मुझे जीतना है अपना मन
जीतनी है तुम्हारी ईर्ष्या और जलन
मैं हूं अहसास की वो नदी जिस पर
मुझे बहकर उकेरने हैं वो शब्द
जिनमें खुद बहती जाऊं मैं
वो शब्द, जो पिंजरों से मुक्त हों
वो शब्द, जो बोल सकें अपनी बात
वो शब्द, जो खोल सकें अपनी सांसें
वो शब्द, जो बता सकें कि...
क्यों होती है तुम्हें ईर्ष्या मुझसे
क्यों बांधते हो तुम मुझ पै बंधन
क्यों करते रहते हो चारदीवारियों का निर्माण
मन की, तन की, धन की और...और...,
चलो छोड़ो जाने भी दो...
सदियां बीत गईं बहस वहीं है खड़ी ये
मेरी मुक्ति का पथ
मेरे शब्दों की मुक्ति का पथ
मेरे अस्तित्व की मुक्ति का पथ ढूढ़ते हुये,
कुछ पाया कुछ खोया भी मैंने
पाया अपनी दृढ़ता को
अपने शब्दों की भाषा को
खोया है तुम्हारा प्रेम-निश्छल
जो आलिंगन को होता था लालायित
अब इसी आलिंगन के बीच आ जाते हैं शब्द
चुपके से और तुम हो जाते हो
निष्क्रिय आक्रामक भावुक अस्पष्ट
अब समझे कि स्वयं को स्वयं से ही
दूर जाते हुए देखना कैसा लगता है
जैसे आत्मा से कोई तुम्हें कर रहा हो अलग
मैंने तो सदियों से झेली है ये कटन
ये ताड़ना ये चुभन ये गलन
मुझमें बहते हैं शब्द मगर जकड़े हुए
वे सहलाकर कहते हैं मुझे कि -
सखी, समय की बदली चाल को तुम
अच्छी तरह समझ लेना
कहीं तुम अस्थिर ना होना
कहीं तुम विचलित ना होना
कहीं तुम हारो नहीं कहीं तुम टूटो नहीं
कि कहीं तुम ना बन जाओ अप्रेम
कि कहीं ना बिखर जाए अस्तित्व तुम्हारा
तुम बहती रहो यूं ही प्रेम का भंवर बनाकर
डूब जाये जिसमें वो जलन, ईर्ष्या और घृणा
भंवर तोड़ दे वो चारदीवारी भी,और
तैर कर किनारे बैठा प्रेम
फिर करे कोई नई रचना
फिर प्रेम से प्रेम को पैदा करे ,
फिर शब्दों में बहे प्रेम, मन में उगे प्रेम
- अलकनंदा सिंह
जीतनी है तुम्हारी ईर्ष्या और जलन
मैं हूं अहसास की वो नदी जिस पर
मुझे बहकर उकेरने हैं वो शब्द
जिनमें खुद बहती जाऊं मैं
वो शब्द, जो पिंजरों से मुक्त हों
वो शब्द, जो बोल सकें अपनी बात
वो शब्द, जो खोल सकें अपनी सांसें
वो शब्द, जो बता सकें कि...
क्यों होती है तुम्हें ईर्ष्या मुझसे
क्यों बांधते हो तुम मुझ पै बंधन
क्यों करते रहते हो चारदीवारियों का निर्माण
मन की, तन की, धन की और...और...,
चलो छोड़ो जाने भी दो...
सदियां बीत गईं बहस वहीं है खड़ी ये
मेरी मुक्ति का पथ
मेरे शब्दों की मुक्ति का पथ
मेरे अस्तित्व की मुक्ति का पथ ढूढ़ते हुये,
कुछ पाया कुछ खोया भी मैंने
पाया अपनी दृढ़ता को
अपने शब्दों की भाषा को
खोया है तुम्हारा प्रेम-निश्छल
जो आलिंगन को होता था लालायित
अब इसी आलिंगन के बीच आ जाते हैं शब्द
चुपके से और तुम हो जाते हो
निष्क्रिय आक्रामक भावुक अस्पष्ट
अब समझे कि स्वयं को स्वयं से ही
दूर जाते हुए देखना कैसा लगता है
जैसे आत्मा से कोई तुम्हें कर रहा हो अलग
मैंने तो सदियों से झेली है ये कटन
ये ताड़ना ये चुभन ये गलन
मुझमें बहते हैं शब्द मगर जकड़े हुए
वे सहलाकर कहते हैं मुझे कि -
सखी, समय की बदली चाल को तुम
अच्छी तरह समझ लेना
कहीं तुम अस्थिर ना होना
कहीं तुम विचलित ना होना
कहीं तुम हारो नहीं कहीं तुम टूटो नहीं
कि कहीं तुम ना बन जाओ अप्रेम
कि कहीं ना बिखर जाए अस्तित्व तुम्हारा
तुम बहती रहो यूं ही प्रेम का भंवर बनाकर
डूब जाये जिसमें वो जलन, ईर्ष्या और घृणा
भंवर तोड़ दे वो चारदीवारी भी,और
तैर कर किनारे बैठा प्रेम
फिर करे कोई नई रचना
फिर प्रेम से प्रेम को पैदा करे ,
फिर शब्दों में बहे प्रेम, मन में उगे प्रेम
- अलकनंदा सिंह
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