा सिर हिलाती-हिलाती मेहराँ के साथ हो ली, पर आँखें जैसे वर्षों पीछे घूम गईं। ऐसे ही एक दिन वह मेहराँ को अपने बेटे के पास छोड़ आई थी। वह अंदर जाती थी, बाहर आती थी। वह इस घर की मालकिन थी।
पीछे, और पीछे - बाजे-गाजे के साथ उसका अपना डोला इस घर के सामने आ खड़ा हुआ। गहनों की छनकार करती वह नीचे उतरी। घूँघट की ओट से मुस्कुराती, नीचे झुकती और पति की बूढ़ी फूफी से आशीर्वाद पाती।

दादी-अम्मा को ऊँघते देख बड़ी बेटी हिलाकर कहने लगी, ”उठो अम्मा, जाकर सो रहो, यहाँ तो अभी देर तक हँसी-ठट्ठा होता रहेगा।“ दादी-अम्मा झँपी-झँपी आँखों से पोती की ओर देखती है और झुकी कमर पर हाथ रखकर अपने कमरे की ओर लौट जाती है।

उस दिन अपनी चारपाई पर लेटकर दादी-अम्मा सोई नहीं। आँखों में न ऊँघ थी, न नींद। एक दिन वह भी दुलहिन बनी थी। बूढ़ी फूफी ने सजाकर उसे भी पति के पास भेजा था। तब क्या उसने यह कोठरी देखी थी? ब्याह के बाद वर्षों तक उसने जैसे यह जाना ही नहीं कि फूफी दिन-भर काम करने के बाद रात को यहाँ सोती है। आँखें मुँद जाने से पहले जब फूफी बीमार हुई तो दादी-अम्मा ने कुलीन बहू की तरह उसकी सेवा करते-करते पहली बार यह जाना था कि घर में इतने कमरे होते हुए भी फूफी इस पिछवाड़े में अपने अन्तिम दिन-बरस काट गई है। पर यह देखकर, जानकर उसे आश्चर्य नहीं हुआ था।

घर के पिछवाड़े में पड़ी फूफी की देह छाँहदार पेड़ के पुराने तने की तरह लगती थी, जिसके पत्तों की छाँह उससे अलग, उससे परे, घर-भर पर फैली हुई थी। आज तो दादी-अम्मा स्वयं फूफी बनकर इस कोठरी में पड़ी है। ब्याह के कोलाहल से निकलकर जब दादा थककर अपनी चारपाई पर लेटे तो एक लम्बी चैन की-सी साँस लेकर बोले, ”क्या सो गई हो? इस बार की रौनक, लेन-देन तो मँझले और बड़े बेटे के ब्याह को भी पार कर गई। समधियों का बड़ा घर ठहरा!“

दादी-अम्मा लेन-देन की बात पर कुछ कहना चाहते हुए भी नहीं बोली। चुपचाप पड़ी रही। दादा सो गए, आवाजे़ धीमी हो गईं। बरामदे में मेहराँ का रोबीला स्वर नौकर-चाकरों को सुबह के लिए आज्ञाएँ देकर मौन हो गया। दादी-अम्मा पड़ी रही और पतली नींद से घिरी आँखों से नए-पुराने चित्र देखती रही। एकाएक करवट लेते-लेते दो-चार कदम उठाए और दादा की चारपाई के पास आ खड़ी हुई। झुककर कई क्षण तक दादा की ओर देखती रही। दादा नींद में बेखबर थे और दादी जैसे कोई पुरानी पहचान कर रही हो। खड़े-खड़े कितने पल बीत गए! क्या दादी ने दादा को पहचाना नहीं? चेहरा उसके पति का है पर दादी तो इस चेहरे को नहीं, चेहरे के नीचे पति को देखना चाहती है। उसे बिछुड़े गए वर्षों में से वापस लौटा लेना चाहती है।

सिरहाने पर पड़ा दादा का सिर बिल्कुल सफे़द था। बन्द आँखों से लगी झुर्रियाँ-ही-झुर्रियाँ थीं। एक सूखी बाँह कम्बल पर सिकुड़ी-सी पड़ी थी। यह नहीं....यह तो नहीं.... दादी-अम्मा जैसे सोते-सोते जाग पड़ी थी, वैसे ही इस भूले-भटके भँवर में ऊपर-नीचे होती चारपाई पर जा पड़ी।

उस दिन सुबह उठकर जब दादी-अम्मा ने दादा को बाहर जाते देखा तो लगा कि रात-भर की भटकी-भटकी तस्वीरों में से कोई भी तस्वीर उसकी नहीं थी। वह इस सूखी देह और झुके कन्धे में से किसे ढूँढ़ रही थी? दादी-अम्मा चारपाई की बाँहों से उठी और लेट गई। अब तो इतनी-सी दिनचर्या शेष रह गई है। बीच-बीच में कभी उठकर बहुओं के कमरों की ओर जाती है तो लड़-झगड़कर लौट आती हैं कैसे हैं उसके पोते जो उम्र के रंग में किसी की बात नहीं सोचते? किसी की ओर नहीं देखते? बहू और बेटा, उन्हें भी कहाँ फुरसत है? मेहराँ तो कुछ-न-कुछ कहकर चोट करने से भी नहीं चूकती। लड़ने को तो दादी भी कम नहीं, पर अब तीखा-तेज़ बोल लेने पर जैसे वह थककर चूर-चूर हो जाती है। बोलती है, बोलने के बिना रह नहीं पाती, पर बाद में घंटों बैठी सोचती रहती है कि वह क्यों उनसे माथा लगाती है, जिन्हें उसकी परवा नहीं। मेहराँ की तो अब चाल-ढाल ही बदल गई है। अब वह उसकी बहू नहीं, तीन बहुओं की सास है। ठहरी हुई गंभीरता से घर का शासन चलाती है। दादी-अम्मा का बेटा अब अधिक दौड़-धूप नहीं करता। देखरेख से अधिक अब बहुओं द्वारा ससुर का आदर-मान ही अधिक होता है। कभी अंदर-बाहर जाते अम्मा मिल जाती है तो झुककर बेटा माँ को प्रणाम अवश्य करता है। दादी-अम्मा गर्दन हिलाती-हिलाती आशीर्वाद देती है, ”जीयो बेटा, जीयो।“

कभी मेहराँ की जली-कटी बातें सोच बेटे पर क्रोध और अभिमान करने को मन होता है, पर बेटे को पास देखकर दादी-अम्मा सब भूल जाती है। ममता-भरी पुरानी आँखों से निहारकर बार-बार आशीर्वाद बरसाती चली जाती है, ”सुख पाओ, भगवान बड़ी उम्र दे....“ कितना गंभीर और शीलवान है उसका बेटा! है तो उसका न? पोतों को ही देखो, कभी झुककर दादा के पाँव तक नहीं छूते। आखिर माँ का असर कैसे जाएगा? इन दिनों बहू की बात सोचते ही दादी-अम्मा को लगता है कि अब मेहराँ उसके बेटे में नहीं अपने बेटों में लगी रहती है। दादी-अम्मा को वे दिन भूल जाते हैं जब बेटे के ब्याह के बाद बहू-बेटे के लाड़-चाव में उसे पति के खाने-पीने की सुधि तक न रहती थी और जब लाख-लाख शुक्र करने पर पहली बार मेहराँ की गोद भरनेवाली थी तो दादी-अम्मा ने आकर दादा से कहा था, ”बहू के लिए अब यह कमरा खाली करना होगा। हम लोग फूफी के कमरे में जा रहेंगे।“

दादा ने एक भरपूर नज़रों से दादी-अम्मा की ओर देखा था, जैसे वह बीत गए वर्षों को अपनी दृष्टि से टटोलना चाहते हों। फिर सिर पर हाथ फेरते-फेरते कहा था, ”क्या बेटे वाला कमरा बहू के लिए ठीक नहीं? नाहक क्यों यह सबकुछ उलटा-सीधा करवाती हो?“
दादी-अम्मा ने हाथ हिलाकर कहा, ”ओह हो, तुम समझोगे भी! बेटे के कमरे में बहू को रखूँगी तो बेटा कहाँ जाएगा? उलटे-सीधे की फिक्र तुम क्यों करते हो, मैं सब ठीक कर लूँगी।“
और पत्नी के चले जाने पर दादा बहुत देर बैठे-बैठे भारी मन से सोचते रहे कि जिन वर्षों का बीतना उन्होंने आज तक नहीं जाना, उन्हीं पर पत्नी की आशा विराम बनकर आज खड़ी हो गई है। आज सचमुच ही उसे इस उलटफेर की परवा नहीं।

इस कमरे में बड़ी फूफी उनकी दुलहिन को छोड़ गई थी। उस कमरे को छोड़कर आज वह फूफी के कमरे में जा रहे हैं। क्षण-भर के लिए, केवल क्षण-भर के लिए उन्हें बेटे से ईर्ष्या हुई और उदासीनता में बदल गई और पहली रात जब वह फूफी के कमरे में सोए तो देर गए तक भी पत्नी बहू के पास से नहीं लौटी थी। कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद उनकी पलकें झँपी तो उन्हें लगा कि उनके पास पत्नी का नहीं...फूफी का हाथ है। दूसरे दिन मेहराँ की गोद भरी थी, बेटा हुआ था। घर की मालकिन पति की बात जानने के लिए बहुत अधिक व्यस्त थी।

कुछ दिन से दादी-अम्मा का जी अच्छा नहीं। दादा देखते हैं, पर बुढ़ापे की बीमारी से कोई दूसरी बीमारी बड़ी नहीं होती। दादी-अम्मा बार-बार करवट बदलती है और फिर कुछ-कुछ देर के लिए हाँफकर पड़ी रह जाती है। दो-एक दिन से वह रसोईघर की ओर भी नहीं आई, जहाँ मेहराँ का आधिपत्य रहते हुए भी वह कुछ-न-कुछ नौकरों को सुनाने में चूकती नहीं है। आज दादी को न देखकर छोटी बेटी हँसकर मँझली भाभी से बोली, ”भाभी, दादी-अम्मा के पास अब शायद कोई लड़ने-झगड़ने की बात नहीं रह गई, नहीं तो अब तक कई बार चक्कर लगातीं।“

दोपहर को नौकर जब अम्मा के यहाँ से अनछुई थाली उठा लाया तो मेहराँ का माथा ठनका। अम्मा के पास जाकर बोली, ”अम्मा, कुछ खा लिया होता, क्या जी अच्छा नहीं?“
एकाएक अम्मा कुछ बोली नहीं। क्षण-भर रुककर आँखें खोली और मेहराँ को देखती रह गई।
”खाने को मन न हो तो अम्मा दूध ही पी लो।“
अम्मा ने ‘हाँ’ - ‘ना’ कुछ नहीं की। न पलकें ही झपकीं। इस दृष्टि से मेहराँ बहुत वर्षों के बाद आज फिर डरी। इनमें न क्रोध था, न सास की तरेर थी, न मनमुटाव था। एक लम्बा गहरा उलाहना-पहचानते मेहराँ को देर नहीं लगी।
डरते-डरते सास के माथे को छुआ। ठंडे पसीने से भीगा था। पास बैठकर धीरे से स्नेह-भरे स्वर में बोली, ”अम्मा, जो कहो, बना लाती हूँ।“
अम्मा ने सिरहाने पर पड़े-पड़े सिर हिलाया - नहीं, कुछ नहीं- और बहू के हाथ से अपना हाथ खींच लिया।

मेहराँ पल-भर कुछ सोचती रही और बिना आहट किए बाहर हो गई। बड़ी बहू के पास जाकर चिंतित स्वर में बोली, ”बहू, अम्मा कुछ अधिक बीमार लगती हैं, तुम जाकर पास बैठो तो मैं कुछ बना लाऊँ।“
बहू ने सास की आवाज़ में आज पहली बार दादी-अम्मा के लिए घबराहट देखी। दबे पाँव जाकर अम्मा के पास बैठ हाथ-पाँव दबाने लगी। अम्मा ने इस बार हाथ नहीं खींचे। ढीली सी लेटी रही।
मेहराँ ने रसोईघर में जाकर दूध गर्म किया। औटाने लगी तो एकाएक हाथ अटक गया-क्या अम्मा के लिए यह अन्तिम बार दूध लिये जा रही है?

दादी-अम्मा ने बेखबरी में दो-चार घूँट दूध पीकर छोड़ दिया। चारपाई पर पड़ी अम्मा चारपाई के साथ लगी दीखती थीं। कमरे में कुछ अधिक सामान नहीं था। सामने के कोने में दादा का बिछौना बिछा था।
शाम को दादा आए तो अम्मा के पास बहू और पतोहू को बैठे देख पूछा, ”अम्मा तुम्हारी रूठकर लेटी है या....?“
मेहराँ ने अम्मा की बाँह आगे कर दी। दादा ने छूकर हौले से कहा, ”जाओ बहू, बेटा आता ही होगा। उसे डॉक्टर को लिवाने भेज देना।“ मेहराँ सुसर के शब्दों को गंभीरता जानते हुए चुपचाप बाहर हो गई। बेटे के साथ जब डॉक्टर आया तो दादी-अम्मा के तीनों पोते भी वापस आ खड़े हुए। डॉक्टर ने सधे-सधाए हाथों से दादी की परीक्षा की। जाते-जाते दादी के बेटे से कहा, ”कुछ ही घंटे और...।“ मेहराँ ने बहुओं को धीमे स्वर में आज्ञाएँ दीं और बेटों से बोली, ”बारी-बारी से खा-पी लो, फिर पिता और दादा को भेज देना।“ अम्मा के पास से हटने की पिता और दादा की बारी नहीं आई उस रात। दादी ने बहुत जल्दी की। डूबते-डूबते हाथ-पाँवों से छटपटाकर एक बार आँखें खोलीं और बेटे और पति के आगे बाँहे फैला दीं। जैसे कहती हो- ‘मुझे तुम पकड़ रखो।’

दादी का श्वास उखड़ा, दादा का कंठ जकड़ा और बेटे ने माँ पर झुककर पुकारा, ”अम्मा,...अम्मा।“
”सुन रही हूँ बेटा, तुम्हारी आवाज़ पहचानती हूँ।“
मेहराँ सास की ओर बढ़ी और ठंडे हो रहे पैरों को छूकर याचना-भरी दृष्टि से दादी-अम्मा को बिछुड़ती आँखों से देखने लगी। बहू को रोते देख अम्मा की आँखों में क्षण-भर को संतोष झलका, फिर वर्षों की लड़ाई-झगड़े का आभास उभरा। द्वार से लगी तीनों पोतों की बहुएँ खड़ी थीं। मेहराँ ने हाथ से संकेत किया। बारी-बारी दादी-अम्मा के निकट तीनों झुकीं। अम्मा की पुतलियों में जीवन-भर का मोह उतर गया। मेहराँ से उलझा कड़वापन ढीला हो गया। चाहा कि कुछ कहे....कुछ.... पर छूटते तन से दादी-अम्मा ओंठों पर कोई शब्द नहीं खींच पाई।

”अम्मा, बहुओं को आशीष देती जाओ....,“ मेहराँ के गीले कंठ में आग्रह था, विनय थी।
अम्मा ने आँखों के झिलमिलाते पर्दे में से अपने पूरे परिवार की ओर देखा-बेटा....बहू....पति....पोते-पतोहू...पोतियाँ। छोटी पतोहू की गुलाबी ओढ़नी जैसे दादी के तन-मन पर बिखर गई। उस ओढ़नी से लगे गोर-गोरे लाल-लाल बच्चे, हँसते-खेलते, भोली किलकारियाँ...।

दादी-अम्मा की धुँधली आँखों में से और सब मिट गया, सब पुँछ गया, केवल ढेर-से अगणित बच्चे खेलते रह गए...!
उसके पोते, उसके बच्चे....।
पिता और पुत्र ने एक साथ देखा, अम्मा जैसे हल्के से हँसी, हल्के से....।
मेहराँ को लगा, अम्मा बिल्कुल वैसे हँस रही है जैसे पहली बार बड़े बेटे के जन्म पर वह उसे देखकर हँसी थी। समझ गई-बहुओं को आशीर्वाद मिल गया। दादा ने अपने सिकुड़े हाथ में दादी का हाथ लेकर आँखों से लगाया और बच्चों की तरह बिलख-बिलखकर रो पड़े। रात बीत जाने से पहले दादी-अम्मा बीत गई। अपने भरेपूरे परिवार के बीच वह अपने पति, बेटे और पोतों के हाथों में अंतिम बार घर से उठ गई। दाह-संस्कार हुआ और दादी-अम्मा की पुरानी देह फूल हो गई।
देखने-सुननेवाले बोले, ”भाग्य हो तो ऐसा, फलता-फूलता परिवार।“

मेहराँ ने उदास-उदास मन से सबके लिए नहाने का सामान जुटाया। घर-बाहर धुलाया। नाते-रिश्तेदार पास-पड़ोसी अब तक लौट गए थे। मौत के बाद रूखी सहमी-सी दुपहर। अनचाहे मन से कुछ खा-पीकर घरवाले चुपचाप खाली हो बैठे। अम्मा चली गई, पर परिवार भरापूरा है। पोते थककर अपने-अपने कमरों मे जा लेटे। बहुएँ उठने से पहले सास की आज्ञा पाने को बैठी रहीं। दादी-अम्मा का बेटा निढाल होकर कमरे में जा लेटा। अम्मा की खाली कोठरी का ध्यान आते ही मन बह आया। कल तक अम्मा थी तो सही उस कोठी में। रुआँसी आँखें बरसकर झुक आईं तो सपने में देखा, नदी-किनारे घाट पर अम्मा खड़ी हैं अपनी चिता को जलते देख कहती है, ‘जाओ बेटा, दिन ढलने को आया, अब घर लौट चलो, बहू राह देख रही होगी। जरा सँभलकर जाना। बहू से कहना, बेटियों को अच्छे ठिकाने लगाए।’

दृश्य बदला। अम्मा द्वार पर खड़ी है। झाँककर उसकी ओर देखती है, ‘बेटा, अच्छी तरह कपड़ा ओढ़कर सोओ। हाँ बेटा, उठो तो! कोठरी में बापू को मिल आओ, यह विछोह उनसे न झेला जाएगा। बेटा, बापू को देखते रहना। तुम्हारे बापू ने मेरा हाथ पकड़ा था, उसे अंत तक निभाया, पर मैं ही छोड़ चली।’ बेटे ने हड़बड़ाकर आँखें खोलीं। कई क्षण द्वार की ओर देखते रह गए। अब कहाँ आएगी अम्मा इस देहरी पर...।

बिना आहट किए मेहराँ आई। रोशनी की। चेहरे पर अम्मा की याद नहीं, अम्मा का दुख था। पति को देखकर ज़रा सी रोई और बोली, ”जाकर ससुरजी को तो देखो। पानी तक मुँह नहीं लगाया।“
पति खिड़की में से कहीं दूर देखते रहे। जैसे देखने के साथ कुछ सुन रहे हों- ‘बेटा, बापू को देखते रहना, तुम्हारे बापू ने तो अंत तक संग निभाया, पर मैं ही छोड़ चली।’
”उठो।“ मेहराँ कपड़ा खींचकर पति के पीछे हो ली। अम्मा की कोठरी में अँधेरा था। बापू उसी कोठरी के कोने में अपनी चारपाई पर बैठे थे। नज़र दादी-अम्मा की चारपाईवाली खाली जगह पर गड़ी थी। बेटे को आया जान हिले नहीं।
”बापू, उठो, चलकर बच्चों में बैठो, जी सँभलेगा।“
बापू ने सिर हिला दिया।
मेहराँ और बेटे की बात बापू को मानो सुनाई नहीं दी। पत्थर की तरह बिना हिले-डुले बैठे रहे। बहू-बेटा, बेटे की माँ.....खाली दीवारों पर अम्मा की तस्वीरें ऊपर-नीचे होती रहीं। द्वार पर अम्मा घूँघट निकाले खड़ी है। बापू को अंदर आते देख शरमाती है और बुआ की ओट हो जाती है। बुआ स्नेह से हँसती है। पीठ पर हाथ फेरकर कहती है, ‘बहू, मेरे बेटे से कब तक शरमाओगी।?’

अम्मा बेटे को गोद में लिये दूध पिला रही हैं बापू घूम-फिरकर पास आ खड़े होते हैं। तेवर चढ़े। तीखे बालों को फीका बनाकर कहते हैं, ‘मेरी देखरेख अब सब भूल गई हो। मेरे कपड़े कहाँ डाल दिए?’ अम्मा बेटे के सिर को सहलाते-सहलाते मुस्कुराती है। फिर बापू की आँखों में भरपूर देखकर कहती है, ‘अपने ही बेटे से प्यार का बँटवारा कर झुँझलाने लगे!’

बापू इस बार झुँझलाते नहीं, झिझकते हैं, फिर एकाएक दूध पीते बेटे को अम्मा से लेकर चूम लेते हैं। मुन्ने के पतले नर्म ओठों पर दूध की बूँद अब भी चमक रही है। बापू अँधेरे में अपनी आँखों पर हाथ फेरते हैं। हाथ गीले हो जाते हैं। उनके बेटे की माँ आज नहीं रही।

तीनों बेटे दबे-पाँवों जाकर दादा को झाँक आए। बहुएँ सास की आज्ञा पा अपने-अपने कमरों में जा लेटीं। बेटियों को सोता जान मेहराँ पति के पास आई तो सिर दबाते-दबाते प्यार से बोली, ”अब हौसला करो“... लेकिन एकाएक किसी की गहरी सिसकी सुन चौंक पड़ी। पति पर झुककर बोली, ”बापू की आवाज़ लगती है, देखो तो।“
बेटे ने जाकर बाहरवाला द्वार खोला, पीपल से लगी झुकी-सी छाया। बेटे ने कहना चाहा, ‘बापू’! पर बैठे गले से आवाज़ निकली नहीं। हवा में पत्ते खड़खड़ाए, टहनियाँ हिलीं और बापू खड़े-खड़े सिसकते रहे।
”बापू!“
इस बार बापू के कानों में बड़े पोते की आवाज़ आई। सिर ऊँचा किया, तो तीनों बेटों के साथ देहरी पर झुकी मेहराँ दीख पड़ी। आँसुओं के गीले पूर में से धुंध बह गई। मेहराँ अब घर की बहू नहीं, घर की अम्मा लगती है। बड़े बेटे का हाथ पकड़कर बापू के निकट आई। झुककर गहरे स्नेह से बोली, ”बापू, अपने इन बेटों की ओर देखो, यह सब अम्मा का ही तो प्रताप है। महीने-भर के बाद बड़ी बहू की झोली भरेगी, अम्मा का परिवार और फूले-फलेगा।“

बापू ने इस बार सिसकी नहीं भरी। आँसुओं को खुले बह जाने दिया। पेड़ के कड़े तने से हाथ उठाते-उठाते सोचा-दूर तक धरती में बैठी अगणित जड़ें अंदर-ही-अंदर इस बड़े पुराने पीपल को थामे हुए हैं। दादी-अम्मा इसे नित्य पानी दिया करती थी। आज वह भी धरती में समा गई है। उसके तन से ही तो बेटेपोते का यह परिवार फैला है। पीपल की घनी छाँह की तरह यह और फैलेगा। बहू सच कहती है। यह सब अम्मा का ही प्रताप है। वह मरी नहीं। वह तो अपनी देह पर के कपड़े बदल गई है, अब वह बहू में जीएगी, फिर बहू की बहू में...।

प्रस्‍तुति - अलकनंदा सिंह

Sunday, 5 February 2017

वैक्‍यूम...



मैं कहती हूं कि-
आकाश से धरती तक फैला वैक्‍यूम...
खींचता है मुझे...उस तत्‍व की ओर,
जो विलीन कर देता है
सारा अस्‍तित्‍व सारी सोच
सारा अपने-पराये का स्‍पंदन
सुख-दुख, राग-द्वेष, प्रेम-विरह,
और मैं स्‍वयं होती जाती हूं
कभी आकाश सी अनंत तो कभी
समुद्र की काई को फाड़ कर,
होती जाती हूं धरती सी गहरी...।

मैं जानती हूं कि-
आकाश से धरती तक फैला है वैक्‍यूम...
कचरा मन का हो या ब्रह्मांड का,
उसका बह जाना, समा जाना इसी वैक्‍यूम में...जरूरी है,
जो धरती और आकाश दोनों में,
बहता है संग संग,
अपने अपने अपने लिए अनंत ,
ये दोनों ही वैक्‍यूम की गंगायें समा लेती हैं-
हर लेती हैं ताप पाप सब मन के...,
ब्रह्मांड के भी...सब चुंबक बनकर ,
शुद्ध कर देती हैं प्राणवायु को...अंतरिक्ष को भी,

मैं मांगती हूं कि-
हे गंगा! वैक्‍यूम की हो, आकाश की हो... ,
धरती की... या मन की...,
मेरे कुत्‍सित को निगल कर तू मुझे आकाश बना दे...,
मुझमें अपनी गंध कर प्रवाहित, हो जाऊं शून्‍य...
और अदृष्‍ट, अपरिमित -अनंत,
मैं आकाश बन वैक्‍यूम को भीतर समेट लूं,
अपरिमित प्रेम में पगी भी रहूं...और खाली भी...
वैक्‍यूम हो जाए 'स्‍व' , और मैं बन जाऊं
आकाश-धरती-समुद्र-प्रेम-उत्‍सर्ग-और मनुष्‍यता।

- अलकनंदा सिंह

Sunday, 22 January 2017

व्यवहारिक संशोधनों का----- समय है ये

व्यवहारिक संशोधनों का----- समय है ये


बदलते इस समय में
रिश्तों की बुनियादें और उनमें प्रेम ,
ढूढ़ रहे हैं - गढ़ रहे हैं नित
नई परिभाषाएं अपनी ....

प्रेम में भी व्यवहार बदल रहे हैं
ये व्यवहारिक संशोधनों का-
समय है, समय है निज की ओर आते
स्वार्थों के प्रवाह को रोकने का ,
परंतु  ...... ? ?  ?  ?  ?

यह वह समय है जहां मन( दिल) से नहीं,
शरीर और दिमाग से जिया जाता है ....
जहां खुद को ही खुद से काट कर हंसा जाता है, 
और हंसते हुए रोया जाता है ....

ऐसे में .....
बूंद हो जाना होगा , सूक्ष्म हो जाना होगा ,
क्योंकि ....
जब एक प्यालाभर अहसास ही
पूरी की पूरी जिंदगी को
प्रेम में डुबोने के लिए- 
काफी है... 
फिर क्यों तमन्ना हो
कि मिले समंदर ... ही ....खरे सोने सा ... हमें ।

- अलकनंदा सिंह



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