‘विद्रोही’ के नाम से पहचाने जाने वाले कवि रमाशंकर यादव का जन्म 3 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिला अंतर्गत आहिरी फिरोजपुर गांव में हुआ।
उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। सुल्तानपुर में उन्होंने स्नातक किया। इसके बाद उन्होंने कमला नेहरू इंस्टीट्यूट में वकालत करने के लिए दाखिला लिया लेकिन वो इसे पूरा नहीं कर सके। उन्होंने १९८० में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया। १९८३ में छात्र-आंदोलन के बाद उन्हें जेएनयू से निकाल दिया गया। इसके बावजूद वे आजीवन जेएनयू में ही रहे।
वे कहते थे, "जेएनयू मेरी कर्मस्थली है। मैंने यहाँ के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं।" वे बिना किसी आय के स्रोत के छात्रों के सहयोग से किसी तरह कैंपस के अंदर जीवन बसर करते रहे
प्रगतिशील परंपरा के इस कवि की रचनाओं का एकमात्र प्रकाशित संग्रह ‘नई खेती’ है। इसका प्रकाशन इनके जीवन के अंतिम दौर २०११ ई में हुआ। वे स्नातकोत्तर छात्र के रूप में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से जुड़े। यह जुड़ाव आजीवन बना रहा। इनका निधन ८ दिसंबर २०१५ को ५८ वर्ष की अवस्था में हो गया।
विद्रोही मुख्यतः प्रगतिशील चेतना के कवि हैं। उनकी कविताएं लंबे समय तक अप्रकाशित और उनकी स्मृति में सुरक्षित रही। वे अपनी कविता सुनाने के अंदाज के कारण बहुत लोकप्रिय रहे।
जुलूस, नारे, भीड़ और समारोह ही उनकी किताबें थीं। बदलाव की लड़ाइयों के हमवार रहे वे। सबकी बातों के बाद आख़िर में अपनी बात कहते, जोर से कहते और यही उनकी कविता होती। जिसमे इतिहास से वर्तमान तक सिमटा होता। वह इतिहास जो लिखा नहीं गया। जिसे लिखने के बजाय हर बार मिटाया जाता रहा। उसी मिटे हुए को वे सुनाते रहे। कविता में इतिहास को बताते रहे। वे अपने को बचाने की बात कहते हुए एक इतिहासबोध, एक सभ्यता को बचाने की बात करते हैं।
नई खेती (कविता) में रमाशंकर यादव 'विद्रोही' जी लिखते हैं कि-
मैं किसान हूँ, आसमान में धान बो रहा हूँ
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता
मैं कहता हूँ कि
गेगले-गोगले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी पर पड़ी है
मुझको बचाना उस इंसान को बचाना है
जिसकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है
तुम मुझे बचाओ !
मैं तुम्हारा कवि हूँ।
इसी तरह अवधी भषा की कविता "इहवइ धरतिया हमार महतरिया" में लिखा है कि-
अमवा इमिलिया महुवआ की छइयाँ
जेठ बैसखवा बिरमइ दुपहरिया
धान कइ कटोरा मोरी अवध कइ जमिनिया
धरती अगोरइ मोरी बरख बदरिया
लगतइ असढ़वा घुमड़ि आये बदरा
पड़ि गईं बुनिया जुड़ाइ गयीं धरती
गुरबउ गरीब लइ के फरुहा कुदरिया
तोरइ चले बबुआ जुगदिया कै परती
पहिलइ वरवा पथरवा पै परिगा
छटकी कुदार मोर खुलि गा कपरवा
मितवा न जनव्या जमिनिया क पिरिया
टनकइ खोपड़ी मोरा दुखवा अपरवा
खुनवा बहा हइ मोरा जइसे पसिनवा
तोर तोर परती बनाइ दिहे जमता
इहवइ धरतिया हमार महतरिया
मरेउ पै न जइहैं जमिनिया क ममता
उहवइ धरती मोरी होइ गइ हरनवा
इहवइ हयेन मोरे दुख के करनवा
सथवा निभाइ देत्या मितवा दुलरुआ
छिड़ी बा लड़ायी मोरे खेते खरिहनवा
हमरी समरिया गहे जे तरुअरिया
ओनही के गीत गाना ओनही के रगिया
हम खुनवा रँगि-रँगि रेसम कै पगड़िया
बबुआ बाँधब तोरे मथवा पै पगिया
हमरा करेजवा जनमवइ क बिरही
अब न बुतायी मोरी छतिया कै अगिया
हम छनही मा बारि के बुताइ देबइ दुनिया
बहुतइ बिरही मोरे बिरहा कै अगिया...।
कविता "औरतें" को कुछ इस तरह लिखा है कि-
कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है
मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है
मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा
मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.
मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?
क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह
औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक
मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.
वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.
मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं
कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भी बुरा नहीं लगता
औरतें रोती जाती हैं, मरद मारते जाते हैं
औरतें रोती हैं, मरद और मारते हैं
औरतें ख़ूब ज़ोर से रोती हैं
मरद इतनी जोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा.
वाकई दिल को झकझोरती हुई.. चीखती हुईं कविताएँ
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(5-12-21) को "48वीं वैवाहिक वर्षगाँठ"
( चर्चा अंक4269)पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
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कामिनी सिन्हा
धन्यवाद कामिनी जी
Deleteलाजवाब सृजन आभार
ReplyDeleteधन्यवाद जोशी जी
Deleteबहुत ही लाजवाब वह शानदार प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रस्तुति के लिए आपका बहुत-बहुत आभार🙏
धन्यवाद मनीषा जी
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteविद्रोही जी के विद्र्ही स्वर दिल में उतर रहे हैं ...
ReplyDeleteअच्छा लगा मिलना विद्रोही जी से ...
सामायिक परिप्रेक्ष्य में हर विसंगति पर शानदार ओजमय सृजन।
ReplyDeleteकवि परिचय बहुत सौम्य सुंदर भाषा संतुलित। उनकी रचनाओं को पढ़वाने के लिए हृदय से आभार आपका अलकनंदा जी।
सस्नेह मित्र जी।