आज साहित्यकार ज्योति खरे का जन्मदिन है, 5 जुलाई, 1956 को जन्मे श्री खरे अपने बारे में बताते हुए लिखते हैं – “...अम्मा ने सिखाया कि भोग रहे यथार्थ को सहना पड़ता है। सम्मान और अपमान होते क्षणों में मौन रहकर समय को परखना पड़ता है...आदमी के भीतर पल रहे आदमी का यही सच है। और आदमी होने का सुख भी यही है।”
आज इतने वर्षों बाद वो सोशल मीडिया के सबसे ज़्यादा फ़ॉलो किए जाने वाले शीर्ष कवियों में से एक हैं, और विगत तीस-एक वर्षों से भारत के लगभग सभी प्रिन्ट मीडिया में छप चुके हैं। दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी वो पिछले तीन दशकों से अनवरत प्रसारित हो रहे हैं।
पढ़िए उनकी ये कवितायें
1.
जीवन के खेल में साँस रखी दाँव
दहशत की
धुन्ध से घबराया गाँव
भगदड़ में भागी धूप
और छाँव
अपहरण
गुण्डागिरी, खेत की सुपारी
दरकी ज़मीन पर मुरझी फुलवारी
मिट्टी को पूर रहे छिले
हुऐ पाँव
कटा फटा
जीवन खूँटी पर लटका
रोटी की खातिर गली-गली भटका
जीवन के खेल में साँस
रखी दाँव
प्यासों का
सूखा इकलौता कुआँ
उड़ रहा लाशों का मटमैला धुआँ
चुल्लू भर झील में डूब
रही नाँव।
2. उँगलियाँ सी लें
सूख गई सदियों की
भरी हुई झीलें
भूमिगत गिनते हैं
खपरीली कीलें
दीमकों को खा रहा
भूखा कबूतर
छेदता आकाश
पालतू तीतर
पर कटे कैसे उड़ें
पली हुई चीलें
कौन देखे बार-बार
बिके हुए जिराफ़
गोंद से चिपका नहीं
छिदा हुआ लिहाफ़
खिन्नियों की सोचकर
नीम छीलें
आवरण छोटा पड़ेगा
एक तरफ़ा ढाँकने में
छिपकली सफल है
दृष्टियों को आँकने में
बढ़ न पाएँ पोर सीमित
उँगलियाँ सी लें।
3. टपकी नीम जेठ मास में
अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम नीम के नीचे
तपती गरमी जेठ मास में
प्यास प्यार की लगी हुई
होंठ माँगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना
रूप साँवला हवा छू रही
महकी नीम जेठ मास में
बोली अनबोली आंखें
पता माँगती घर का
लिखा धूप में उँगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़क ढूँढ़ती
पिघली नीम जेठ मास में
स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग़ खिले जब
टपकी नीम जेठ मास में।
प्रस्तुति - अलकनंदा सिंंह
आज इतने वर्षों बाद वो सोशल मीडिया के सबसे ज़्यादा फ़ॉलो किए जाने वाले शीर्ष कवियों में से एक हैं, और विगत तीस-एक वर्षों से भारत के लगभग सभी प्रिन्ट मीडिया में छप चुके हैं। दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी वो पिछले तीन दशकों से अनवरत प्रसारित हो रहे हैं।
पढ़िए उनकी ये कवितायें
1.
जीवन के खेल में साँस रखी दाँव
दहशत की
धुन्ध से घबराया गाँव
भगदड़ में भागी धूप
और छाँव
अपहरण
गुण्डागिरी, खेत की सुपारी
दरकी ज़मीन पर मुरझी फुलवारी
मिट्टी को पूर रहे छिले
हुऐ पाँव
कटा फटा
जीवन खूँटी पर लटका
रोटी की खातिर गली-गली भटका
जीवन के खेल में साँस
रखी दाँव
प्यासों का
सूखा इकलौता कुआँ
उड़ रहा लाशों का मटमैला धुआँ
चुल्लू भर झील में डूब
रही नाँव।
2. उँगलियाँ सी लें
सूख गई सदियों की
भरी हुई झीलें
भूमिगत गिनते हैं
खपरीली कीलें
दीमकों को खा रहा
भूखा कबूतर
छेदता आकाश
पालतू तीतर
पर कटे कैसे उड़ें
पली हुई चीलें
कौन देखे बार-बार
बिके हुए जिराफ़
गोंद से चिपका नहीं
छिदा हुआ लिहाफ़
खिन्नियों की सोचकर
नीम छीलें
आवरण छोटा पड़ेगा
एक तरफ़ा ढाँकने में
छिपकली सफल है
दृष्टियों को आँकने में
बढ़ न पाएँ पोर सीमित
उँगलियाँ सी लें।
3. टपकी नीम जेठ मास में
अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम नीम के नीचे
तपती गरमी जेठ मास में
प्यास प्यार की लगी हुई
होंठ माँगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना
रूप साँवला हवा छू रही
महकी नीम जेठ मास में
बोली अनबोली आंखें
पता माँगती घर का
लिखा धूप में उँगली से
ह्रदय देर तक धड़का
कोलतार की सड़क ढूँढ़ती
पिघली नीम जेठ मास में
स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते
आशाओं के बाग़ खिले जब
टपकी नीम जेठ मास में।
प्रस्तुति - अलकनंदा सिंंह