Wednesday, 31 July 2013

मन-स्‍पंदन में तुम.

नहीं जानते क्‍या सखा तुम..
जिस धड़कन में तुम बसते हो
नित नये बहानों से डसते हो
दिल के टुकड़े टुकड़े करते हो..
छाती की वो उड़ती किरचें
नभ को छूने जाती हैं
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,

पायल और तुम्‍हारी साजिश
खूब समझ आती है सखा
वो चुप हैं.. तुम हंसते हो
क्‍या घोला है मन-स्‍पंदन में,

आज तुम्‍हारी साजिश्‍ा का मैं
हिस्‍सा नहीं बनने वाली
पीठ दिखाकर कहते हो ये
आदत तो मेरी बचपन वाली,

कुंती- कुब्‍जा- रुकमणी नहीं मैं
याचक बनकर नहीं जिऊंगी
तेरे हर स्‍पंदन में घुलकर
उन किरचों के संग बहूंगी...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,

धारा संग तो सब बहते हैं
उल्‍टी जो बहती - वही सखी मैं 
पग से बहकर मन तक पहुंचूं
मुझे कामना नहीं रास की
मैं तो उन किरचों में ही खुश हूं...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में।
-अलकनंदा सिंह

Tuesday, 16 July 2013

हे जनता के ईश्‍वर ...संभलो..!

हे जनता के ईश्‍वर ! 
क्‍या तुम अब भी यहीं हो ...इसी धरती पर
क्‍या तुम भी लेते हो श्‍वास...इसी धरती पर
तो, क्‍या तुम देख नहीं पा रहे
ये चीत्‍कार ये कोलाहल..इच्‍छाओं का
ये घंटे-- ये घड़ियाल--ये व्रत--ये उपवास,
छापा टीका वालों का नाद निनाद
काश ! तुम पढ़ पाते वे कालेकाले अक्षर
जो पुराणों से निकाल तुम्‍हें
कण कण में बैठा गये
और ऐसा करने का प्रतिदान भी-
मिल गया इन अक्षरों को,
कहा गया इन्‍हें ब्रह्म का स्‍वरूप,
इन्‍हीं से मिला इतना मान कि -
तुम्‍हें अभिमान हो गया ईश्‍वरत्‍व का ।
यदि तुम ईश्‍वर होते - कण कण में बैठे
तो क्‍या बन पाते तुम
भेड़ियों से उधेड़ी जा रही
उस औरत की चीख,
तो क्‍या तुम सुन नहीं पा रहे थे
वीभत्‍स क्षणों का वो आर्तनाद,
नहीं सुना होगा उस औरत का -
करुण क्रंदन तुमने
कैसे सुनते...तुम तो ईश्‍वर भी उसके जो
पहले तुम्‍हें अर्पण सब कर दे
बदले में तुम तिनका बन कर
कर डालो अहसान और पा लो ईश्‍वरत्‍व का
एक और मान
फिर कैसे ईश्‍वर तुम...
ईश्‍वर व्‍यापार नहीं करता
तुम तो ठेठ व्‍यापारी हो, भावनाओं का करते हो धंधा
देवालय में नहीं बैठ...
पीठ से चिपके पेटों को
भोजन दिलवाते...
पर नहीं कर सके ऐसा तुम
उस उधड़ती औरत से ..इन भूखे पेटों से..हुई भूल
जो तुमको नहीं सके पूज
बचाते रहे अपना स्‍वाभिमान
चूर करते रहे तुम्‍हारा अभिमान
अब भी समझो...ऐसा बहुत दिनों न चलने वाला
हे जनता के ईश्‍वर
संभलो...अभी भी वक्‍त है बाकी
देवालयों से निकलकर तो देखो
पीड़ाओं को देख जो हो रहे आनंदित
किसी हृदय तक पहुंचकर तो  देखो
किसी की चीत्‍कार बन कर तो देखो
किसी आंसू बन ढलक कर तो देखो
किसी का स्‍पंदन बनकर तो देखो
..देखो तुम सच के ईश्‍वर बनकर
कि आज समय है कितना दुष्‍कर
आओ और सिद्ध कर दो कि
अब भी ईश्‍वर आता है ...
लाज बचाने, मान तोड़ने, दो जून की रोटी देने
आओ...और देखो कैसे बना जाता है ईश्‍वर..
देवालयों में नहीं,  
हे जनता के ईश्‍वर ...दिलों में बैठ सको...
 कुछ ऐसे आओ...वरना तुम समझ सकते हो ...
जब तक पूजा जाता है वह तब तक ही ईश्‍वर रहता है।
- अलकनंदा सिंह



Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...