Thursday, 28 May 2020

ब्रजभाषा और पिंगल के मर्मज्ञ थे साहित्‍यकार एवं कवि पद्मश्री गोपाल प्रसाद व्‍यास

ब्रजभाषा और पिंगल के मर्मज्ञ साहित्‍यकार एवं कवि पद्मश्री गोपाल प्रसाद व्‍यास की आज पुण्‍यतिथि है। 13 फरवरी 1915 को मथुरा जिले के कस्‍बा गोवर्धन अंतर्गत पारसौली गांव में पैदा हुए पंडित गोपालप्रसाद व्यास हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार थे। उनका निधन 28 मई 2005 को दिल्‍ली में हुआ।
पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था। इस भाषा में चारण परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।

व्यास को भारत सरकार ने पद्मश्री, दिल्ली सरकार ने शलाका सम्मान और उत्तर प्रदेश सरकार ने यश भारती सम्मान से विभूषित किया था।
दिल्ली के हिंदी भवन का निर्माण कराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। लाल किले पर हर वर्ष होने वाले राष्ट्रीय कवि सम्मेलन की शुरुआत में उनकी अहम भूमिका मानी जाती है।
गोपाल प्रसाद व्‍यास की प्रारंभिक शिक्षा पहले पारसौली के निकट भवनपुरा में हुई और उसके बाद अथ से इति तक मथुरा में केवल कक्षा सात तक। स्वतंत्रता-संग्राम के कारण उसकी भी परीक्षा नहीं दे सके और स्कूली शिक्षा समाप्त हो गई। गोपाल प्रसाद व्‍यास ने पिंगल की पढ़ाई स्व. नवनीत चतुर्वेदी से की। अंलकार, रस-सिद्धांत आदि सेठ कन्हैयालाल पोद्दार से पढ़े। नायिका भेद का ज्ञान सैंया चाचा से और पुरातत्व, मूर्तिकला, चित्रकला आदि का डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल से। विशारद और साहित्यरत्न का अध्ययन तथा हिन्दी के नवोन्मेष का पाठ पढ़ा डॉ. सत्येन्द्र से।
गोपाल प्रसाद व्‍यास पत्रकारिता के क्षेत्र में भी खूब सक्रिय रहे। वे ‘साहित्य संदेश’ आगरा, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ दिल्ली, ‘राजस्थान पत्रिका’ जयपुर, ‘सन्मार्ग’, कलकत्ता में संपादन तथा दैनिक ‘विकासशील भारत’ आगरा के प्रधान संपादक रहे। स्तंभ लेखन में भी सन्‌ 1937 से अंतिम समय तक निरंतर संलग्न रहे।
इसके अलावा व्‍यास जी ने ब्रज साहित्य मंडल मथुरा के संस्थापक और मंत्री से लेकर अध्यक्ष तक का दायित्‍व निभाया। दिल्ली हिन्दी साहित्य सम्मेलन के संस्थापक और 35 वर्षों तक महामंत्री और अंत तक संरक्षक। श्री पुरुषोत्तम हिन्दी भवन न्यास समिति के संस्थापक महामंत्री के पद पर अंत तक रहे। लाल किले के ‘राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन’ और देशभर में होली के अवसर पर ‘मूर्ख महासम्मेलनों’ के जन्मदाता और संचालक भी व्‍यास जी ही थे।

पढ़िए गोपाल प्रसाद व्‍यास की कुछ चुनिंदा रचनाएं:
बुद्धिप्रकाश, विद्यासागर?
पर अब कुछ दिन को कहा मान,
तुम लाला मूसलचंद बनो!
अब मूर्ख बनो, मतिमंद बनो!
यदि मूर्ख बनोगे तो प्यारे,
दुनिया में आदर पाओगे।
जी, छोड़ो बात मनुष्यों की,
देवों के प्रिय कहलाओगे!
लक्ष्मीजी भी होंगी प्रसन्न,
गृहलक्ष्मी दिल से चाहेंगी।
हर सभा और सम्मेलन के
अध्यक्ष बनाए जाओगे!
पढ़ने-लिखने में क्या रक्खा,
आंखें खराब हो जाती हैं।
चिंतन का चक्कर ऐसा है,
चेतना दगा दे जाती है।
इसलिए पढ़ो मत, सोचो मत,
बोलो मत, आंखें खोलो मत,
तुम अब पूरे स्थितप्रज्ञ बनो,
सच्चे संपूर्णानन्द बनो ।
अब मूर्ख बनो, मतिमंद बनो!
मत पड़ो कला के चक्कर में,
नाहक ही समय गंवाओगे।
नाहक सिगरेटें फूंकोगे,
नाहक ही बाल बढ़ाओगे ।
पर मूर्ख रहे तो आस-पास,
छत्तीस कलाएं नाचेंगी,
तुम एक कला के बिना कहे ही,
छह-छह अर्थ बताओगे।
सुलझी बातों को नाहक ही,
तुम क्यों उलझाया करते हो?
उलझी बातों को अमां व्यर्थ में,
कला बताया करते हो!
ये कला, बला, तबला, सारंगी,
भरे पेट के सौदे हैं,
इसलिए प्रथमतः चरो,
पुनः विचरो, पूरे निर्द्वन्द्व बनो,
अब मूर्ख बनो, मतिमंद बनो!
हे नेताओ, यह याद रखो,
दुनिया मूर्खों पर कायम है
मूर्खों की वोटें ज्यादा हैं,
मूर्खों के चंदे में दम है।
हे प्रजातंत्र के परिपोषक,
बहुमत का मान करे जाओ!
जब तक हम मूरख जिन्दा हैं,
तब तक तुमको किसका ग़म है?
इसलिए भाइयो, एक बार
फिर बुद्धूपन की जय बोलो !
अक्कल के किवाड़ बंद करो,
अब मूरखता के पट खोलो।
यह विश्वशांति का मूलमंत्र,
यह राम-राज्य की प्रथम शर्त,
अपना दिमाग गिरवीं रखकर,
खाओ, खेलो, स्वच्छंद बनो!
अब मूर्ख बनो, मतिमंद बनो!
-Legend News

Wednesday, 27 May 2020

राजनांदगांव की तीन हिंदी त्रिवेणी धाराओं में से एक - डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

Jayanti Special: Literature Dr. Padumlal Punnalal Bakshi

‘मास्टरजी’ के नाम से से प्रख्‍यात हिंदी के लेखक और निबंधकार डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्‍म 
27 मई 1894 को छत्तीसगढ़ के राजनंदगांव में हुआ था।
राजनांदगांव की तीन हिंदी त्रिवेणी धाराओं में से एक डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की त्रिवेणी परिसर में ही उनके सम्मान में मूर्तियां स्थापित हैं।
उनके पिता पुन्नालाल बख्शी खैरागढ़ (राजनंदगांव) के प्रतिष्ठित परिवारों में से थे। इनके बाबा का नाम ‘श्री उमराव बख्शी’ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा मप्र के प्रथम मुख्‍यमंत्री पं. रविशंकर शुक्‍ल जैसे मनीषियों के सानिध्‍य में विक्‍टोरिया हाई स्‍कूल, खैरागढ में हुई थी।
प्रारंभ से ही प्रखर पदुमलाल पन्‍नालाल बख्‍शी की प्रतिभा को खैरागढ़ के ही इतिहासकार लाल प्रद्युम्‍न सिंह जी ने समझा एवं बख्‍शी जी को साहित्‍य सृजन के लिए प्रोत्‍साहित किया। प्रतिभावान बख्‍शी जी ने बनारस हिन्‍दू कॉलेज से बीए किया और एलएलबी करने लगे किन्‍तु वे साहित्‍य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता एवं समयाभाव के कारण एलएलबी पूरी नहीं कर पाए।
जबलपुर से निकलने वाली ‘हितकारिणी’ में बख्शी की प्रथम कहानी ‘तारिणी’ प्रकाशित हुई थी।
पदुमलाल पन्नालाल बख्शी ने अध्यापन तथा संपादन लेखन के क्षेत्र में कार्य किए। उन्होंने कविताएँ, कहानियाँ और निबंध सभी कुछ लिखा हैं पर उनकी ख्याति विशेष रूप से निबंधों के लिए ही है। उनका पहला निबंध ‘सोना निकालने वाली चींटियाँ’ सरस्वती में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने राजनांदगाँव के स्टेट हाई स्कूल में सर्वप्रथम 1916 से 1919 तक संस्कृत शिक्षक के रूप में सेवा की। दूसरी बार 1929 से 1949 तक खैरागढ़ विक्टोरिया हाई स्कूल में अंगरेज़ी शिक्षक के रूप में नियुक्त रहे। कुछ समय तक उन्होंने कांकेर में भी शिक्षक के रूप में काम किया। सन् 1920 में सरस्वती के सहायक संपादक के रूप में नियुक्त किये गये और एक वर्ष के भीतर ही 1921 में वे सरस्वती के प्रधान संपादक बनाये गये जहाँ वे अपने स्वेच्छा से त्यागपत्र देने (1925) तक उस पद पर बने रहे। 1927 में पुनः उन्हें सरस्वती के प्रधान संपादक के रूप में ससम्मान बुलाया गया। दो साल के बाद उनका साधु मन वहाँ नहीं रम सका, उन्होंने इस्तीफा दे दिया। कारण था- संपादकीय जीवन के कटुतापूर्ण तीव्र कटाक्षों से क्षुब्ध हो उठना। उन्होंने 1952 से 1956 तक महाकौशल के रविवासरीय अंक का संपादन कार्य भी किया तथा 1955 से 1956 तक खैरागढ में रहकर ही सरस्वती का संपादन कार्य किया। तीसरी बार 20 अगस्त 1959 में दिग्विजय कॉलेज राजनांदगाँव में हिंदी के प्रोफेसर बने और जीवन पर्यन्त वहीं शिक्षकीय कार्य करते रहे।
28 दिसंबर 1971 को छत्तीसगढ़ के ही रायपुर में उनकी मृत्‍यु हुई।

पढ़ि‍ए उनकी कव‍िताऐं-

पदुमलाल पन्नालाल बख्शी की कव‍िता : मातृ मूर्ति

क्या तुमने मेरी माता का देखा दिव्याकार,
उसकी प्रभा देख कर विस्मय-मुग्ध हुआ संसार ।।

अति उन्नत ललाट पर हिमगिरि का है मुकुट विशाल,
पड़ा हुआ है वक्षस्थल पर जह्नुसुता का हार।।

हरित शस्य से श्यामल रहता है उसका परिधान,
विन्ध्या-कटि पर हुई मेखला देवी की जलधार।।

भत्य भाल पर शोभित होता सूर्य रश्मि सिंदूर,
पाद पद्म को को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार।.

सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
पाद पद्म को प्रक्षालित है करता सिंधु अपार ।।

सौम्य वदन पर स्मित आभा से होता पुष्प विराम,
जिससे सब मलीन पड़ जाते हैं रत्नालंकार ।।

दयामयी वह सदा हस्त में रखती भिक्षा-पात्र,
जगधात्री सब ही का उससे होता है उपकार ।।

देश विजय की नहीं कामना आत्म विजय है इष्ट ,
इससे ही उसके चरणों पर नत होता संसारा ।।

एक बाल कव‍िता : बुढ़‍िया

बुढ़िया चला रही थी चक्की,
पूरे साठ वर्ष की पक्की।
दोने में थी रखी मिठाई,
उस पर उड़कर मक्खी आई।
बुढ़िया बाँस उठाकर दौड़ी,
बिल्ली खाने लगी पकौड़ी।
झपटी बुढ़िया घर के अंदर,
कुत्ता भागा रोटी लेकर।
बुढ़िया तब फिर निकली बाहर,
बकरा घुसा तुरत ही भीतर।
बुढ़िया चली, गिर गया मटका,
तब तक वह बकरा भी सटका।
बुढ़िया बैठ गई तब थककर,
सौंप दिया बिल्ली को ही घर।


Sunday, 24 May 2020

अगर तुम राधा होते श्याम मेरी तरह बस आठों पहर तुम...काजी नज़रुल इस्लाम


अविभाजित भारत में पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिला अंतर्गत चुरुलिया गांव में 24 मई 1899 को जन्‍मे और फिर बंग्लादेश के राष्ट्रीय कवि की उपाधि से विभूषित काजी नज़रुल इस्लाम न सिर्फ अग्रणी बांग्ला कवि बल्‍कि संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा और दार्शनिक भी थे.
वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार और देशप्रेमी कवि थे. पश्चिम बंगाल और बंग्‍लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गान को समान आदर प्राप्त है. उनकी कविता में विद्रोह के स्वर होने के कारण उनको ‘विद्रोही कवि’ के नाम से जाना जाता है. उनकी कविता का वर्ण्यविषय ‘मनुष्य के ऊपर मनुष्य का अत्याचार’ तथा ‘सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद’.
उनकी प्राथमिक शिक्षा धार्मिक (मजहबी) शिक्षा के रूप में हुई. किशोरावस्था में विभिन्न थिएटर दलों के साथ काम करते-करते उन्होने कविता, नाटक एवं साहित्य के सम्बन्ध में सम्यक ज्ञान प्राप्त किया.
नजरुल ने लगभग तीन हजार गानों की रचना की तथा साथ ही अधिकांश को स्वर भी दिया. इनको आजकल ‘नजरुल संगीत’ या “नजरुल गीति” नाम से जाना जाता है. अधेड़ उम्र में वे ‘पिक्स रोग’ से ग्रसित हो गए जिसके कारण शेष जीवन वे साहित्यकर्म से अलग हो गए. बांग्‍लादेश सरकार के आमन्त्रण पर वे १९७२ में सपरिवार ढाका आये. उस समय उनको बंग्‍लादेश की राष्ट्रीयता प्रदान की गई। यहीं उनकी मृत्यु हुई.
दुक्खू मियां नाम क्यों पड़ा छुटपन में
काज़ी नज़रुल इस्लाम के पिता काज़ी फकीर अहमद इमाम थे. एक मस्जिद की देखभाल करते थे. नज़रुल बचपन में काफी खोए-खोए रहते थे. इसके चलते रिश्तेदार इन्हें ‘दुक्खू मियां’ पुकारने लगे.
नज़रुल ने शुरुआती तालीम में कुरआन, हदीस और इस्लामी फलसफे को पढ़ा. जब वो सिर्फ 10 साल के थे, उनके पिता की मौत हो गई. परिवार को सपोर्ट करने के लिए नजरूल पिता की जगह मस्जिद में बतौर केयरटेकर काम करने लगे. अज़ान देने का काम भी उनके जिम्मे था. इस काम को करने वाले को मुअज़्ज़िन कहते हैं. इसके अलावा वो मदरसे के मास्टरों के काम भी करते. अपनी तालीम भी इस दौरान उन्होंने जारी रखी.
पुराणों का चस्का लगा तो शुरू हुए नाटक
ईमान की तालीम के बाद बारी आई म्यूजिक और लिटरेचर की. नजरूल ने चाचा फ़ज़ले करीम की संगीत मंडली जॉइन कर ली. ये मंडली पूरे बंगाल में घूमती और शो करती. नजरूल ने मंडली के लिए गाने लिखे. इस दौरान बांग्ला भाषा को लिखना सीखा. संस्कृत भी सीखी. और उसके बाद कभी बांग्ला, तो कभी संस्कृत में पुराण पढ़ने लगे.
इसका असर उनके लिखे पर नजर आने लगा. उन्होंने कई प्ले लिखे जो हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित थे. मसलन, ‘शकुनी का वध’, ‘युधिष्ठिर का गीत’, ‘दाता कर्ण’.
मुअज्जिन फौजी बन कराची पहुंचा
1917 में नजरूल ने ब्रिटिश आर्मी जॉइन कर ली. 49वीं बंगाल रेजिमेंट में भर्ती हुई. कराची में तैनाती मिली. नाटक छोड़ वह फौज में क्यों गए?
इस सवाल का जवाब उन्होंने ही लिखा. एक रोमांच की तलाश और दूसरी उस वक्त की पॉलिटिक्स में दिलचस्पी.
कराची कैंट में नज़रूल के पास ज्यादा काम नहीं था. अपनी बैरक में बैठ वह खूब पढ़ते. लेख और कविताएं लिखते. शुरुआत मादरी जबान बंगाली से हुई. रबिन्द्रनाथ टैगोर से लेकर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय तक को पढ़ गए. फिर कराची की हवा लगी. जहां उर्दू का जलवा था. जो फारसी और अरबी से पैदा हुई तो नजरूल ने रेजिमेंट के मौलवी से फारसी सीखी. फिर इस जबान के महान साहित्यकारों, रूमी और उमर खय्याम को पढ़ा. दो साल पढ़ने के बाद नजरूल ने अपना लिखा छपाने की सोची. साल 1919 में उनकी पहली किताब आई. गद्य की. टाइटल था, ‘एक आवारा की ज़िंदगी’. कुछ ही महीनों के बाद उनकी पहली कविता ‘मुक्ति’ भी छपी.
नर्गिस से शादी क्यों नहीं की
1920 में जब बंगाल रेजिमेंट भंग कर दी गई, वह कलकत्ता आ बसे. जल्द ही उनकी नर्गिस नाम की एक लड़की से सगाई हो गई. वह उस जमाने के मशहूर प्रकाशक अली अकबर ख़ान की भतीजी थीं. 18 जून 1921 को शादी होना तय हुआ. शादी वाले दिन नज़रुल पर ख़ान ने दबाव डाला कि वह एक कॉन्ट्रैक्ट साइन करें. इसमें लिखा था, शादी करने के बाद नजरूल हमेशा दौलतपुर में ही रहेंगे. नज़रुल को कोई शर्त मंज़ूर नहीं थी, लिहाजा उन्होंने निकाह से इंकार कर दिया.
विद्रोही कवि नाम कैसे पड़ा
1922 में काजी की एक कविता ने उन्हें पॉपुलर कर दिया. इतना कि उनका नाम भी बदल गया. कविता का शीर्षक था, ‘विद्रोही’. ‘बिजली’ नाम की मैगज़ीन में ये छपी. इसमें बागी तेवर थे. जल्द ही कविता अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे क्रांतिकारियों का प्रेरक गीत बन गई. इसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हो गया. नतीजतन वो अंग्रेजों को खटकने लगे और जनता के बीच ‘विद्रोही कवि’ के नाम से मशहूर हो गए. 29 अगस्‍त 1976 को बांग्‍लादेश की राजधानी ढाका में निधन हो गया.
कृष्ण भजन भी लिखा
नज़रुल ने न सिर्फ इस्लामिक मान्यताओं को मूल में रखकर रचनाएं की, बल्कि भजन, कीर्तन और श्यामा संगीत भी रचा. दुर्गा मां की भक्ति में गाया जाने वाला श्यामा संगीत समृद्ध करने में क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का बड़ा हाथ है. कृष्ण पर लिखे उनके भजन भी बहुत मशहूर हुए. पढ़िए उनके लिखे ऐसे ही एक भजन का हिंदी अनुवाद.
अगर तुम राधा होते श्याम
मेरी तरह बस आठों पहर तुम
रटते श्याम का नाम…
वन-फूल की माला निराली
वन जाति नागन काली
कृष्ण प्रेम की भीख मांगने
आते लाख जनम
तुम, आते इस बृजधाम…
चुपके चुपके तुमरे ह्रदय में
बसता बंसीवाला
और, धीरे धारे उसकी धुन से
बढ़ती मन की ज्वाला
पनघट में नैन बिछाए तुम,
रहते आस लगाए
और, काले के संग प्रीत लगाकर
हो जाते बदनाम…

Saturday, 23 May 2020

अन्नाराम सुदामा: ‘मेवे का रूंख’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार लेने वाले राजस्थानी साह‍ित्यकार


राजस्थानी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार अन्नाराम सुदामा का जन्म 23 मई 1923 में हुआ था। सुदामा ने राजस्थानी भाषा में साहित्य की कई विधाओं में रचनांए की हैं। उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, निबंध, नाटक, यात्रा स्मरण एवं बाल साहित्य लिखा है। उन्होंने अन्य कई विधाओं में 25 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं।


सुदामा जी का साहित्य अन्नाराम सुदामा समग्र के नाम से सात खण्डों में प्रकाशित किया गया था। सुदामा जी की साहित्यिक रचनांए विभिन्न विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती हैं। इनकी सबसे प्रमुख रचना का नाम है ‘मेवे का रूंख’ (मेवै रा रूंख) जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।

रूणिया बड़ा बांस में इस बालक के जन्म के समय अच्छा जमाना हुआ तो अकाल से पीड़ित अन्न की किल्लत भुगत रहे परिजनों ने नाम अन्नाराम रख दिया। स्कूल में गुरूजन की सुदामा के नाम की उपमा से बाद नाम के पीछे सुदामा जुड़ गया। राजस्थानी में लोक विधा के विजयदान देथा के दौर के सुदामा ने मौलिक लेखन के साथ राजस्थानी को ऊंचाई दी। साहित्यकार डॉ. मदन सैनी ने सुदामा के साहित्य पर डाक्टरेट भी करवाई है।


सुदामा जी ने कई रचनाएं की हैं जिसमें मैकती कायाः मुलकती धरती, आंधी अर आस्था, डंकीजता मानवी, घर-संसार, अचूक इलाज, आंधे नै आंख्यां, अचूक इलाज, गॉंव रो गौरव, बंधती अंवलाई, दूर-दिसावर, पिरोल में कुत्ती ब्याई, व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां इत्यादि। सुदामा जी को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया था जिसमें- केन्द्रीय साहित्य अकादमी दिल्ली में पुरस्कृत, मीरा पुरस्कार, सूर्यमल्ल मीसण, राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार, टैसीटोरी गद्य पुरस्कार इत्यादि। अन्नाराम सुदामा का निधन 2 जनवरी 2004 में हुआ था।


राजस्थानी भाषा और साहित्य को समृद्ध करने में जिन महान रचनाकारों का योगदान है, उनमें अन्नाराम सुदामा का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। राजस्थान के ग्रामीण जनजीवन में नित्य होने वाली घटनाओं को वे अत्यंत पारखी नजर से देखते हुए गहरी सामाजिक चेतना से सराबोर रचनाएं लिखते थे और यही उनके लेखन की विशेषता थी।


राजस्थान के ग्राम्य जीवन की संवेदना, मानवीय सरोकार और विविध छवियां आप अन्नाराम सुदामा के साहित्य से गुजरे बिना देख ही नहीं सकते। वे राजस्थानी के उन विरल साहित्यकारों में हैं, जिनके यहां अभावों में जीते मनुष्य की चेतना और विपरीत हालात से संघर्ष इतनी शिद्दत के साथ मौजूद होते हैं कि स्वयं पाठक भी एकबारगी लेखक और उसके 
अद्भुत जीवट वाले पात्रों के साथ खड़ा हो जाता है। 

अन्नाराम सुदामा के विपुल साहित्य में ‘सूझती दीठ, एक ऐसी कहानी है, जो अकाल से ग्रस्त एक सामान्य निर्धन ग्रामीण स्त्री के संघर्ष के बीच उसकी वैज्ञानिक दृष्टि को ही नहीं उसके नैतिक बल और साहस को बहुत गहराई के साथ रेखांकित करती है। पढ़े-लिखे पात्रों के माध्यम से चेतना जगाना आसान होता है, लेकिन सुदामा तो अपने निरक्षर पात्रों से ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण और समता-बंधुत्व की बात अत्यंत सहज रूप से पैदा कर देते हैं। इस एक कहानी से आप उनकी रचनात्मकता का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।

अन्नाराम सुदामा
जन्मः 23 मई, 1923
शिक्षाः एम.ए.
कृतियां
उपन्यास- मैकती कायाः मुळकती धरती, आंधी अर आस्था, मैवै रा रूंख, डंकीजता मानवी, घर-संसार और अचूक इलाज
कहानी संग्रह- आंधै नै आंख्यां और गळत इलाज
कविता- पिरोळ में कुत्ती ब्याई, व्यथा-कथा अर दूजी कवितावां
यात्रा संस्मरण- दूर-दिसावर
नाटक- बंधती अंवळाई
बाल उपन्यास- गांव रो गौरव
सम्मान पुरस्कार
केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार, सूर्यमल्ल मीसण पुरस्कार, मीरा सम्मान, सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान आदि कई पुरस्कार और सम्मान।

Wednesday, 20 May 2020

आज सुमित्रानंदन पंत के जन्‍मदिन पर पढ़िए उनकी दो कवितायें

आज तो सुमित्रानंदन पंत का जन्‍मदिन है, तो चलिए इसी बात पर हो जाए उनकी दो कविताऐं जो हमें अपनी जड़ों तक ले जायेंगी। वरना कौन ऐसा कर सकता है कि सात वर्ष की उम्र में, जब वे चौथी कक्षा में ही पढ़ रहे थे, उन्होंने कविता लिखना शुरु कर दिया था….।
सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। इस युग को जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और रामकुमार वर्मा जैसे कवियों का युग कहा जाता है। उनका जन्म उत्‍तराखंड के कौसानी, बागेश्वर में हुआ था। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब तो सहज रूप से काव्य का उपादान बने। निसर्ग के उपादानों का प्रतीक व बिम्ब के रूप में प्रयोग उनके काव्य की विशेषता रही। उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था। गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति,माथे पर पड़े हुए लंबे घुंघराले बाल,सुगठित शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था।
पहली कविता: तितली जिसका रचनाकाल: मई’१९३५ है…
नीली, पीली औ’ चटकीली
पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल,
प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही डोल?
चाँदी-सा फैला है प्रकाश,
चंचल अंचल-सा मलयानिल,
है दमक रही दोपहरी में
गिरि-घाटी सौ रंगों में खिल!
तुम मधु की कुसुमित अप्सरि-सी
उड़-उड़ फूलों को बरसाती,
शत इन्द्र चाप रच-रच प्रतिपल
किस मधुर गीति-लय में जाती?
तुमने यह कुसुम-विहग लिवास
क्या अपने सुख से स्वयं बुना?
छाया-प्रकाश से या जग के
रेशमी परों का रंग चुना?
क्या बाहर से आया, रंगिणि!
उर का यह आतप, यह हुलास?
या फूलों से ली अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु की मिठास?
चाँदी का चमकीला आतप,
हिम-परिमल चंचल मलयानिल,
है दमक रही गिरि की घाटी
शत रत्न-छाय रंगों में खिल!
–चित्रिणि! इस सुख का स्रोत कहाँ
जो करता निज सौन्दर्य-सृजन?
’वह स्वर्ग छिपा उर के भीतर’–
क्या कहती यही, सुमन-चेतन?
दूसरी कविता चींटी
चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।
सुमित्रानंदन पंत की इन दो ही कविताओं में अपना बचपन ढूढ़ने वाले हम उन्‍हें अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देते हैं।

Friday, 15 May 2020

प्रसिद्ध कहानीकार ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग की कहानी “पुर्जा”

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग को स्वीडिश उपन्यास का जनक माना जाता है। 

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग के प्रस‍िद्ध नाटक : मास्टर ओलोफ, द फादर (पिता), मिस जूलिया, क्रेडिटर्स (जिनका पैसा बकाया है) द डांस ऑफ डेथ (मृत्यु का नाच) आदि 60 नाटक

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग के उपन्यास : अलोन (एकाकी), द रेड रूम (लाल कमरा),  बाइ द ओपेन सी (खुले सागर के किनारे) आदि 30 से ज्यादा उपन्यास

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग के कहानी संग्रह : गेटिंग मैरिड (शादी करना), यूटोपियाज इन रियलिटी (वास्तविकताओं में स्वप्नलोक)

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग की आत्मकथा : द सन ऑफ अ सर्वेंट (नौकर का बेटा)
ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग द्वारा ल‍िखा निबंध : ऑन साइकिक मर्डर (मानसिक मृत्यु के बारे में) साह‍ित्य जगत की थाती है। 

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग का निधन 14 मई 1912 को हो गया । 


पढ़‍िए उनकी कहानी पुर्जा 

सामान की आखिरी खेप जा चुकी थी। किराएदार, क्रेपबैंड हैटवाला जवान आदमी, खाली कमरों में अंतिम बार पक्का करने के लिए घूमता है कि कहीं पीछे कुछ छूट तो नहीं गया। कुछ नहीं भूला, कुछ भी नहीं। वह बाहर सामने हॉल में गया। पक्का निश्चय करते हुए कि इन कमरों में जो कुछ भी उसके साथ हुआ वह उसे कभी याद नहीं करेगा। और अचानक उसकी नजर कागज के अधपन्ने पर पड़ी, जो पता नहीं कैसे दीवाल और टेलीफोन के बीच फ़ँसा रह गया था। कागज पर लिखावट थी। जाहिर है एक से ज्यादा लोगों की। कुछ प्रविष्टियाँ पेन और स्याही से बड़ी स्पष्ट थीं, जबकि बाकी दूसरी लेड पेंसिल से घसीटी हुई। यहाँ-वहाँ लाल पेंसिल का भी प्रयोग हुआ था। दो साल में उसके साथ इस घर में जो कुछ भी हुआ था, यह उन सबका रिकॉर्ड था। सारी चीजें, जिन्हें भूल जाने का उसने मन बनाया था, लिखी हुई थीं।



कागज के एक पुर्जे पर यह एक मनुष्य के जीवन का एक कतरा था।
उसने उस पेपर को निकाला; यह स्क्रिबलिंग पेपर का एक टुकड़ा था। पीला और सूरज की तरह चमकता हुआ। उसने उसे ड्राइंग रूम के कार्निश पर रख दिया और उस पर आँखें गड़ा दीं। लिस्ट के शीर्ष पर एक औरत का नाम था : ‘एलिस’। संसार में सबसे सुंदर नाम, जैसा उसे तब लगा था। क्योंकि यह उसकी मँगेतर का नाम था। नाम के बाद एक नंबर था : ‘1511’। लगता है यह बाइबिल के एक स्त्रोत का नंबर था, स्त्रोत बोर्ड पर। उसके नीचे लिखा था, ‘बैंक’। जहाँ उसका काम था, उसका पवित्र काम – जिसके द्वारा ही उसका मकान, उसकी रोटी और पत्नी, सब – उसके जीवन का आधार। परंतु शब्द पेन से कटा था। क्योंकि बैंक फेल हो गया था। हालाँकि उसने बाद में दूसरा काम पा लिया था। परंतु दुश्चिंता और बेचैनी के एक छोटे-से अंतराल के बाद।
अगली प्रविष्टि थी: ‘फूलों की दुकान और घोड़ों आदि का खर्च’। ये उसकी सगाई से संबंधित थे। जब उसकी जेबों में भरपूर पैसे थे।
तब आया, ‘फर्नीचर डीलर और पेपर हैंगर’। उसका घर सजाया जा रहा था। ‘फॉरवर्डिंग एजेंट’ – वे प्रवेश कर रहे थे। ‘ऑपेरा-हाउस का बॉक्स-ऑफ़िस, नंबर 50-50’ – उनकी नई-नई शादी हुई थी। इतवार की शामों को वे ऑपेरा जाते। उनके जीवन के खूब खुशी के दिन। जब वे शांत चुपचाप बैठते। उनकी आत्मा परी देश के सौंदर्य और लय में परदे के पीछे मिलती।
उसके पश्चात एक आदमी का नाम था, काटा हुआ। वह एक दोस्त हुआ करता था। उसकी जवानी का। एक आदमी जो सामाजिक तराजू पर बहुत ऊँचा चढ़ा, लेकिन गिरा। सफलता के मद में, सफलता से बिगड़ कर, गहन गर्त में। और फिर उसे देश छोड़ना पड़ा।
सौभाग्य इतना अस्थिर था!
अब, पति-पत्नी के जीवन में कुछ नया आया। अगली प्रविष्टि एक स्त्री की लिखावट में थी : नर्स। कौन-सी नर्स? हाँ, वही बड़े लबादे और सहानुभूतिपूर्ण चेहरेवाली। जो कभी ड्राइंग रूम से हो कर नहीं जाती बल्कि दालान से सीधे बेड रूम में जाती।
उसके नीचे लिखा था, डॉ. एल।
और अब, लिस्ट पर पहली बार कोई रिश्तेदार आया : ‘ममा’। यह उसकी सास थी। जो उनकी नई-नवेली खुशी को भंग न करने के लिए अब तक जानबूझ कर दूर थी। लेकिन अब उसकी जरूरत थी। वह आ कर खुश थी।
बहुत सारी प्रविष्टियाँ लाल और नीली पेंसिल से थीं: ‘नौकर रजिस्ट्री ऑफिस’ – नौकरानी छोड़ गई थी और एक नई को लगाना है। ‘केमिस्ट’ – हा! जीवन में कालिमा आ गई थी। डेयरी मिल्क का ऑर्डर दिया गया – ‘स्टेरेलाइज्ड दूध’!
‘कस्साई, किराना आदि।’ घर के काम टेलीफोन से हो रहे थे; मतलब मालकिन अपनी पोस्ट पर नहीं थी। नहीं, वह नहीं थी। वह लेटी हुई थी।
आगे क्या लिखा था वह पढ़ नहीं पाया। क्योंकि उसकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया; वह नमकीन पानी में से देखता हुआ एक डूबता हुआ आदमी था। फिर भी, वहाँ लिखा था, बहुत साफ़ : ‘अंडरटेकर – एक बड़ा ताबूत और एक छोटा ताबूत।’ और ‘धूल’ शब्द पद कोष्ठक में जुड़ा हुआ था।
पूरे रेकॉर्ड का यह अंतिम शब्द था ‘धूल’। धूल के साथ वह समाप्त हुआ! और ठीक-ठीक यही होता है जिंदगी में।
उसने पीला कागज लिया, उसे चूमा। कायदे से तहाया और अपनी पॉकेट में रख लिया।
दो मिनट में वह अपनी जिंदगी के दो वर्ष फिर से जी गया।
परंतु जब उसने घर छोड़ा वह हारा हुआ नहीं था। इसके विपरीत, एक प्रसन्न और गर्वित आदमी की तरह वह अपना सिर ऊँचा किए हुए था। क्योंकि वह जानता था कि जीवन की सर्वोत्तम चीजें उसे मिली थीं और उसे उन सब पर दया आई जिन्हें वे नहीं मिली थीं।
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