उन्मुक्त
वसन में प्रेम गहन,
कुछ कम मिलता
है
देह धवल में
काला मन
अक्सर दिखता
है
जो दिखे नहीं
वही बीज
अंकुर दे पाता
है
तन जल जाता
पर मन को
कौन जला पाता
है
अभी और कितनी
यात्रायें हमको
करनी हैं यूं
ही शब्दों पर चलकर
अंकुर से पहले
जो जड़ था
चैतन्य उसे
अब करना है
उर में बैठे
श्वासों को
निज मान के
रस से रचकर
बस कैसे भी
अविरल
सिंचित करते
रहना है
- अलकनंदा सिंह