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घुली महक वो भीनी सी है
फूटे जिस ज़र्रे से आलम
क्यों वही इबारत झीनी सी है
उसकी आंखें बता रही हैं
रात की बाकी नरमी सी है
जुगनुओं की रोशनी से भी
अब यूं चुंधिया रहे हैं रिश्ते
मत बांधो चमकीले पर उनके
उनसे ही तो रफ्ता रफ्ता
चटक रही रोशनी सी है
जी करता है चुपके से जाकर
उसके अहसासों में घुल जाऊं
सोचों की घाटी में उतरूं
पलकों की कोरों में मेरी
बहती खुश्बू उसकी सी है
कांपती उंगलियों के पोरों में
कोई तो शरारत बच्चों सी है।
-अलकनंदा सिंह
बेहतरीन रचना के लिए बधाई...
ReplyDeleteइस ब्लॉग पर आकर मुझे सच में बहुत खुशी हुई ...
आभारी हूँ आपका .. - पंकज त्रिवेदी
धन्यवाद
Deletebehatrin rachna Alakji
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