देखो, हर पड़ाव पर अभिमन्यु
किये खड़ा है शर-संधान
व्यूह में धंसे अहंकार को
करने को ध्वस्त,हो विकल-निरंतर
इच्छाओं के हर द्वार पर खड़े
अहंकार के जयद्रथी-महारथी
अपने अपने आक्रमण से
छलनी कर चुके हैं मानुष तन
वो नहीं देख पाते हैं घायल मन
फिर भी अभिमन्यु अब तक लड़ रहा है
सदियों से लगातार अविराम
मगर व्यूह वज्र हो गया हो जैसे
टूटता नहीं, वो फिर फिर बनता है
और घना, और बड़ा, और कठिन
अभिमान का द्वार तोड़ने को
क्या फिर कल्कि को आना होगा
नहीं... नहीं... नहीं...नहीं...
हमें ही अभिमन्यु के शर पर
बैठ अपना अहं स्वयं वेध कर जाना होगा।
- अलकनंदा सिंह
किये खड़ा है शर-संधान
व्यूह में धंसे अहंकार को
करने को ध्वस्त,हो विकल-निरंतर
इच्छाओं के हर द्वार पर खड़े
अहंकार के जयद्रथी-महारथी
अपने अपने आक्रमण से
छलनी कर चुके हैं मानुष तन
वो नहीं देख पाते हैं घायल मन
फिर भी अभिमन्यु अब तक लड़ रहा है
सदियों से लगातार अविराम
मगर व्यूह वज्र हो गया हो जैसे
टूटता नहीं, वो फिर फिर बनता है
और घना, और बड़ा, और कठिन
अभिमान का द्वार तोड़ने को
क्या फिर कल्कि को आना होगा
नहीं... नहीं... नहीं...नहीं...
हमें ही अभिमन्यु के शर पर
बैठ अपना अहं स्वयं वेध कर जाना होगा।
- अलकनंदा सिंह
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