वाराणसी। सोहर, चैती और होली खासकर
वाराणसी। सोहर, चैती और होली खासकर ”खेलें मसाने में होली दिगंबर..खेले मसाने में होली..” को अपने सुरों में ढालने वाले और पूरब अंग की गायिकी के पहचान पं. छन्नूलाल मिश्र के किसे झूमने पर विवश न कर दें। आज पंडित जी का जन्म दिन है।
पंडित छन्नूलाल मिश्र का जन्म ३ अगस्त १९३६ को हुआ था। ठुमरी के लब्धप्रतिष्ठ गायक हैं। वे किराना घराना और बनारस गायकी के मुख्य गायक हैं। उन्हें खयाल, ठुमरी, भजन, दादरा, कजरी और चैती के लिए जाना जाता है।
मौसम कोई भी हो जब भी इस होरी के सुर-शब्द कानों से टकराते हैं, काशी की धरती पर सैकड़ों फागुन झूम कर उतर आते हैं। आपनी मर्जी की मालिक प्रकृति को भी प्रकृति बदलने को मजबूर कर देने वाले सुरीले शहर बनारस का यह रुआब है सुरों के सम्राट पं. छन्नूलाल मिश्र के दम से जो आज बनारस की आन-बान के अलमबरदार हैं। पूरब अंग की गायिकी के लालकिला हैं, शोहरत के कुतुबमीनार हैं।
छन्नूलाल मिश्र की चैती यहां सुनिए-
https://www.youtube.com/watch?v=dkM_T9RBol8&feature=youtu.be
लगभग आठ दशकों की जीवन यात्रा में पंडित जी ने अपनी साधना को उस मुकाम तक पहुंचाया है जहां पहुंचकर उनके वजूद और उनकी साधना की अलग-अलग पहचान कर पाना असंभव है।
ठुमरी के लब्धप्रतिष्ठ गायक हैं। वे किराना घराना और बनारस गायकी के मुख्य गायक हैं। उन्हें खयाल, ठुमरी, भजन, दादरा, कजरी और चैती के लिए जाना जाता है। पंडित छन्नूलाल मिश्र का जन्म तीन अगस्त, 1936 को आजमगढ़ के हरिहपुर में हुआ था। वाराणसी इन दिनों छोटी गैबी में इनका निवास है। छह साल की उम्र में पिता बद्री प्रसाद मिश्र ने संगीत के क्षेत्र में डाला था। उन्होंने संगीत के लिए चार मत बताए। शिवमत, भरत मत, नारद मत एवं हनुमान मत को शिव मंत्रों के साथ जोड़कर देखा। संगीत का उद्भव भगवान से हुआ। जिसे किसी घराना में न बांधकर उसे ईश्वर प्राप्ति के मार्ग के रूप में जान सकते है।
नौ साल की उम्र में पहले गुरु गनी अली साहब ने खयाल सिखाया। स्वर, लय और शब्द का समावेश ही संगीत है। इसकी उत्पत्ति भगवान शिव की चरणों से हुई। देश का पहला लोकसंगीत सोहर और निर्गुण के रूप में देखा। जन्म से लेकर मृत्यु तक संगीत है। अमेरिका का 50वां स्मृति सोमिओ सेलिब्रेशन, मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई सहित कई स्थानों पर दी गई प्रस्तुति और पुरस्कार की यादें संजोए हुए है।
पद्मभूषण पं. छन्नूलाल मिश्र के मुताबिक अब तो ठुमकते हुए बोलों का उपयोग हो तो वह है ठुमरी। ठुमरी दो प्रकार की है गत भाव और भाव नृत्य। ठुमरी में मधुरता जरूरी है। अब तो पब्लिक को जो अच्छा लगे उसको गाना चाहिए। संगीत का सिरा आज इसलिए छूट रहा क्योंकि आजकल शिष्यों में धैर्य नहीं। थोड़ा गाकर खुद बड़ा समझने लगते हैं। जिनके पास समय नहीं वह खुद को कलाकार नहीं कलाबाज कहें। मोक्ष नहीं धन प्राप्ति का साधन बन रहा संगीत। अब तो ठुमकते हुए बोलों का उपयोग हो तो वह है ठुमरी। ठुमरी दो प्रकार की है गत भाव और भाव नृत्य। ठुमरी में मधुरता जरूरी है। अब तो पब्लिक को जो अच्छा लगे उसको गाना चाहिए। संगीत का सिरा आज इसलिए छूट रहा क्योंकि आजकल शिष्यों में धैर्य नहीं। थोड़ा गाकर खुद बड़ा समझने लगते हैं। जिनके पास समय नहीं वह खुद को कलाकार नहीं कलाबाज कहें। मोक्ष नहीं धन प्राप्ति का साधन बन रहा संगीत।
भारतीय संगीत-संस्कृति की जीवित किंवदंती, बनारस की कालातीत आनंदधारा के जीवंत द्वीप, अनेक अकिंचनो के स्नेहस्रोत स्वर-गंधर्व पूज्य पंडित छन्नूलाल मिश्र जी को जन्मदिवस की असीम शुभकामनायें।
-अलकनंदा सिंह
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