अविभाजित भारत में पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिला अंतर्गत चुरुलिया गांव में 24 मई 1899 को जन्मे और फिर बंग्लादेश के राष्ट्रीय कवि की उपाधि से विभूषित काजी नज़रुल इस्लाम न सिर्फ अग्रणी बांग्ला कवि बल्कि संगीतज्ञ, संगीतस्रष्टा और दार्शनिक भी थे.
वे बांग्ला भाषा के अन्यतम साहित्यकार और देशप्रेमी कवि थे. पश्चिम बंगाल और बंग्लादेश दोनों ही जगह उनकी कविता और गान को समान आदर प्राप्त है. उनकी कविता में विद्रोह के स्वर होने के कारण उनको ‘विद्रोही कवि’ के नाम से जाना जाता है. उनकी कविता का वर्ण्यविषय ‘मनुष्य के ऊपर मनुष्य का अत्याचार’ तथा ‘सामाजिक अनाचार तथा शोषण के विरुद्ध सोच्चार प्रतिवाद’.
उनकी प्राथमिक शिक्षा धार्मिक (मजहबी) शिक्षा के रूप में हुई. किशोरावस्था में विभिन्न थिएटर दलों के साथ काम करते-करते उन्होने कविता, नाटक एवं साहित्य के सम्बन्ध में सम्यक ज्ञान प्राप्त किया.
नजरुल ने लगभग तीन हजार गानों की रचना की तथा साथ ही अधिकांश को स्वर भी दिया. इनको आजकल ‘नजरुल संगीत’ या “नजरुल गीति” नाम से जाना जाता है. अधेड़ उम्र में वे ‘पिक्स रोग’ से ग्रसित हो गए जिसके कारण शेष जीवन वे साहित्यकर्म से अलग हो गए. बांग्लादेश सरकार के आमन्त्रण पर वे १९७२ में सपरिवार ढाका आये. उस समय उनको बंग्लादेश की राष्ट्रीयता प्रदान की गई। यहीं उनकी मृत्यु हुई.
दुक्खू मियां नाम क्यों पड़ा छुटपन में
काज़ी नज़रुल इस्लाम के पिता काज़ी फकीर अहमद इमाम थे. एक मस्जिद की देखभाल करते थे. नज़रुल बचपन में काफी खोए-खोए रहते थे. इसके चलते रिश्तेदार इन्हें ‘दुक्खू मियां’ पुकारने लगे.
नज़रुल ने शुरुआती तालीम में कुरआन, हदीस और इस्लामी फलसफे को पढ़ा. जब वो सिर्फ 10 साल के थे, उनके पिता की मौत हो गई. परिवार को सपोर्ट करने के लिए नजरूल पिता की जगह मस्जिद में बतौर केयरटेकर काम करने लगे. अज़ान देने का काम भी उनके जिम्मे था. इस काम को करने वाले को मुअज़्ज़िन कहते हैं. इसके अलावा वो मदरसे के मास्टरों के काम भी करते. अपनी तालीम भी इस दौरान उन्होंने जारी रखी.
पुराणों का चस्का लगा तो शुरू हुए नाटक
ईमान की तालीम के बाद बारी आई म्यूजिक और लिटरेचर की. नजरूल ने चाचा फ़ज़ले करीम की संगीत मंडली जॉइन कर ली. ये मंडली पूरे बंगाल में घूमती और शो करती. नजरूल ने मंडली के लिए गाने लिखे. इस दौरान बांग्ला भाषा को लिखना सीखा. संस्कृत भी सीखी. और उसके बाद कभी बांग्ला, तो कभी संस्कृत में पुराण पढ़ने लगे.
इसका असर उनके लिखे पर नजर आने लगा. उन्होंने कई प्ले लिखे जो हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित थे. मसलन, ‘शकुनी का वध’, ‘युधिष्ठिर का गीत’, ‘दाता कर्ण’.
मुअज्जिन फौजी बन कराची पहुंचा
1917 में नजरूल ने ब्रिटिश आर्मी जॉइन कर ली. 49वीं बंगाल रेजिमेंट में भर्ती हुई. कराची में तैनाती मिली. नाटक छोड़ वह फौज में क्यों गए?
इस सवाल का जवाब उन्होंने ही लिखा. एक रोमांच की तलाश और दूसरी उस वक्त की पॉलिटिक्स में दिलचस्पी.
कराची कैंट में नज़रूल के पास ज्यादा काम नहीं था. अपनी बैरक में बैठ वह खूब पढ़ते. लेख और कविताएं लिखते. शुरुआत मादरी जबान बंगाली से हुई. रबिन्द्रनाथ टैगोर से लेकर शरतचंद्र चट्टोपाध्याय तक को पढ़ गए. फिर कराची की हवा लगी. जहां उर्दू का जलवा था. जो फारसी और अरबी से पैदा हुई तो नजरूल ने रेजिमेंट के मौलवी से फारसी सीखी. फिर इस जबान के महान साहित्यकारों, रूमी और उमर खय्याम को पढ़ा. दो साल पढ़ने के बाद नजरूल ने अपना लिखा छपाने की सोची. साल 1919 में उनकी पहली किताब आई. गद्य की. टाइटल था, ‘एक आवारा की ज़िंदगी’. कुछ ही महीनों के बाद उनकी पहली कविता ‘मुक्ति’ भी छपी.
नर्गिस से शादी क्यों नहीं की
1920 में जब बंगाल रेजिमेंट भंग कर दी गई, वह कलकत्ता आ बसे. जल्द ही उनकी नर्गिस नाम की एक लड़की से सगाई हो गई. वह उस जमाने के मशहूर प्रकाशक अली अकबर ख़ान की भतीजी थीं. 18 जून 1921 को शादी होना तय हुआ. शादी वाले दिन नज़रुल पर ख़ान ने दबाव डाला कि वह एक कॉन्ट्रैक्ट साइन करें. इसमें लिखा था, शादी करने के बाद नजरूल हमेशा दौलतपुर में ही रहेंगे. नज़रुल को कोई शर्त मंज़ूर नहीं थी, लिहाजा उन्होंने निकाह से इंकार कर दिया.
विद्रोही कवि नाम कैसे पड़ा
1922 में काजी की एक कविता ने उन्हें पॉपुलर कर दिया. इतना कि उनका नाम भी बदल गया. कविता का शीर्षक था, ‘विद्रोही’. ‘बिजली’ नाम की मैगज़ीन में ये छपी. इसमें बागी तेवर थे. जल्द ही कविता अंग्रेजी राज का विरोध कर रहे क्रांतिकारियों का प्रेरक गीत बन गई. इसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हो गया. नतीजतन वो अंग्रेजों को खटकने लगे और जनता के बीच ‘विद्रोही कवि’ के नाम से मशहूर हो गए. 29 अगस्त 1976 को बांग्लादेश की राजधानी ढाका में निधन हो गया.
कृष्ण भजन भी लिखा
नज़रुल ने न सिर्फ इस्लामिक मान्यताओं को मूल में रखकर रचनाएं की, बल्कि भजन, कीर्तन और श्यामा संगीत भी रचा. दुर्गा मां की भक्ति में गाया जाने वाला श्यामा संगीत समृद्ध करने में क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम का बड़ा हाथ है. कृष्ण पर लिखे उनके भजन भी बहुत मशहूर हुए. पढ़िए उनके लिखे ऐसे ही एक भजन का हिंदी अनुवाद.
अगर तुम राधा होते श्याम
मेरी तरह बस आठों पहर तुम
रटते श्याम का नाम…
वन-फूल की माला निराली
वन जाति नागन काली
कृष्ण प्रेम की भीख मांगने
आते लाख जनम
तुम, आते इस बृजधाम…
चुपके चुपके तुमरे ह्रदय में
बसता बंसीवाला
और, धीरे धारे उसकी धुन से
बढ़ती मन की ज्वाला
पनघट में नैन बिछाए तुम,
रहते आस लगाए
और, काले के संग प्रीत लगाकर
हो जाते बदनाम…
उनकी पहली पुस्तक 'एक आवारा की ज़िंदगी' गद्य संकलन थी। वाह! मेरे लिए एक नयी सूचना है। राधा-कृष्ण पर लिखा उनका प्रेम गीत भी बहुत सुंदर है। दूक्खु मियाँ के बारे में इतनी सुंदर जानकारी का आभार!
ReplyDeleteधन्यवाद विश्वमोहन जी, ऐसी ही नायाब विभूूतियों से भरा पड़ा है साहित्य... इन्हें जितना पढ़ा जाये कम ही लगता है।
Deleteकाजी नजरुल इस्लाम के बारे में जानकारी देने के लिए शुक्रिया।
ReplyDeleteधन्यवाद शास्त्री जी
Deleteविद्रोही कवि नजरुल के बारे में सुंदर जानकारी
ReplyDeleteनमस्कार अनीता जी, धन्यवाद
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