Friday, 24 April 2020

नील कुसुम से चांद का कुर्ता तक... द‍िनकर ही द‍िनकर

रामधारी सिंह 'दिनकर' : कवि जो सत्ता के करीब रहकर भी कभी जनता से दूर नहीं हुआ, आज उनकी पुण्यत‍िथ‍ि है ।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिंदी के उन गिने-चुने कवियों में से हैं जिनकी पंक्तियों को किसानों और मजदूरों ने भी कहावतों की तरह इस्तेमाल किया। अहिंदी भाषा-भाषियों के बीच भी वे उतने ही लोकप्रिय थे। पुरस्कारों की झड़ी भी उनपर खूब होती रही, उनकी झोली में गिरनेवाले पुरस्कारों में बड़े पुरस्कार भी बहुत रहे - साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मविभूषण, भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार इस बात की तस्दीक खुद करते हैं। बावजूद इसके वे धरती से जुड़े लोगों के मन को भी उसी तरह छूते रहे।

हिंदी साहित्य के इतिहास में कि ऐसे लेखक बहुत कम हुए हैं जो सत्ता के भी करीब हों और जनता में भी उसी तरह लोकप्रिय हों। जो जनकवि भी हों और साथ ही राष्ट्रकवि भी। दिनकर का व्यक्तित्व इन विरोधों को अपने भीतर बहुत सहजता से साधता हुआ चला था। वहां अगर भूषण जैसा कोई वीर रस का कवि बैठा था, तो मैथिलीशरण गुप्त की तरह लोगों की दुर्दशा पर लिखने और रोनेवाला एक राष्ट्रकवि भी। हालंकि दिनकर छायावाद के तुरंत बाद के कवि थे पर आत्मा से वे हमेशा द्विवेदीयुगीन कवि रहे।

दिनकर और हरिवंशराय बच्चन दोनों समकालीन थे. समकालीनों के बीच की जलन और प्रतिस्पर्धा किसी के लिए भी छिपी हुई बात नहीं। पर दिनकर ऐसे कवि थे जो अपने समकालीनों के बीच भी उतने ही लोकप्रिय थे। दिनकर को जब उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ मिला तो इसपर बच्चन जी का जवाब था, ‘दिनकर जी को एक नहीं बल्कि गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी के सेवा के लिए अलग-अलग चार ज्ञानपीठ मिलने चाहिए थे।’

ओजस्वी दिनकर जिन्दगी में रूमानी और साफ दिल थे, जिसका उदहारण सिर्फ ‘रसवंती’, ‘उर्वशी’ ही नहीं, वे सारी स्त्रियां भी हैं, जो क, ख, ग के नाम से उनकी डायरी में वर्णित हैं। यह उनकी साफदिली ही थी कि डायरी के प्रकाशन के समय उन्होंने इसे हटाया नहीं, बल्कि वे तो चाहते थे स्त्रियों का असल नाम यहां दिया जाए पर उनके कुछ लेखक मित्रों के सुझाव से इन नामों को क, ख, ग की शक्ल अख्तियार करनी पड़ी। वे मानते थे, ‘जब हम और आप एक ही नाव के सवार हैं तो शर्म कैसी और झिझक कैसी?’

आज पढ़‍िए उनकी यही देानों कव‍िताऐं -

1. नील कुसुम

‘‘है यहाँ तिमिर, आगे भी ऐसा ही तम है,
तुम नील कुसुम के लिए कहाँ तक जाओगे ?
जो गया, आज तक नहीं कभी वह लौट सका,
नादान मर्द ! क्यों अपनी जान गँवाओगे ?

प्रेमिका ! अरे, उन शोख़ बुतों का क्या कहना !
वे तो यों ही उन्माद जगाया करती हैं;
पुतली से लेतीं बाँध प्राण की डोर प्रथम,
पीछे चुम्बन पर क़ैद लगया करती हैं।

इनमें से किसने कहा, चाँद से कम लूँगी ?
पर, चाँद तोड़ कर कौन मही पर लाया है ?
किसके मन की कल्पना गोद में बैठ सकी ?
किसकी जहाज़ फिर देश लौट कर आया है ?’’

ओ नीतिकार ! तुम झूठ नहीं कहते होगे,
बेकार मगर, पागलों को ज्ञान सिखाना है;
मरने का होगा ख़ौफ़, मौत की छाती में
जिसको अपनी ज़िन्दगी ढूँढ़ने जाना है ?

औ’ सुना कहाँ तुमने कि ज़िन्दगी कहते हैं,
सपनों ने देखा जिसे, उसे पा जाने को ?
इच्छाओं की मूर्तियाँ घूमतीं जो मन में,
उनको उतार मिट्टी पर गले लगाने को ?

ज़िन्दगी, आह ! वह एक झलक रंगीनी की,
नंगी उँगली जिसको न कभी छू पाती है,
हम जभी हाँफते हुए चोटियों पर चढ़ते,
वह खोल पंख चोटियाँ छोड़ उड़ जाती है।

रंगीनी की वह एक झलक, जिसके पीछे
है मच हुई आपा-आपी मस्तानों में,
वह एक दीप जिसके पीछे है डूब रहीं
दीवानों की किश्तियाँ कठिन तूफ़ानों में।

डूबती हुई किश्तियाँ ! और यह किलकारी !
ओ नीतिकार ! क्या मौत इसी को कहते हैं ?
है यही ख़ौफ़, जिससे डरकर जीनेवाले
पानी से अपना पाँव समेटे रहते हैं ?

ज़िन्दगी गोद में उठा-उठा हलराती है
आशाओं की भीषिका झेलनेवालों को;
औ; बड़े शौक़ से मौत पिलाती है जीवन
अपनी छाती से लिपट खेलनेवालों को।

तुम लाशें गिनते रहे खोजनेवालों की,
लेकिन, उनकी असलियत नहीं पहचान सके;
मुरदों में केवल यही ज़िन्दगीवाले थे
जो फूल उतारे बिना लौट कर आ न सके।

हो जहाँ कहीं भी नील कुसुम की फुलवारी,
मैं एक फूल तो किसी तरह ले जाऊँगा,
जूडे में जब तक भेंट नहीं यह बाँध सकूँ,
किस तरह प्राण की मणि को गले लगाऊँगा ?

2. हर क‍िसी को बचपन की याद द‍िलातीं , दादी नानी के मुंह से चांद की इबारतें , आप भी बचपन को महसूस कीज‍िए - चांद का कुर्ता

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।

सनसन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान, लगें मत तुझको जादू-टोने।

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी नहीं तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटता-बढ़ता रोज किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी आँखों को दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही ये बता, नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’

-अलकनंदा स‍िंंह

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