Thursday, 22 April 2021

पृथ्‍वी दिवस पर पढ़‍िए ''सुमित्रानंदन पंत'' की ये मशहूर कविता

छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत का जन्‍म बागेश्‍वर (उत्तराखंड) के कौसानी में हुआ था। वहां का उनका घर आज ‘सुमित्रा नंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय बन चुका है। झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या तक सब उनके सहज काव्य का उपादान बने।

आज पृथ्‍वी दिवस पर सुमित्रानंदन पंत की वो मशहूर कविता पढ़िए जो बहुत प्रासांगिक है-
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,
सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और फूल-फलकर मैं मोटा सेठ बनूँगा
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा
बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक
बाल-कल्पना के अपलर पाँवडे बिछाकर
मैं अबोध था, मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।

अर्द्धशती हहराती निकल गयी है तबसे
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन
और जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये
गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की
गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे
भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो
मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन
किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था, तब सहसा, मैंने देखा
उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से

देखा-आँगन के कोने में कई नवागत
छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी
जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिड़ियों के बच्चों से
निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता
सहसा मुझे स्मरण हो आया,कुछ दिन पहले
बीज सेम के मैंने रोपे थे आँगन में,
और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन
मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,
नन्हें नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है।

तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे
अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,
हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे
बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,
और सहारा लेकर बाड़े की पट्टी का
हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को
मैं अवाक रह गया-वंश कैसे बढ़ता है
छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटे
झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर
सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,
चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से।

ओह, समय पर उनमें कितनी फ़लियाँ फूटी
कितनी सारी फ़लियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ
पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती
लम्बी-लम्बी अँगुलियों – सी नन्हीं-नन्हीं
तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,
झूठ न समझे चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़तीं,
सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल
झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी
आह इतनी फलियाँ टूटीं, जाड़ों भर खाई,
सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के
जाने-अनजाने सब लोगों में बँटबाई
बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने
जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाई
कितनी सारी फ़लियाँ, कितनी प्यारी फ़लियाँ

यह धरती कितना देती है! धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को
बचपन में स्वार्थ, लोभ-वश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ
इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं
इसमें जन की क्षमता के दाने बोने हैं
इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की- जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-
हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

प्रस्तुत‍ि: अलकनंदा स‍िंंह 

13 comments:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२४-०४-२०२१) को 'मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे'(चर्चा अंक- ४०४६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. आदरणीय पंत जी की कालजयी कविताओं को फिर से पढ़वाने के लिए आपका दिल से धन्यवाद अलकनंदा जी,सत-सत नमन उन्हें

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    1. धन्यवाद काम‍िनी जी , सच में कालजयी हैं उनकी कव‍ितायें

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  3. हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पाएंगे, जग में श्रम के बीज बोकर समृद्धि की फसल काटी जा सकती है, पन्त जी की यह कविता कई बार पढ़ी है पर हर बार पढ़कर नई लगती है

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    1. धन्यवाद अनीता जी...मेरी पसंदीदा कव‍िताओं में से एक है ये

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  4. एक बार फिर स्कूल में बिठा दिया आपने

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    1. This comment has been removed by the author.

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    2. धन्यवाद कव‍िता जी

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  5. हम फिर भी नहीं सुधरे गलत बीज ही बोते रहे,आज जो बोया वही काट रहे हैं नहीं सुधरे तो आगे भी..पंत जी की कविता पढ़वाने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीया।

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    1. धन्यवाद अनुराधा जी... अब समय आ गया है क‍ि अच्छा बीज रोपें...आभार आपका

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  6. पंत जी हर काल में मेरे पसंदीदा कवि रहे हैं।
    इतनी सुन्द भावों वाली कविता है ये जैसे गंगा का निर्मल जल।
    आभार इतनी प्यारी कविता के लिए।

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  7. वर्तमान समय में भी प्रासंगिक। हम जो बोते हैं वही पाते हैं। प्रकृति के सुकुमार कवि को नमन।

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  8. वाह बहुत ही सुंदर। पंत जी की ये कविता 7वी कक्षा में पढ़ी थी..!

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