लफ़्जों से मोहब्बत का रूहानी दीदार कराने वाली अदब की किसी शख्शियत का अगर नाम लेना हो तो सबसे पहला नाम आता है अमृता प्रीतम का ... आज उनका जन्मदिन है।
आधुनिक तकनीकी युग में आंतरिक सूनेपन को अमृता प्रीतम ने जिस सघनता से अपनी कविताओं में उकेरा है , उसका आज भी कोई सानी नहीं।
कागज ते कैनवास उनकी ऐसी ही एक विशिष्ठ कृति है। यह विशिष्ठ कृति के माध्यम से पंजाबी से अनूदित होकर ये कविताएं, जिसमें अमृता जी ने विभाजन के दौरान अपने भोगे हुए क्षणों को वाणी दी है।
आज अमृता प्रीतम की जयंती पर उनके कागज ते कैनवास से चुनी हुई कुछ कविताएं-
1.
एक मुलाकात
कई बरसों के बाद अचानक एक मुलाकात
हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह काँपे ..
सामने एक पूरी रात थी
पर आधी नज़्म एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज़्म एक कोने में बैठी रही
फिर सुबह सवेरे
हम काग़ज़ के फटे हुए टुकड़ों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाँह में मेरी बाँह डाली
और हम दोनों एक सैंसर की तरह हँसे
और काग़ज़ को एक ठंडे मेज़ पर रखकर
उस सारी नज्म पर लकीर फेर दी
2.
एक घटना
तेरी यादें
बहुत दिन बीते जलावतन हुई
जीती कि मरीं-कुछ पता नहीं।
सिर्फ एक बार-एक घटना घटी
ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी
और इतनी स्तब्ध थी
कि पत्ता भी हिले
तो बरसों के कान चौंकते।
फिर तीन बार लगा
जैसे कोई छाती का द्वार खटखटाये
और दबे पाँव छत पर चढ़ता कोई
और नाखूनों से पिछली दीवार को कुरेदता
तीन बार उठकर मैंने साँकल टटोली
अंधेरे को जैसे एक गर्भ पीड़ा थी
वह कभी कुछ कहता और कभी चुप होता
ज्यों अपनी आवाज को दाँतों में दबाता
फिर जीती जागती एक चीज़
और जीती जागती आवाज़ ।
‘मैं काले कोसों से आई हूँ
प्रहरियों की आँख से इस बदन को चुराती
धीमे से आती
पता है मुझे कि तेरा दिल आबाद है
पर कहीं वीरान सूनी कोई जगह मेरे लिए !
सूनापन बहुत है पर तू...’
चौंक कर मैंने कहा-
"तू जलावतन नहीं कोई जगह नहीं
मैं ठीक कहती हूं कि कोई जगह नहीं तेरे लिए
यह मेरे मस्तक, मेरे आका का हुक्म है"
और फिर जैसे सारा अँधियारा काँप जाता है
वह पीछे को लौटी
पर जाने से पहले कुछ पास आई
और मेरे वजूद को एक बार छुआ
धीरे से
ऐसे, जैसे कोई वतन की मिट्टी को छूता है -
3.
खाली जगह
सिर्फ दो रजवाड़े थे
एक ने मुझे और उसे बेदखल किया था
और दूसरे को हम दोनों ने त्याग दिया था.
नग्न आकाश के नीचे-
मैं कितनी ही देर-
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा.
फिर बरसों के मोह को -
एक जहर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से मेरा हाथ पकड़ा
चल ! क्षणों के सिर पर एक छत डालें
वह देख ! परे- सामने, उधर
सच और झूठ के बीच कुछ जगह खाली है-
4.
विश्वास
एक अफवाह बड़ी काली
एक चमगादड़ की तरह मेरे कमरे में आई है
दीवारों से टकराती
और दरारें, सुराख और सुराग ढूंढने
आँखों की काली गलियाँ
मैंने हाथों से ढक ली है
और तेरे इश्क़ की मैंने कानों में रुई लगा ली है.
आधुनिक तकनीकी युग में आंतरिक सूनेपन को अमृता प्रीतम ने जिस सघनता से अपनी कविताओं में उकेरा है , उसका आज भी कोई सानी नहीं।
कागज ते कैनवास उनकी ऐसी ही एक विशिष्ठ कृति है। यह विशिष्ठ कृति के माध्यम से पंजाबी से अनूदित होकर ये कविताएं, जिसमें अमृता जी ने विभाजन के दौरान अपने भोगे हुए क्षणों को वाणी दी है।
आज अमृता प्रीतम की जयंती पर उनके कागज ते कैनवास से चुनी हुई कुछ कविताएं-
1.
एक मुलाकात
कई बरसों के बाद अचानक एक मुलाकात
हम दोनों के प्राण एक नज्म की तरह काँपे ..
सामने एक पूरी रात थी
पर आधी नज़्म एक कोने में सिमटी रही
और आधी नज़्म एक कोने में बैठी रही
फिर सुबह सवेरे
हम काग़ज़ के फटे हुए टुकड़ों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया
उसने अपनी बाँह में मेरी बाँह डाली
और हम दोनों एक सैंसर की तरह हँसे
और काग़ज़ को एक ठंडे मेज़ पर रखकर
उस सारी नज्म पर लकीर फेर दी
2.
एक घटना
तेरी यादें
बहुत दिन बीते जलावतन हुई
जीती कि मरीं-कुछ पता नहीं।
सिर्फ एक बार-एक घटना घटी
ख्यालों की रात बड़ी गहरी थी
और इतनी स्तब्ध थी
कि पत्ता भी हिले
तो बरसों के कान चौंकते।
फिर तीन बार लगा
जैसे कोई छाती का द्वार खटखटाये
और दबे पाँव छत पर चढ़ता कोई
और नाखूनों से पिछली दीवार को कुरेदता
तीन बार उठकर मैंने साँकल टटोली
अंधेरे को जैसे एक गर्भ पीड़ा थी
वह कभी कुछ कहता और कभी चुप होता
ज्यों अपनी आवाज को दाँतों में दबाता
फिर जीती जागती एक चीज़
और जीती जागती आवाज़ ।
‘मैं काले कोसों से आई हूँ
प्रहरियों की आँख से इस बदन को चुराती
धीमे से आती
पता है मुझे कि तेरा दिल आबाद है
पर कहीं वीरान सूनी कोई जगह मेरे लिए !
सूनापन बहुत है पर तू...’
चौंक कर मैंने कहा-
"तू जलावतन नहीं कोई जगह नहीं
मैं ठीक कहती हूं कि कोई जगह नहीं तेरे लिए
यह मेरे मस्तक, मेरे आका का हुक्म है"
और फिर जैसे सारा अँधियारा काँप जाता है
वह पीछे को लौटी
पर जाने से पहले कुछ पास आई
और मेरे वजूद को एक बार छुआ
धीरे से
ऐसे, जैसे कोई वतन की मिट्टी को छूता है -
3.
खाली जगह
सिर्फ दो रजवाड़े थे
एक ने मुझे और उसे बेदखल किया था
और दूसरे को हम दोनों ने त्याग दिया था.
नग्न आकाश के नीचे-
मैं कितनी ही देर-
तन के मेंह में भीगती रही,
वह कितनी ही देर
तन के मेंह में गलता रहा.
फिर बरसों के मोह को -
एक जहर की तरह पीकर
उसने काँपते हाथों से मेरा हाथ पकड़ा
चल ! क्षणों के सिर पर एक छत डालें
वह देख ! परे- सामने, उधर
सच और झूठ के बीच कुछ जगह खाली है-
4.
विश्वास
एक अफवाह बड़ी काली
एक चमगादड़ की तरह मेरे कमरे में आई है
दीवारों से टकराती
और दरारें, सुराख और सुराग ढूंढने
आँखों की काली गलियाँ
मैंने हाथों से ढक ली है
और तेरे इश्क़ की मैंने कानों में रुई लगा ली है.