क्या सुन पाओगे.. तुम?
कि अमावस के जाते क्षणों में भी
मेरे शब्दों में गुंथे हुये हो तुम
होली के रंग में नहाये हैं भाव सारे
धीमे से सरक रहे.. उस पूर्णिमा की ओर
जहां जीवन मेरा रसरंग में डूब ,
पूरा का पूरा शुक्ल पक्ष हो गया है ।
हे ईश्.... आज धन्य हूं तुम्हें पाकर
कि शब्द छूमंतर हुये जाते हैं मेरे .....
पूर्णिमा का उदय अभी भी शेष है
देखो इस झंकृत से मन में..
पर मैं नहीं हुई हताश..सखा !
दूज का चाँद भी तो कम सुदंर
नहीं होता ... जानते हो ना...तुम ?
जीवन में झांक कर देखोगे
..तो निश्चित पाओगे कि कभी भी
अस्तित्व सीधा कहां होता है...
सबकुछ वर्तुलाकार है , फिर जीवन..
उससे भिन्न कैसे हुआ सखा..
तो फिर आज चलो ऐसा करें..
कुछ अंबर की बात करें...
कुछ धरती का साथ धरें...
कुछ तारों की गूंथें माला...
नित जीवन का सिंगार करें
अमावस से पूरनमासी की
निज यात्रा का संधान करें।।
- अलकनंदा सिंह
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