Monday, 31 August 2020

आज़ाद रूह की नुमाइंदगी कर साह‍ित्य की रूह को जगा गईं अमृता प्रीतम


कल्पना का इतना ऊंचा दरख़्त खड़ा कर दो क‍ि कोई उसके पार जा ही ना पाये और थकहार कर कहे क‍ि अब बस भी करो अमृता… साह‍ित्य में रुह से इतने गहरे तक कौन ताअल्लुक बनाता है … मगर नहीं, अमृता आज भी हमारी रूहों को टटोल कर कहती हैं क‍ि कल्पना को कोई नहीं बांध सका..इसल‍िए उड़ो और उड़ो …और उड़ते चलो …
ढलते सूरज की रोशनी से ऐसा चराग जल रहा हो जिसकी लपटें काल्पनिक शब्दों के सहारे कागज़ को यथार्थ की आग से सुलगा रही हो। कहानियों का ये स्वभाव सिर्फ और सिर्फ हिंदी-पंजाबी की उम्दा लेखिका रहीं अमृता प्रीतम की कहानियों में मिलता है। जहां वो अपने पात्रों के साथ एक ऐसे सफर पर ले चलती हैं जो अक्सर पाठकों को अपना खुद का सफर लगने लगता है।अमृता प्रीतम अपनी कहानियों के पात्रों और उसके पाठकों के बीच एक अलग तरह के संबंध को देखती थीं। ठीक उसी तरह जैसे ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए हों। इस बात की तस्दीक वो खुद करती हैं। इसके पीछे उन्होंने संजीदा और विचारणीय तर्क भी दिए हैं।
उनकी चुनिंदा कहानियों के संग्रह ‘मेरी प्रिय कहानियां’ की भूमिका में वो लिखती हैं, ‘हर कहानी का एक मुख्य पात्र होता है और जो कोई उसको मुख्य पात्र बनाने का कारण बनता है, चाहे वह उसका महबूब हो और चाहे उसका माहौल, वह उस कहानी का दूसरा पात्र होता है पर मैं सोचती हूं, हर कहानी का एक तीसरा पात्र भी होता है।कहानी का तीसरा पात्र उसका पाठक होता है जो उस कहानी को पहली बार लफ्ज़ों में से उभरते हुए देखता है और उसके वजूद की गवाही देता है।’
वास्तव में उनकी कहानियां पढ़ते हुए हम उस दुनिया में प्रवेश करने लगते हैं जहां उसके पात्रों को रचा गया है। न चाहते हुए भी हम अमृता प्रीतम के ही शब्दों में उनकी कहानियों का तीसरा पात्र बन जाते हैं। और पात्रों का सुख, दुख हमारे अपने होते चले जाते हैं। जब उनकी कहानियों से गुज़रना होता है तो उनमें भी मानवीय करूणा, महिलाओं की पीड़ा, नारी की स्थिति बड़ी संजीदगी और गंभीरता से उकेरी हुई जान पड़ती है।
2020 का साल यानि जब कोरोनावायरस महामारी को हम सब भुगत रहे हैं , तब उसी समाज की परतों को खंगालती अमृता प्रीतम की कहानियों न केवल महत्वपूर्ण हो जाती है बल्कि उस दायरे को भी बढ़ाती है जिसका शिखर प्रेम रूपी समाज होना चाहिए। जैसे कि ” जंगली बूटी” में अमृता प्रीतम ने महिलाओं की उस स्थिति को बताया है जिसमें नारी खुद को विश्वासों और संस्कारों के बंधन में बांधे रखती है और उसे तोड़ना मानों उसे ऐसा लगता है कि किसी ने उसे कोई बूटी खिला दी हो तभी वो उन दायरों से बाहर निकल रही है।
इसी तरह ”गुलियाना का एक खत” कहानी में गुलियाना के जरिए औरतों की आज़ादी की पैरवी की गई है। वो पात्रों के जरिए औरत की इच्छाओं की दुनिया को दिखाती है लेकिन समाज रूपी दुनिया मानो एक बाधा बनकर उसे पीछे धकेल रही हो और उसकी स्वतंत्रता को कैद कर लेना चाहती हो।
अमृता प्रीतम की लेखनी के दायरे को सिर्फ महिलाओं तक ही बांध कर देखना नाइंसाफी ही कही जाएगी। उनकी कहानियों में पुरुषों की भावनाओं का भी जिक्र मिलता है जिसे उन्होंने बड़ी ही नाटकीय और मानवीय संवेदना के जरिए अपने काल्पनिक शब्दों की जादूगरी से पिरोया है। धुंआ और लाट, लाल मिर्च, बू, मैं सब जानता हूं, एक गीत का सृजन, एक लड़की: एक जाम – मर्दों के मन के भीतर की दुनिया को सामने लाकर रख देती है। उनकी कथित ठोस व्यक्तित्व के पीछे के ममत्व स्वाभाव और बैचेनी को भी उभारती है जो पुरुष और महिला के व्यक्तित्व का साझा स्वभाव है।
ये भी अजब इत्त‍िफाक ही रहा क‍ि अमृता प्रीतम ने दो ”31” तारीखों के बीच पूरा जीवन जी लिया , जी हां, 31 अगस्‍त 1919 को जन्‍मी Amrita Pritam का निधन भी 31 अक्‍तूबर 2005 को हुआ।
कव‍िताओं में उनका कोई सानी नहीं, उनकी अध‍िकांश कव‍िताऐं पंजाबी में ल‍िखी गईं, हालांक‍ि ह‍िंदी में भी ल‍िखी हैं, परंतु जो बात उनकी पंजाबी कव‍िता में आती है, वो क‍िसी को भी झकझोरने के ल‍िए काफी है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पंजाबी कविता की अपनी एक अलग पहचान है, उसकी अपनी शक्ति है अपना सौंदर्य है, अपना तेवर है और वे उसका प्रतिनिधित्व करती हैं।
अमृता प्रीतम का जन्म १९१९ में गुजरांवाला पंजाब में हुआ। बचपन बीता लाहौर में, शिक्षा भी वहीं हुई। किशोरावस्था से लिखना शुरू किया — कविता, कहानी और निबंध। पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुयीं और देशी विदेशी अनेक भाषाओं में अनूदित भी हुईं। वे १९५७ में साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९५८ में पंजाब सरकार के भाषा द्वारा, १९८८ में बल्गारिया वैप्त्त्सरोव पुरस्कार (अन्तर्राष्ट्रीय) और १९८१ में भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित हुईं।
आज उन्‍हें श्रद्धांजलिस्‍वरूप मैं उन्‍हीं की तीन पंजाबी कविताऐं देना चाहती हूं, जिनका हिन्‍दी अनुवाद भी साथ ही दिया गया है।
1. मेरा पता
अज मैं आपणें घर दा नंबर मिटाइआ है
ते गली दे मत्थे ते लग्गा गली दा नांउं हटाइया है
ते हर सड़क दी दिशा दा नाउं पूंझ दित्ता है
पर जे तुसां मैंनूं ज़रूर लभणा है
तां हर देस दे, हर शहर दी, हर गली दा बूहा ठकोरो
इह इक सराप है, इक वर है
ते जित्थे वी सुतंतर रूह दी झलक पवे
– समझणा उह मेरा घर है।
मेरा पता का हिन्‍दी अनुवाद
मेरा पता
आज मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है
और गली के माथे पर लगा गली का नाम हटाया है
और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना है
तो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओ
यह एक शाप है, एक वर है
और जहाँ भी आज़ाद रूह की झलक पड़े
– समझना वह मेरा घर है।
2. इक ख़त
मैं – इक परबत्ती ‘ते पई पुस्तक।
शाइद साध–बचन हाँ, जां भजन माला हाँ,
जां कामसूत्र दा इक कांड,
जो कुझ आसण ‘ते गुप्त रोगां दे टोटके,
पर जापदा – मैं इन्हां विचों कुझ वी नहीं।
(कुझ हुंदी तां ज़रूर कोई पढ़दा)
ते जापदा इक क्रांतिकारीआं दी सभा होई सी
ते सभा विच जो मत्ता पास होईआ सी
मैं उसे दी इक हथ–लिखत कापी हाँ।
ते फेर उत्तों पुलिस दा छापा
ते कुझ पास होईआ सी, कदे लागू न होईआ
सिर्फ़ ‘कारवाई’ खातर सांभ के रखिआ गिआ।
ते हुण सिर्फ़ कुझ चिड़िआं अउदीआं
चुझ विच तीले लिअउंदीआं
ते मेरे बदन उत्ते बैठ के
उह दूसरी पीढ़ी दा फिकर करदीआं।
(दूसरी पीढ़ी दा फिकर किन्ना हसीन फिकर है!)
पर किसे उपराले लई चिड़िआं दे खम्ब हुंदे हन
ते किसे मते दा कोई खम्ब नहीं हुंदा।
(जां किसे मते दी कोई दूसरो पीढ़ी नहीं हुंदी?)
हिन्‍दी अनुवाद
एक ख़त
मैं – एक आले में पड़ी पुस्तक।
शायद संत–वचन हूँ, या भजन–माला हूँ,
या काम–सूत्र का एक कांड,
या कुछ आसन, और गुप्त रोगों के टोटके
पर लगता है मैं इन में से कुछ भी नहीं।
(कुछ होती तो ज़रूर कोई पढ़ता)
और लगता – कि क्रांतिकारियों की सभा हुई थीं
और सभा में जो प्रस्ताव रखा गया
मैं उसी की एक प्रतिलिपि हूँ
और फिर पुलिस का छापा
और जो पास हुआ कभी लागू न हुआ
सिर्फ़ कार्रवाई की ख़ातिर संभाल कर रखा गया।
और अब सिर्फ़ कुछ चिड़ियाँ आती हैं
चोंच में कुछ तिनके लाती हैं
और मेरे बदन पर बैठ कर
वे दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र करती हैं
(दूसरी पीढ़ी की फ़िक्र कितनी हसीन फ़िक्र है!)
पर किसी भी यत्न के लिए चिड़ियों के पंख होते हैं,
पर किसी प्रस्ताव का कोई पंख नहीं होता।
(या किसी प्रस्ताव की कोई दूसरी पीढ़ी नहीं होती?)
3. तू नहीं आया
चेतर ने पासा मोड़िया, रंगां दे मेले वास्ते
फुल्लां ने रेशम जोड़िया – तू नहीं आया
होईआं दुपहिरां लम्बीआं, दाखां नू लाली छोह गई
दाती ने कणकां चुम्मीआं – तू नहीं आया
बद्दलां दी दुनीआं छा गई, धरती ने बुक्कां जोड़ के
अंबर दी रहिमत पी लई – तू नहीं आया
रुकखां ने जादू कर लिआ, जंग्गल नू छोहंदी पौण दे
होंठों ‘च शहद भर गिआ – तू नहीं आया
रूत्तां ने जादू छोहणीआं, चन्नां ने पाईआं आण के
रातां दे मत्थे दौणीआं – तू नहीं आया
अज फेर तारे कह गए, उमरां दे महिलीं अजे वी
हुसनां दे दीवे बल रहे – तू नहीं आया
किरणां दा झुरमुट आखदा, रातां दी गूढ़ी नींद चों
हाले वी चानण जागदा – तू नहीं आया
हिन्‍दी अनुवाद
तू नहीं आया
चैत ने करवट ली, रंगों के मेले के लिए
फूलों ने रेशम बटोरा – तू नहीं आया
दोपहरें लंबी हो गईं, दाख़ों को लाली छू गई
दरांती ने गेहूँ की वालियाँ चूम लीं – तू नहीं आया
बादलों की दुनिया छा गई, धरती ने दोनों हाथ बढ़ा कर
आसमान की रहमत पी ली – तू नहीं आया
पेड़ों ने जादू कर दिया, जंगल से आई हवा के
होंठों में शहद भर गया – तू नहीं आया
ऋतु ने एक टोना कर दिया, चाँद ने आकर
रात के माथे झूमर लटका दिया – तू नहीं आया
आज तारों ने फिर कहा, उम्र के महल में अब भी
हुस्न के दिये जल रहे हैं – तू नहीं आया
किरणों का झुरमुट कहता है, रातों की गहरी नींद से
रोशनी अब भी जागती है – तू नहीं आया।
- अलकनंदा स‍िंंह 

Tuesday, 25 August 2020

पुण्‍यतिथि विशेष: उर्दू के मशहूर शायर अहमद फ़राज़

उर्दू अदब की मक़बूल हस्तियों में शुमार मशहूर शायर अहमद फ़राज़ की आज बारहवीं पुण्‍यतिथि है। 12 जनवरी 1931 को पाकिस्‍तान में जन्‍मे अहमद फ़राज़ का इंतकाल 25 अगस्‍त 2008 को इस्‍लाबाद में हुआ। अहमद फ़राज़ का पूरा नाम सैयद अहमद शाह अली था लेकिन शायरी की दुनिया में वह अहमद फ़राज़ के नाम से मशहूर हुए।
उनकी लिखी ग़ज़लों में से प्रसिद्ध कुछ ग़ज़लें इस प्रकार हैं-
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
आज हम दार पे खींचे गए जिन बातों प
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें
अब न वो मैं न वो तू है न वो माज़ी है ‘फ़राज़’
जैसे दो साए तमन्ना के सराबों में मिलें
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते
अंदर की फ़ज़ाओं के करिश्मे भी अजब हैं
मेंह टूट के बरसे भी तो बादल नहीं होते
कुछ मुश्किलें ऐसी हैं कि आसाँ नहीं होतीं
कुछ ऐसे मुअम्मे हैं कभी हल नहीं होते
शाइस्तगी-ए-ग़म के सबब आँखों के सहरा
नमनाक तो हो जाते हैं जल-थल नहीं होते
कैसे ही तलातुम हों मगर क़ुल्ज़ुम-ए-जाँ में
कुछ याद-जज़ीरे हैं कि ओझल नहीं होते
उश्शाक़ के मानिंद कई अहल-ए-हवस भी
पागल तो नज़र आते हैं पागल नहीं होते
सब ख़्वाहिशें पूरी हों ‘फ़राज़’ ऐसा नहीं है
जैसे कई अशआर मुकम्मल नहीं होते
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
हम ने भी कीं दर-ओ-दीवार से बातें क्या क्या
बात बन आई है फिर से कि मेरे बारे में
उस ने पूछीं मेरे ग़म-ख़्वार से बातें क्या क्या
लोग लब-बस्ता अगर हों तो निकल आती हैं
चुप के पैराया-ए-इज़हार से बातें क्या क्या
किसी सौदाई का क़िस्सा किसी हरजाई की बात
लोग ले आते हैं बाज़ार से बातें क्या क्या
हम ने भी दस्त-शनासी के बहाने की हैं
हाथ में हाथ लिए प्यार से बातें क्या क्या
किस को बिकना था मगर ख़ुश हैं कि इस हीले से
हो गईं अपने ख़रीदार से बातें क्या क्या
हम हैं ख़ामोश कि मजबूर-ए-मोहब्बत थे ‘फ़राज़’
वर्ना मंसूब हैं सरकार से बातें क्या क्या
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
इस से पहले कि बेवफ़ा हो जाएँ
क्यूँ न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएँ
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएँ
तू कि यकता था बे-शुमार हुआ
हम भी टूटें तो जा-ब-जा हो जाएँ
हम भी मजबूरियों का उज़्र करें
फिर कहीं और मुब्तला हो जाएँ
हम अगर मंज़िलें न बन पाए
मंज़िलों तक का रास्ता हो जाएँ
देर से सोच में हैं परवाने
राख हो जाएँ या हवा हो जाएँ
इश्क़ भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएँ कीमिया हो जाएँ
अब के गर तू मिले तो हम तुझ से
ऐसे लिपटें तिरी क़बा हो जाएँ
बंदगी हम ने छोड़ दी है ‘फ़राज़’
क्या करें लोग जब ख़ुदा हो जाएँ
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे
ये लोग तज़्किरे करते हैं अपने लोगों के
मैं कैसे बात करूँ अब कहाँ से लाऊँ उसे
मगर वो ज़ूद-फ़रामोश ज़ूद-रंज भी है
कि रूठ जाए अगर याद कुछ दिलाऊँ उसे
वही जो दौलत-ए-दिल है वही जो राहत-ए-जाँ
तुम्हारी बात पे ऐ नासेहो गँवाऊँ उसे
जो हम-सफ़र सर-ए-मंज़िल बिछड़ रहा है ‘फ़राज़’
अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
न दिल से आह न लब से सदा निकलती है
मगर ये बात बड़ी दूर जा निकलती है
सितम तो ये है कि अहद-ए-सितम के जाते ही
तमाम ख़ल्क़ मेरी हम-नवा निकलती है
विसाल-ओ-हिज्र की हसरत में जू-ए-कम-माया
कभी कभी किसी सहरा में जा निकलती है
मैं क्या करूँ मिरे क़ातिल न चाहने पर भी
तेरे लिए मेरे दिल से दुआ निकलती है
वो ज़िंदगी हो कि दुनिया ‘फ़राज़’ क्या कीजे
कि जिस से इश्क़ करो बेवफ़ा निकलती है
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
न मंज़िलों को न हम रहगुज़र को देखते हैं
अजब सफ़र है कि बस हम-सफ़र को देखते हैं
न पूछ जब वो गुज़रता है बे-नियाज़ी से
तो किस मलाल से हम नामा-बर को देखते हैं
तेरे जमाल से हट कर भी एक दुनिया है
ये सेर-चश्म मगर कब उधर को देखते हैं
अजब फ़ुसून-ए-ख़रीदार का असर है कि हम
उसी की आँख से अपने हुनर को देखते हैं
‘फ़राज़’ दर-ख़ुर-ए-सज्दा हर आस्ताना नहीं
हम अपने दिल के हवाले से दर को देखते हैं
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उस की
सो हम भी उस की गली से गुज़र के देखते हैं
सुना है उस को भी है शेर ओ शाइरी से शग़फ़
सो हम भी मो’जिज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
सुना है हश्र हैं उस की ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उस की
सुना है शाम को साए गुज़र के देखते हैं
सुना है उस की सियह-चश्मगी क़यामत है
सो उस को सुरमा-फ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उस के लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पे इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आइना तिमसाल है जबीं उस की
जो सादा दिल हैं उसे बन-सँवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उस की गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल ओ गुहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उस की कमर के देखते हैं
सुना है उस के बदन की तराश ऐसी है
कि फूल अपनी क़बाएँ कतर के देखते हैं
वो सर्व-क़द है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
कि उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रह-रवान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उस के शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जल्वे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब कि बे-पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर ओ दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उस के शहर में ठहरें कि कूच कर जाएँ
‘फ़राज़’ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
तरस रहा हूँ मगर तू नज़र न आ मुझ को
कि ख़ुद जुदा है तू मुझ से न कर जुदा मुझ को
वो कपकपाते हुए होंट मेरे शाने पर
वो ख़्वाब साँप की मानिंद डस गया मुझ को
चटख़ उठा हो सुलगती चटान की सूरत
पुकार अब तू मिरे देर-आश्ना मुझ को
तुझे तराश के मैं सख़्त मुन्फ़इल हूँ कि लोग
तुझे सनम तो समझने लगे ख़ुदा मुझ को
ये और बात कि अक्सर दमक उठा चेहरा
कभी कभी यही शो’ला बुझा गया मुझ को
ये क़ुर्बतें ही तो वजह-ए-फ़िराक़ ठहरी हैं
बहुत अज़ीज़ हैं यारान-ए-बे-वफ़ा मुझ को
सितम तो ये है कि ज़ालिम सुख़न-शनास नहीं
वो एक शख़्स कि शाएर बना गया मुझ को
उसे ‘फ़राज़’ अगर दुख न था बिछड़ने का
तो क्यूँ वो दूर तलक देखता रहा मुझ को
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़
अपनी महरूमी के एहसास से शर्मिंदा हैं
ख़ुद नहीं रखते तो औरों के बुझाते हैं चराग़
बस्तियाँ दूर हुई जाती हैं रफ़्ता रफ़्ता
दम-ब-दम आँखों से छुपते चले जाते हैं चराग़
क्या ख़बर उन को कि दामन भी भड़क उठते हैं
जो ज़माने की हवाओं से बचाते हैं चराग़
गो सियह-बख़्त हैं हम लोग पे रौशन है ज़मीर
ख़ुद अँधेरे में हैं दुनिया को दिखाते हैं चराग़
बस्तियाँ चाँद सितारों की बसाने वालो
कुर्रा-ए-अर्ज़ पे बुझते चले जाते हैं चराग़
ऐसे बेदर्द हुए हम भी कि अब गुलशन पर
बर्क़ गिरती है तो ज़िंदाँ में जलाते हैं चराग़
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि ‘फ़राज़’
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग़

Wednesday, 12 August 2020

मारीशस में भारत के उच्चायुक्त थे ''कालिदास का भारत'' ल‍िखने वाले डॉ. भगवतशरण उपाध्याय

भारत विद्याविद् डॉ. भगवतशरण उपाध्याय की आज पुण्‍यतिथि है। डॉ. भगवतशरण का जन्म जिला बलिया उप्र के एक गाँव उजियार में हुआ था। उनकी मृत्‍यु 12 अगस्‍त 1982 को मौरीशस में हुई।


वे अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान थे। भारतीय इतिहास, पुरातत्त्व, संस्कृति और कला पर उपाध्याय जी ने अनेक महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का प्रणयन किया है। साहित्य की हर विधा में उन्होंने अपनी लेखनी चलायी। इसके अलावा अनेक अनुवाद और कोशों का सम्पादन किया है। उनके कुल ग्रन्थों की संख्य सौ से भी ज्यादा है।


उपाध्याय जी ने छात्र-जीवन में असहयोग आन्दोलन से जुड़कर दो बार जेल यात्रा भी की। बाद में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। अपने शैक्षणिक काल में वे पुरातन विभाग प्रयाग तथा लखनऊ के अध्यक्ष, बिड़ला, कॉलेज, पिलानी के प्राध्यापक; इन्स्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज़, हैदराबाद के निदेशक; विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष रहे। संयुक्त राज्य अमरीका और यूरोप के अनेक विश्वविद्यालयों के विजिटिंग प्रोफेसर होने के साथ देश-विदेश के कई सम्मेलनों की उन्होंने अध्यक्षता भी की नगरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हिन्दी विश्वकोश को उन्होंने सम्पादन किया है। सन् 1982 तक वे मारीशस में भारत के उच्चायुक्त पद पर रहे।


उनकी कृतियाँ: कालिदास का भारत, इतिहास साक्षी है, कुछ फीचर कुछ एकांकी, ठूंठा आम, सागर की लहरों पर, कालिदास के सुभाषित, पुरातत्त्व का रोमांस, सवेरा संघर्ष गर्जन, सांस्कृतिक निबन्ध, शेर बड़ा या मोर, बुद्धि का चमत्कार, भारत की मूर्तिकला की कहानी, भारत की संस्कृति की कहानी, भारतीय संगीत की कहानी, भारत के नगरों की कहानी, भारत के भवनों की कहानी, भारत की कहानी, भारत के पड़ोसी देश, भारत की नदियों की कहानी, भारत की चित्रकला की कहानी, भारत के साहित्यों की कहानी।


भगवतशरण उपाध्याय का व्यक्तित्व एक पुरातत्वज्ञ, इतिहासवेत्ता, संस्कृति मर्मज्ञ, विचारक, निबंधकार, आलोचक और कथाकार के रूप में जाना-माना जाता है। वे बहुज्ञ और विशेषज्ञ दोनों एक साथ थे। उनकी आलोचना सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के समन्वय की विशिष्टता के कारण महत्वपूर्ण मानी जाती है। संस्कृति की सामासिकता को उन्होंने अपने ऐतिहासिक ज्ञान द्वारा विशिष्ट अर्थ दिए हैं।


उन्‍होंने तीन खंडों में ‘भारतीय व्यक्तिकोश’ तैयार करने के अलावा नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा प्रकाशित ‘हिन्दी विश्वकोश’ के चार खंडों का संपादन भी किया। भगवतशरण उपाध्याय का साहित्य-लेखन आलोचना से लेकर कहानी, रिपोर्ताज़, नाटक, निबंध, यात्रावृत्त, बाल-किशोर और प्रौढ़ साहित्य तक विस्तृत है।

Sunday, 9 August 2020

पुण्‍यतिथि विशेष: वंचित समाज की आवाज रहे कवि मलखान सिंह

दलित और वंचित समाज की आवाज माने जाने वाले प्रसिद्ध कवि मलखान सिंह की आज पुण्‍यतिथि है। 30 सितंबर 1948 के दिन उत्तर प्रदेश के हाथरस में जन्मे मलखान सिंह का निधन 09 अगस्‍त 2019 को हुआ था। मलखान सिंह समाज में शोषितों की सशक्त आवाज थे। लोगों ने कहा कि वह एक अपने आप में आंदोलन थे।
कवि मलखान सिंह हिन्दी दलित कविता के महत्वपूर्ण स्तंभ थे। ‘सुनो ब्राह्मण’ कविता संग्रह से उन्होंने दलित कविता की भाषा शिल्प और कहने को नया अंदाज दिया था।
कवि मलखान सिंह का जाना सामाजिक न्याय की एक बुलंद आवाज का चले जाना है। सोशल मीडिया पर लोगों ने उन्हें क्रांतिकारी बताते हुए नमन किया है। उनकी कुछ प्रमुख कृतियां हैं- सफेद हाथी, सुनो ब्राह्मण, एक पूरी उम्र, पूस का एक दिन, आजादी और ज्वालामुखी के मुहाने। कथाकार कैलाश वानखड़े ने कहा कि कवि मलखान सिंह नहीं रहे। दलित आवाज और आक्रोश की अमिट पहचान। विनम्र आदरांजलि।
मलखान सिंह की प्रमुख कविताएं…
सुनो ब्राह्मण
हमारे पसीने से बू आती है, तुम्हें।
तुम, हमारे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे दोनों मिल-बैठकर।
शाम को थककर पसर जाओ धरती पर
सूँघो खुद को
बेटों को, बेटियों को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को
बलवती होती है जो
देह की गंध से।
सफेद हाथी
गाँव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है।
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूँ ।
कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं।
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।
एक पूरी उम्र
यक़ीन मानिए
इस आदमख़ोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है।
लगता है कि बस अभी
ठकुराइसी मेंढ़ चीख़ेगी
मैं अधसौंच ही
खेत से उठ जाऊँगा
कि अभी बस अभी
हवेली घुड़केगी
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा
कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी-सी भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा
कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खाँसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बाँधकर मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा।
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