Friday, 16 August 2013

कि...कोई नहीं समझ पाया है

कि...कोई नहीं समझ पाया है

बाईं ओर उसी छाती में
दर्द का इक सैलाब आया है
रिश्‍तों की जकड़न कैसी थी कि...
कोई नहीं समझ पाया है

तितली के पंखों से झड़कर
टपक रही थी जो तेरी आहें
उनका सदका यूं मैंने पाया कि...
कोई नहीं समझ पाया है

आइने से मुझ तक पहुंची
उसकी आवाज़ सुनी जैसे ही
खुश्‍बू तैर गई ज़ख्‍मों पर कि...
कोई नहीं समझ पाया है

नापजोख के व्‍यवहारों में
मित्र कहां मिल पाते ऐसे
नाव तुमने साधी ये कैसे कि....
कोई नहीं समझ पाया है।
- अलकनंदा सिंह







No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...