भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से नवाजे गए निदा फ़ाज़ली की आज पुण्यतिथि है, उन्होंने आज ही के दिन 8 फरवरी 2016 को मुंबई में इस दुनिया को अलविदा कहा।
निदा फ़ाज़ली हिंदुस्तानी तहजीब में ‘वाचिक-परंपरा’ के शायर हैं. वाचिकी के लिए ये बेहद जरूरी है की बात चित्रों के जरिए की जाय. रोटी, चटनी, फूंकनी, खुर्री-खाट, कुण्डी कुलमिलाकर मां से जुड़े हर प्रतीक के सहारे निदा ने मां को जिया है।
निदा फाजली दोहों की सरपरस्ती करते हैं इसीलिए प्रतीकों से दिलचस्पी रखते हैं.
लीजिए आप भी पढ़िए और महसूस कीजिए ज़िंदादिल शायर की ज़िंदादिली….
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो
किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो
यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो
कहीं नहीं कोई सूरज धुआँ धुआँ है फ़ज़ा
ख़ुद अपने आप से बाहर निकल सको तो चलो
यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो
……………….
……………….
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
आज ज़रा फ़ुर्सत पाई थी आज उसे फिर याद किया
बंद गली के आख़िरी घर को खोल के फिर आबाद किया
खोल के खिड़की चाँद हँसा फिर चाँद ने दोनों हाथों से
रंग उड़ाए फूल खिलाए चिड़ियों को आज़ाद किया
बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में
छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया
बात बहुत मा’मूली सी थी उलझ गई तकरारों में
एक ज़रा सी ज़िद ने आख़िर दोनों को बरबाद किया
दानाओं की बात न मानी काम आई नादानी ही
सुना हवा को पढ़ा नदी को मौसम को उस्ताद किया .
प्रस्तुति: अलकनंदा सिंह