वसुधैव कुटुम्बकम की मूल अवधारणा के साथ चलने वाले इस देश में जीवन को
मात्र 'ये दिन' 'वो दिन' में बांटकर उसकी समग्रता का अहसास कैसे किया जा
सकता है । ये हमारा जीवन है कोई गुड़ की डली नहीं जिसे तोड़कर बांटा जा
सके मगर ऐसा हो नहीं पा रहा संभवत: इसीलिए कुछ आयातित शब्दों के सहारे हम
अपने संबंधों को नये रूप में परिभाषित करने में लगे हैं और इसी मुगालते को
थामे चल रहे हैं कि लो जी हम भी आधुनिक हो गये।
सभी कुछ इंस्टेंट चाहने की आदत ने रिश्तों को भी इंस्टेंट बना दिया है तभी तो जिस एक शब्द की धुरी पर पूरा जीवन-उसका अस्तित्व, व्यवहार व विकास टिका है उसी एक शब्द 'मां' के लिए भी इसी कथित आधुनिकता ने एक दिन बांट कर दे दिया कि...लो ये रहा बस एक दिन....तुम्हारे नाम मां....अब इसी से पा लो वह खुशी जो तुम मुझे सूंघकर पाया करतीं थीं....अब वो तो डियो ने हड़प ली है मां... डिब्बों में बंद हो गई तुम्हारे बनाये खाने की खुश्बू....ने तुम्हें भी तो बख्श दिया है ये एक दिन....इसी की पूंछ पकड़कर तुम भी चलो और मैं भी...। गोया कि रिश्तों को भी ग्लैमराइज़ करने का नया फंडा तो हमारी मुठ्ठी में है लेकिन हम तो सिमटते गये सारी दुनिया की मुठ्ठी में...
हमने इसी कथित आधुनिकता की खातिर अपने जीवन की धुरी उस औरत को, जिसे गनीमत है कि अभी भी हम ''मां'' के नाम से ही जानते हैं, इन्हीं डे'ज की भीड़ में खड़ा कर दिया है।
आज मदर्स डे पर सोशल साइट्स से लेकर मीडिया की हर रौ में मां बह रही है। अचानक से इतनी मातृभक्ति उड़ेली जा रही है कि बस...जी ऊबने लगा है ये सोचकर कि प्रोपेगंडा से बढ़कर अगर ऐसा सचमुच हो जाये तो देश की संसद को महिला सुरक्षा के लिए यूं माथापच्ची ना करनी पड़े।
मैंने ऐसी कई औरतों को ''मां'' पर कसीदे गढ़ते और उस पर वाहवाही भी पाते देखा है जिन्होंने खुद अपने बच्चे क्रैचे'ज में डाल रखे हैं या फिर मेड की गोद में थमा रखे हैं । ये कोई मजबूरी नहीं बल्कि ये चलन है नये तरह के मातृत्व का जो अपने बच्चे को भी कमोडिटी के तौर भुनाने का हुनर ईज़ाद कर चुका है।
रिश्ता कोई भी हो खुद को बांटकर उसे जिया नहीं जा सकता, हर रिश्ता अपने हिस्से का पूरा वजूद चाहता है फिर मां को हम सिर्फ एक दिन कैसे याद कर सकते हैं वो हमारी रगों में बहती रहती है खून बनकर..दिल बन कर धड़कती है। फिर वसुधा को उसकी महत्ता बताने के लिए एक ही दिन क्यों मुकर्रर किया जाये , क्यों हम रिश्तों को बांटकर जीने को अपनी शैली मान बैठे हैं । आज तो बस महसूस करें कि जो हमारे भीतर धड़क रहा है उसका कोई कर्ज़ न आज तक उतार पाया है और न उतार पायेगा।
मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब के शब्दों में .....नई मांओं को सबक देती ये लाइनें..
सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना .....
- अलकनंदा सिंह
सभी कुछ इंस्टेंट चाहने की आदत ने रिश्तों को भी इंस्टेंट बना दिया है तभी तो जिस एक शब्द की धुरी पर पूरा जीवन-उसका अस्तित्व, व्यवहार व विकास टिका है उसी एक शब्द 'मां' के लिए भी इसी कथित आधुनिकता ने एक दिन बांट कर दे दिया कि...लो ये रहा बस एक दिन....तुम्हारे नाम मां....अब इसी से पा लो वह खुशी जो तुम मुझे सूंघकर पाया करतीं थीं....अब वो तो डियो ने हड़प ली है मां... डिब्बों में बंद हो गई तुम्हारे बनाये खाने की खुश्बू....ने तुम्हें भी तो बख्श दिया है ये एक दिन....इसी की पूंछ पकड़कर तुम भी चलो और मैं भी...। गोया कि रिश्तों को भी ग्लैमराइज़ करने का नया फंडा तो हमारी मुठ्ठी में है लेकिन हम तो सिमटते गये सारी दुनिया की मुठ्ठी में...
हमने इसी कथित आधुनिकता की खातिर अपने जीवन की धुरी उस औरत को, जिसे गनीमत है कि अभी भी हम ''मां'' के नाम से ही जानते हैं, इन्हीं डे'ज की भीड़ में खड़ा कर दिया है।
आज मदर्स डे पर सोशल साइट्स से लेकर मीडिया की हर रौ में मां बह रही है। अचानक से इतनी मातृभक्ति उड़ेली जा रही है कि बस...जी ऊबने लगा है ये सोचकर कि प्रोपेगंडा से बढ़कर अगर ऐसा सचमुच हो जाये तो देश की संसद को महिला सुरक्षा के लिए यूं माथापच्ची ना करनी पड़े।
मैंने ऐसी कई औरतों को ''मां'' पर कसीदे गढ़ते और उस पर वाहवाही भी पाते देखा है जिन्होंने खुद अपने बच्चे क्रैचे'ज में डाल रखे हैं या फिर मेड की गोद में थमा रखे हैं । ये कोई मजबूरी नहीं बल्कि ये चलन है नये तरह के मातृत्व का जो अपने बच्चे को भी कमोडिटी के तौर भुनाने का हुनर ईज़ाद कर चुका है।
रिश्ता कोई भी हो खुद को बांटकर उसे जिया नहीं जा सकता, हर रिश्ता अपने हिस्से का पूरा वजूद चाहता है फिर मां को हम सिर्फ एक दिन कैसे याद कर सकते हैं वो हमारी रगों में बहती रहती है खून बनकर..दिल बन कर धड़कती है। फिर वसुधा को उसकी महत्ता बताने के लिए एक ही दिन क्यों मुकर्रर किया जाये , क्यों हम रिश्तों को बांटकर जीने को अपनी शैली मान बैठे हैं । आज तो बस महसूस करें कि जो हमारे भीतर धड़क रहा है उसका कोई कर्ज़ न आज तक उतार पाया है और न उतार पायेगा।
मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब के शब्दों में .....नई मांओं को सबक देती ये लाइनें..
सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना .....
- अलकनंदा सिंह
No comments:
Post a Comment