4 जनवरी 1925 को जन्मे प्रसिद्ध कवि, गीतकार और साहित्यकार गोपाल दास नीरज की आज पहली पुण्यतिथि है। नीरज का देहांत पिछले साल 19 जुलाई को हुआ था।
पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित गोपाल दास नीरज को फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से भी नावाज गया।
अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक गोपाल दास नीरज वहीं मैरिस रोड स्थित जनकपुरी में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे थे।
पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये।
अपने बारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है:
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥
गोपालदास नीरज साहित्य के आसमान के ऐसे सितारे हैं जिनसे गीतों की रौशनी बहती है। नीरज और उनका काव्य भी उसी अधिकार के साथ साहित्यांबर में यात्रा करते हैं। इसीलिए लोग उन्हें गीत-ऋषि कहते हैं।
यूं तो नीरज को गुजरे एक साल बीत चुका है लेकिन कवि की दैहिक यात्रा ही समाप्त हो सकती है। उनकी कलम से निकले शब्द तो अनंत काल तक लोक में भ्रमण करते हुए लोगों को तृप्त करते हैं। सरल शब्दों में अपनी बात को किसी पानी की धार की तरह छोड़ देना नीरज बखूबी जानते हैं।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए
पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित गोपाल दास नीरज को फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार से भी नावाज गया।
अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक गोपाल दास नीरज वहीं मैरिस रोड स्थित जनकपुरी में स्थायी आवास बनाकर रहने लगे थे।
पहली ही फ़िल्म में उनके लिखे कुछ गीत जैसे कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे और देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा बेहद लोकप्रिय हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि वे बम्बई में रहकर फ़िल्मों के लिये गीत लिखने लगे। फिल्मों में गीत लेखन का सिलसिला मेरा नाम जोकर, शर्मीली और प्रेम पुजारी जैसी अनेक चर्चित फिल्मों में कई वर्षों तक जारी रहा।
किन्तु बम्बई की ज़िन्दगी से भी उनका मन बहुत जल्द उचट गया और वे फिल्म नगरी को अलविदा कहकर फिर अलीगढ़ वापस लौट आये।
अपने बारे में उनका यह शेर आज भी मुशायरों में फरमाइश के साथ सुना जाता है:
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में, लगेंगी आपको सदियाँ हमें भुलाने में।
न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर, ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में॥
गोपालदास नीरज साहित्य के आसमान के ऐसे सितारे हैं जिनसे गीतों की रौशनी बहती है। नीरज और उनका काव्य भी उसी अधिकार के साथ साहित्यांबर में यात्रा करते हैं। इसीलिए लोग उन्हें गीत-ऋषि कहते हैं।
यूं तो नीरज को गुजरे एक साल बीत चुका है लेकिन कवि की दैहिक यात्रा ही समाप्त हो सकती है। उनकी कलम से निकले शब्द तो अनंत काल तक लोक में भ्रमण करते हुए लोगों को तृप्त करते हैं। सरल शब्दों में अपनी बात को किसी पानी की धार की तरह छोड़ देना नीरज बखूबी जानते हैं।
आदमी को आदमी बनाने के लिए
ज़िंदगी में प्यार की कहानी चाहिए
और कहने के लिए कहानी प्यार की
स्याही नहीं, आँखों वाला पानी चाहिए
नीरज अपने गीतों और कविताओं में भावनाओं के धरातल से बात करते हैं। कोई भी बात आसमान में दिखाई नहीं देती। चूंकि वह ज़मीन से बात करते हैं इसलिए लोगों को उन्हें पकड़ लेना भी बेहद आसान है। वह अक्सर प्रेम की बात करते हैं। कहते हैं कि
जो पुण्य करता है वह देवता बन जाता है
जो पाप करता है वह पशु बन जाता है
और जो प्रेम करता है वह आदमी बन जाता है
जो पाप करता है वह पशु बन जाता है
और जो प्रेम करता है वह आदमी बन जाता है
कमाल यह है कि जितना गहरा प्रेम का आकर्षण उन्हें है उतने ही वह आध्यात्मिक भी हैं। वह जीवन के मोह-पाश से मुक्त नज़र आते हैं। मानो किसी सन्यासी की तरह मुक्ति-मार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं।
कफ़न बढ़ा तो किस लिए नज़र तू डबडबा गई?
सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गई?
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ़ बात है-
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई
सिंगार क्यों सहम गया बहार क्यों लजा गई?
न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ़ बात है-
किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई
इसके साथ ही किसी देवदूत की तरह उन्हें इंसानी कौम की चिंता भी होती है। वह नफ़रतों में उलझी इस सभ्यता को सचेत करना चाहते हैं। तभी वह लिखते हैं कि-
अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
जिसमें इंसान को इंसान बनाया जाए
नीरज के कलाम वह ख़त हैं जो हज़ारों रंग के नज़ारे देता है। उसमें प्रेम, अध्यात्म और सौहार्द तो है ही साथ ही आशा के दीपक भी हैं।
पढ़ें उनकी सबसे मशहूर कविता
पढ़ें उनकी सबसे मशहूर कविता
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
होठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ
हो सका न कुछ मगर शाम बन गई सहर
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
वह उठी लहर कि ढह गये किले बिखर-बिखर
और हम डरे-डरे नीर नैन में भरे
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
ढोलकें धुमुक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गाँव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन-नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज़ एक वह गिरी
पुँछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी
और हम अजान से दूर के मकान से
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 20 जुलाई 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteधन्यवाद यशोदा जी
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (21 -07-2019) को "अहसासों की पगडंडी " (चर्चा अंक- 3403) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
धन्यवाद अनीताा जी
Deleteबहुत शानदार प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteHelllo mate great blog post
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