Wednesday, 26 February 2014

अवाक्.. पृथ्‍वी !

अवाक्.. पृथ्‍वी !
तुमने अवाक् कर दिया
पता नहीं पांव के नीचे से
ज़मीन कहां गई
जिस ज़मीन पर पड़ते हैं पांव
वही खिसक जाती है आगे
और आगे की ओर
खोने का यह कौन सा क्रम है
जिसे 'मुझसे' इतना प्रेम है
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दरवाजे...खिड़कियों पर...मकड़ा
विषैला मकड़ा
जाल फैलाकर
मेरे उस चित्र को
ढके दे रहा है,जो
बना रहा था ज़िंदगी किसी की
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- अलकनंदा सिंह

Friday, 21 February 2014

याद आता अम्‍मा का गांव...

चीं चीं चीं चीं चिउ चिउ जब करती है गिलगिलिया
धड़कन के हर स्‍पंदन पर याद आता अम्‍मा का गांव

गर्मी की छुट्टी और तपती थी दोपहर जब 
इमर्तबान में..सिक्‍कों को जमाती थी अम्‍मा
कटोरा अनाज में लैमचूस का मिलना
जवाखार की पुड़िया च्‍च्‍च्‍च्‍चट करते करते
एक आंख का दबकर समदर्शी हो जाना
बम्‍बे की पटरी से छलांगों को नापते
आज बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

पुराने घेरा में सक्‍कन दादी की सूरत
और पाकड़ का वो दरख्‍त़ जिसकी
हर शाख में छप गये थे हमारे पांव
झरबेरी के बेर, करौंदे,चकोतरा के साये, 
थे वहीं पर हमारी उंगलियों की राह तकते
ऐसे खट्टे मीठे ... जैसे हमारे रिश्‍ते
और कसैले भी बिल्‍कुल बदलते चेहरों से,
पत्‍त्‍ेा पर रखी कुल्‍फी का एकएक गोला
आज जब भी अटकता है गले में
तो गलते संबंधों में तिरता हमको आज
बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

गर्मी की छुट्टी के जब दिन गिनते थे हम
भूसे में दबाकर जतन से रखी गई ,
बर्फ की सिल्‍लियों पर.. बूढ़ी अम्‍मा का
तब गुस्‍सा और प्‍यार जमा होता था
फालसे के रस में हम डुबोते थे अपने अरमां
मशीनों में घिसे हैं हम या.. हमारा दिल भी
पैना हो गया इतना कि, चुभती यादों में भी
आज बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

मेंड़ों पर हांफती पुश्‍तैनी दुश्‍मनियों ने
पड़ोस से चलते चलते हौले से
कब घरों में....रिश्‍तों में डाल लिए हैं डेरे
तिल-गुड़ से भी ये अब कब गरमायेंगे
खून जमाते अहसासों और अपनों को जब
तिलतिल जड़ होते देखती हूं तब...
अम्‍मा की झुर्रियों में झांकते बचपनों से,
आज बहुत याद आता अम्‍मा का गांव

- अलकनंदा सिंह
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