Friday, 7 June 2013

....यूं ही ठगनी

निश्‍छल है वो छलिया,
क्‍या बोलूं मैं अब..
शब्‍द कहां बचते हैं ....
इस तरह रोम रोम जब
बतियाता है कान्‍हां से...
मेरे हैं वो मेरे हैं ....
ये कहकर भ्रम हम पाले रहते हैं ....
उसकी एक झलक को हम
सबकुछ बिसराये रहते हैं ....
यही तो हैं कृष्‍ण प्‍यारे
फिर राधा का क्‍या दोष
उसको तो हम यूं ही ठगनी
माने बैठे हैं ।
- अलकनंदा सिंह
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