भारतीय उपमहाद्वीप के विख्यात पंजाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म 13 फ़रवरी 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट शहर में हुआ था।
उनके पिता एक बैरिस्टर थे और उनका परिवार एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई जिसमें क़ुरआन को कंठस्थ करना भी शामिल था। उसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल तथा लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। उन्होंने अंग्रेजी (1933) तथा अरबी (1934) में एमए किया। अपने कामकाजी जीवन की शुरुआत में वो एमएओ कालेज, अमृतसर में लेक्चरर बने। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए। “प्रगतिवादी लेखक संघ” से 1936 में जुड़े और उसके पंजाब शाखा की स्थापना सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर की जो उस समय के मार्क्सवादी नेता थे। 1938 से 1946 तक उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया।
सन् 1941 में उन्होंने अपने छंदों का पहला संकलन नक़्श-ए-फ़रियादी नाम से प्रकाशित किया।
फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई दी। साहिर, क़ैफ़ी, फ़िराक़ आदि उनके समकालीन शायर थे। 1951-1955 के बीच क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें “दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)” तथा “ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)” नाम से प्रकाशित किया गया। इनमें उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी को आज भी याद की जाती है-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
- (क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम
आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो
उनके पिता एक बैरिस्टर थे और उनका परिवार एक रूढ़िवादी मुस्लिम परिवार था। उनकी आरंभिक शिक्षा उर्दू, अरबी तथा फ़ारसी में हुई जिसमें क़ुरआन को कंठस्थ करना भी शामिल था। उसके बाद उन्होंने स्कॉटिश मिशन स्कूल तथा लाहौर विश्वविद्यालय से पढ़ाई की। उन्होंने अंग्रेजी (1933) तथा अरबी (1934) में एमए किया। अपने कामकाजी जीवन की शुरुआत में वो एमएओ कालेज, अमृतसर में लेक्चरर बने। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए। “प्रगतिवादी लेखक संघ” से 1936 में जुड़े और उसके पंजाब शाखा की स्थापना सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर की जो उस समय के मार्क्सवादी नेता थे। 1938 से 1946 तक उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया।
सन् 1941 में उन्होंने अपने छंदों का पहला संकलन नक़्श-ए-फ़रियादी नाम से प्रकाशित किया।
फ़ैज़ ने आधुनिक उर्दू शायरी को एक नई ऊँचाई दी। साहिर, क़ैफ़ी, फ़िराक़ आदि उनके समकालीन शायर थे। 1951-1955 के बीच क़ैद के दौरान लिखी गई उनकी कविताएँ बाद में बहुत लोकप्रिय हुईं और उन्हें “दस्त-ए-सबा (हवा का हाथ)” तथा “ज़िन्दान नामा (कारावास का ब्यौरा)” नाम से प्रकाशित किया गया। इनमें उस वक़्त के शासक के ख़िलाफ़ साहसिक लेकिन प्रेम रस में लिखी गई शायरी को आज भी याद की जाती है-
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
आईए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई ख़ुदा याद नहीं
लाओ, सुलगाओ कोई जोश-ए-ग़ज़ब का अंगार
तैश की आतिश-ए-ज़र्रार कहाँ है लाओ
वो दहकता हुआ गुलज़ार कहाँ है लाओ
जिस में गर्मी भी है, हरकत भी, तवानाई भी
हो न हो अपने क़बीले का भी कोई लश्कर
मुन्तज़िर होगा अंधेरों के फ़ासिलों के उधर
उनको शोलों के रजाज़ अपना पता तो देंगे
ख़ैर हम तक वो न पहुंचे भी सदा तो देंगे
दूर कितनी है अभी सुबह बता तो देंगे
- (क़ैद में अकेलेपन में लिखी हुई)
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन
के जहाँ चली है रस्म के कोई न सर उठा के चले
गर कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
चंद रोज़ और मेरी जाँ, फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर है हम
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास हैं, माज़ूर हैं हम
आज बाज़ार में पा-बेजौला चलो
दस्त अफशां चलों, मस्त-ओ-रक़सां चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, खूँ ब दामां चलो
राह तकता है सब, शहर ए जानां चलो
आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 16 फरवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteThanx Yashoda ji
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-02-2019) को “प्रेम सप्ताह का अंत" (चर्चा अंक-3248) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
फेज़ साहब के उन्दा गजल से रूबरू कराने के लिए दिल से शुक्रिया ,सादर नमस्कार आप को
ReplyDeleteदेशभक्ति के रस में डूबी फैज की रचनाओं को पढवाने के लिए आभार !
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