Tuesday 31 December 2013

नव वर्ष में....

आओ !
एक एक करके खोल डालें तमाम परतें
जो जाने अनजाने मेरे और तुम्‍हारे बीच
बनती रहीं...चलती रहीं..घुनती रहीं..
हमारे प्रेम के रेशे रेशे पर चढ़ती रहीं..
अपना कर्कश जाल वो बुनती रहीं...

आओ !
    छील डालें माथे पर बनी उन आड़ी तिरछी
    रेखाओं के मकड़जाल को,हम और तुम
    मिलकर चलो कुरेद कर बदल डालें
    अपनी हथेलियों पर बने,
    त्रियक रेखाओं के वे सभी कोने...

आओ !
       छिन्‍न भिन्‍न कर दें उन
      तमाम प्रश्‍नों के चक्रव्‍यूह की तीलियां
       जो खुद सुलगकर छोड़ गईं कुछ
      राख और कुछ चिंगारी के उड़ते तिल्‍ले
      हमारे गाढ़े प्रेम के बिछोने में
      जो अपनी आंखों के गिर्द ...गड़ गईं थीं जाने कब
      चलो छोड़ो भी अब जाने दो ...हम फिर से..
      एक बार नये सिरे से.... नये वर्ष में....
      नये प्रेम के संग... नये जीवन को
      फिर से बोयें...उसी प्रेम को... उसी आस में..
      जो भीगते हुये काट देते थे तुम मेरे इंतज़ार में..

- अलकनंदा सिंह         

Monday 30 December 2013

करो आगत का स्‍वागत यूं...

आकांक्षायें जब बढ़ती हैं
    करतीं हैं ये स्‍वच्‍छ मन पर
    दूषित क्षणों का आच्‍छादन
    तभी बढ़ता देखो मन:क्रंदन
    ठहरो...जाते वर्ष का यूं तुम
    मत करो क्रंदन से अभिनंदन

सूर्य से तप्‍त, मन की रेत पर
    बरसने देना प्रेम का सोने सा रंग
    जब लुभाये भावों का अभेद्य दुर्ग
    दूर कर देना अंतर्मन का द्वंद
    फिर नहीं होगा ऐसा कि..
    प्रेम-किरण पर भारी पड़ जाये
    कुछ मांसपेशियों का अभि-मान
    तब देखना तुम..भी 

कि वह नीड़ भयावह- आसक्‍ति का
    खोखला हो बज उठेगा जोर से,
    जाते वर्ष ने पीडा भोगी है बहुत
    अभिव्‍यक्‍ति-इच्‍छाओं का दलन था जो
   मन तक रिस रहा है अब भी
    मूल से शिख तक जाती शिराओं में
    कराहें भी जोर से दौड़ती रहीं
    मगर अब...बस ! अब.. और नहीं

चलो छोड़ो अब जाने दो बीते को
     अब ये घोर निराशा क्‍यों है छाई
     शांत करो अपना मन:क्रंदन
     इससे बाहर अब आना होगा
     क्रंदन से उपजेगा ज्‍योतिपुंज
     न होगा दमन ना ही दलन
     हर समय रहेगा प्रेम का स्‍पंदन
     अभिलाषाओं के कपाट पर
     जब नन्‍हें बच्‍चे की सी..
     किलकारी एक उगाओ...
     याद करो..आगत का स्‍वागत तो
     सदैव ऐसे ही होता आया है।
  
    - अलकनंदा सिंह

   

Saturday 28 December 2013

ये ज़िद का आलम...है

ज़रूरतों पर जो टिकी हैं शादियां
यूं हैं... जैसे हों चढे़ कब्रों पर फूल
उनमें रंगत है.. खुश्‍बू भी हैं तैरती
मगर किसी बेवज़ूद के सीने पर
चढ़े वो ढूंढ़ते हैं अपना ही वज़ूद

जिस एक सांस के लिए भागते हो
उन्‍हें ही जीना छोड़ दिया है कबका
सांसों को भी है सांस की ज़रूरत
अंधाधुंद दौड़ती एक ज़िद का आलम
पसरा है सबकुछ पाने की बदहवासी में,

तमाम-काम और काम-तमाम के बीच
सांसों को जीने दो वो खुश्‍बुयें फूलों की
उंगलियों के पोरों में समाने दो रंगत
थोड़ी रफ्तार कम करके तो देखो
खुश्‍बुयें सभी तैर रही हैं तुम्‍हारी तरफ
सबकुछ पाने की चाहत में
बहुतकुछ छूट भी जाता है
इस छूटने और पाने के बीच की
कुछ सांसें अपनी धड़कनों के भी नाम करो

तो क्‍यों न अब ये ठान लिया जाये
जी लिया जाये उस रंगत को भी
बहकर तो देखें उस खुश्‍बू में
जो दिखेगी मगर मिल न सकेगी ,
जिस खुश्‍बू को जीने के लिए हांफते-
दौड़ते रहे ताउम्र तुम
कब्र में सोने के बाद तो सुन लो कि
सांसें भी गुलाम होती हैं मिट्टी की

तो क्‍यों न चंद सांसें चंद अल्‍फाज़
चंद कतरनें यादों की और --
चंद चाहतों की खुश्‍बू से तरबतर कर लो

ज़रूरतों पर टिके रिश्‍तों में कुछ
सांसें अपनी भी डालो और जी लो
अपनी ही खुश्‍बू को.. रंगत को तुम
फिर कभी पर न छोड़ों इन खुश्‍बुओं को
यूं भागते रहने से नींव खोई और छूटा
रिश्‍तों की धड़कन का सिरा कोई
ज़रूरत से रिश्‍ते नहीं बनते पर
रिश्‍तों की ज़रूरत होती है हमें...

- अलकनंदा सिंह

उस दिन सीता नहीं जली थी...

सीमा काढ़ जब धनुष कोर से                 
लक्ष्‍मण ने बांटा था अस्‍तित्‍व
सीमा लांघ जब रावण ने डाला
दुस्‍साहस का नया दांव एक..
तब ही से सीमा स्‍त्रीलिंग हो गई ..

सीमा का ही वो उल्लंघन था
जो सीता बन गई एक स्‍त्रीदेह मात्र
कहीं ताड़का--मंदोदरी- तो कहीं
उर्मिला और द्रुपदसुताओं को...
सीमाओं में कैद कर गया समय,
सीमाओं के तटबंधों से लेकर..
घर की दहलीजों से चौराहों तक जाते
सीताओं के मत्‍थे पर सीमा काढ़ते
न जाने कितने राम मिलेंगे.. तुमको हे सीते!


शुद्धि की अग्‍नि में उस दिन
एक सीता नहीं जली थी, और ना ही
एक राम का जीता था विश्‍वास
वरन हार गई थी प्रेमिका-पत्‍नी-
और एक स्‍त्री भी... जिसने खोया
अपनी सांसों पर अपना अधिकार,
टूटा था उन सब सीताओं का दंभ
जो अपने रामों को पा फूला नहीं समाता था,

भंग हुआ था घोर प्रमाद हर आधे की
अधिकारी - रानी - साम्राज्ञी होने का
सर्वस्‍व तब नहीं गया था, जब
रावण ने हरण किया था,
हारी तो तब थी पत्‍नी भी और स्‍त्री..भी
जब लपटों से बाहर आकर उसने
अपने उसी राम को खोया था

अब चयन करो ! संकल्‍प करो !  हे सीते,
कि हों कोई रावण.. लक्ष्‍मण या फिर हों..
कोई भी राम तुम्‍हारे जीवन में ..
कोई क्‍यों खींचे-बांधे-काढ़े सीमाओं को
स्‍वत्‍व संधान का अधिकार तुम्‍हारा है
- अलकनंदा सिंह






Friday 20 December 2013

बेटियां...पलकों की कोरों में..

हम तो हव्‍वा की औलादें हैं जो..
अपनी पलकों की कोरों में ही
पानी लेकर  ही पैदा होती हैं ,तब
उन्‍हीं में भीगते हुये ही एक मां भी...
बेटी के संग फिर से पैदा होती है,

फिर से जीती वो अपना अतीत
फिर करती अतीत का आवाहन
कालखंड की बूंदों पर छापे हों जैसे 
ईश्‍वर ने दोनों ही के युगल हस्‍ताक्षर

मां की आंखों में बेटी जब
अपने सपने गीले करती है,
बोये जाते हैं तब दोनों के भविष्‍य
पलकों से ही कांटे चुनचुन कर अपने
सपनों को पहनाती.. दोनों पुष्‍पहार,
एक दूजे का करती हैं अभिनंदन

सहयात्री मां के सपनों की बन
पथ को बेटी ही निष्‍कंटक करती
समय के कांधे पर चढ़कर कब
संग बहते-बहते एकरंग हो जाती दोनों,
एक दर्द और आशा की दोनों में बहती
एक सी ही फुहार.. एक सी ही धार

फिर सपनों को कैसी धूप दिखानी...
पलने दो इन्‍हें हौले हौले...,
कुछ जोड़ी और पलकों में इनको
भाप बनकर उड़ रहे रिश्‍तों की सांसें
इन्‍हीं में तो बाकी रहती हैं,
इनकी पलकों की कोरें ही तो
सब रिश्‍तों को भिगोये रहती हैं
गीलेपन से उर्वर होते रिश्‍तों की-
सब सांसों को जोड़े रखने को,
मां- बेटी की पलकों की कोरें
अभी गीली ही रहने दो...
अभी सपने ही पलने दो..

- अलकनंदा सिंह
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Monday 9 December 2013

स्‍त्री के 'उन' चार दिनों का प्रवास...

Painting: Self portrait by Freida Kahlo
जीवन के अंकुर से चलकर
क्षणभंगुर होते जाने तक यूं तो
स्‍त्री के 'इन' चार दिनों के प्रवास ने
पूरी सृष्‍टि को उलझाया है,
आज मुझे अपने गौरव का ये पन्‍ना
बस, बरबस ही याद आया है।

प्रकृति और प्रेम की हैं ये निशानी,
निज संबंधों के भावों का तोलमोल करते
प्रेम की परिभाषा को देते नये-नये नाम 
स्‍त्री में कर्मज्ञान की गांठ बांधते 'ये दिन'
आज हमें सुनाने को आतुर हैं...
प्रकृतिप्रदत्‍त इस सतरूपा के संग,
मनु-सृजन के 'इन' चार दिनों की कहानी।

प्रकृति की ये जाल-बुनावट टिकी हुई
'इन' चार दिनों की एक धुरी पर... बस, 
रिश्‍ते की हर गांठ...हर आस के धागे
'इन' दिनों के भंवर में डूबते-उतराते

भूत और भविष्‍य के पग भी स्‍त्री के
'इन' दिनों के पाश में ही तो बंधे हुये हैं
इनके आने पर विह्वल होकर... कोई जननी
बेटी का बोझ बढ़ा लेती है दिल पर,
इनके 'ना होने' पर अभिशापों का गुंठन
लक्ष्‍यहीन कर देता स्‍त्री-जीवन को....

सृष्‍टिकर्म की इस लंबी यात्रा में
धन्‍यवाद 'इन' चार दिनों का
देने को मन आतुर है क्‍योंकि...
संबंधों के सृजित पदों पर बैठा के  ,
'इन' दिनों ने....ही तो ठहराया है
स्‍त्री को संसार-रचना की अधिष्‍ठात्री
मां..बहन..पत्‍नी..और बेटी बनाया इन्‍हीं ने
संबंधों की हर नींव में बिखरी है
गंध 'इन' दिनों के होने और ना होने की

एक सा होता है इनका आना और जाना भी
दोनों में ही पीड़ा का होता साम्राज्‍य
कष्‍ट से उपजता है एक नया व्‍यक्‍तित्‍व
आते में भी ...जाते में भी..

दोनों ही संधि-वय में जन्‍म लेता है
अनुभूतियों का नया पुलिंदा,जिसे...
सामने पटक कर हंसता है समय... ठटाकर
हंसता रहता है..कि देख.. हे स्‍त्री तू भी
अभिमान कर स्‍वयं पर कि...
यही तो माया है 'प्रकृति' के 'इन' दिनों की
उसी पर डालती है बोझ जिसके कंधों में
शक्‍ति हो सह लेने की और...
अब मैं नतमस्‍तक हूं 'इन' दिनों के आगे।

- अलकनंदा सिंह

 

Monday 2 December 2013

उन्‍मुक्‍त हास

Painting: Her Shame by  Dine Lowery
अरे जरा देखूं तो...
यह क्‍या है जो
अपरिचित सी है पर
लगती चिरपरिचित
ये आकुलता है...जो
चेतना से संग संग चल रही है
रेंग रही है...घिसट रही है..
कई स्‍तर हैं इस चेतना के
जिनमें ये चलती हैं एक साथ
दोनों हाथ थामें
चलती रहती है निरंतर
कुछ बुनते  हुये
कुछ गुनते हुये
कुछ सुलझते हुये
फिर क्‍यों मन करता है
कि-
इतना रोऊं..इतना चीखूं कि-
सारा आकुल रुदन बदल जाये
उन्‍मुक्‍त हास में
नहीं या फिर
इतना खिलखिलाऊं कि आंखें
निर्झर सी दीख पड़ें-
- अलकनंदा सिंह

Thursday 28 November 2013

आकुल...आकुलता मन की

अरे जरा देखूं तो यह क्‍या है..
जो लागे है अपरिचित सी, पर......
चिरपरिचित सी जान पड़े है
कभी मेरा मन विचलित करती 
और कभी कर्म-दर्पण दिखलाती...

कभी प्रेम बन आंखों से झरती
और कभी क्रोध-कंपन बनकर
झुलसा देती ये रोम-रोम को,
कभी सखारूप में आकर पीड़ा को
सहला जाती- लेप लगाती और..
कभी टूटती स्‍वयं पर मेरे मन को
बींध-बींध कर चूर-चूर कर जाती...

देखे हैं इसके भिन्‍न रंग और रूप
कभी लहराते हुये...इठलाते हुये..
तो कभी सकुचाते हुये भी
पर पहचानूं इसको कैसे मैं ,
ये अंतर में दुबकी है मेरे...

मन हठात् ये कह बैठा आज ...कि
ये तो आकुलता है.. जीवन की,
तेरे उर की, पहचान इसे....
ये आकुलता है राग की..द्वेष की भी
चिपक गई है ये शरीर से..मन से भी
तो निकाल इसे.. या जी ले इसको,

हे! आकुल मन तू ठहर तनिक...तो,
क्षणभर को सांसें रोकूं तो..
दोनों हाथ पसार इसे अपने,
उर के अंतस से गा लूं मैं,
मुट्ठी खोल प्रवाहित कर दूं
और नदी बन जाऊं मैं...
आकुल ध्‍वनि के सिर पर बैठूं
राग द्वेष का नहीं, प्रेम के पग
का घुंघरू बन छनक जाऊं मैं....
समय-बिम्‍ब ने त्राटक करके
ये समझाया है मुझको अब...कि
जीवन की आकुलता को एक
धरातल पर बैठाऊं और ...
अब नमन मेरा इस आकुलता को
जो उर में बैठी मुझसे मेरा ही घर पूछ रही।
- अलकनंदा सिंह
.............................................

Tuesday 19 November 2013

बस ऐसे ही...तुम

और प्रेम बन गये तुम....सखा
और कृष्‍ण हो गये तुम...सखा

वो सांवली रंगत के साये में
आंखों के लाल डोरे एकदम सुर्ख
हे कृष्‍ण...तुम ऐसे ही क्‍यों हो
अपने प्रेम की भांति अनूठे,

जल रही भीतर जो तुम्‍हारे,
अगन है या श्रद्धा मेरी
प्रेम है या छलना तेरी
वो जो राग भी है रंग भी,
वो जो द्वेष भी है कपट भी ,
सब ने कहा वो राधा है...
संभव है ऐसा ही हो भी...

'राधा' बनते जाने की-
अग्‍नि के ताप में ही तो...
ताप से सुर्ख होते गये और फिर
इस तरह कृष्‍ण बनते गये तुम
भस्‍म होते रहे और प्रेम बन गये तुम

- अलकनंदा सिंह 

Saturday 16 November 2013

वह हंसी...

वह हंसी...
जिसके लिए पहचानते थे लोग
आज कहीं दरीचों में
समा गई है,या...
अंधे कुयें में, पत्‍थरों तले
दब गई है...
हंसते हंसते पेट में बल पड़ें ,
ऐसा अब होता नहीं...
कितने दिन हुये ?
खिलखिलाने में भी लगता है जैसे-
सांसों को बींध रहा हो कोई
गुब्‍बारे का छेद जैसे
गले में बैठकर, हंसी के आवेग को,
रिसते रिसते देख रहा है,
ये कोलाहल के पीछे करके
करना होगा एक संपूर्ण प्रयास कि-
ये हंसी सिर्फ हंसी ही बनी रहे 
न बन जाये अट्टहास।
- अलकनंदा सिंह

Wednesday 13 November 2013

मेरे वातायन में........

मेरे घर के वातायन में
सूरज नहीं, आशायें उगती हैं
जीवन की हथेली पर
जो हर पल नया राग बुनती हैं

समय और लक्ष्‍य के बीच
चल रहा है द्वंद नया सा
देखें अब किसकी शक्‍ति
अपने अपने संधानों को
ठीक ठीक गुनती है

पग-पग.. पल-पल..
कल-कल.. चल कर
किरणें सूरज की, मेरे घर-
को नदी बनाकर, देखो-
कभी डूबती- उतराती सी
यूं अविरल होकर बहती हैं

नया राग है नई तरंगें
नये सुरों में जीवन का
पथ भी है नया नया सा
फिर.......
प्राचीन अनुबंधों से कह दो
देखें किसी और प्रभात को
सूरज तो अब बस मेरा है
मेरे ही वातायन में कैद

- अलकनंदा सिंह

Friday 8 November 2013

वो नहीं चोखेरबाली..

तिनके ने उड़ते हुये, हवा से पूछा
क्‍या अपने साथ तुमने, मेरी चिरसाथी...
उस धूल को भी उठाया है
यदि नहीं..तो मुझे भी छोड़ो

रहने दो मुझे उसी के पहलू में
और कुछ पल थोड़ा सुकून से
न जाने फिर कब मिल पाऊं
मैं... अपनी इस चिर साथी से
यदि तुम ले जाओगी दूर मुझे
जीवित फिर ना पाओगी मुझे

तो ऐ हवा...! क्‍यूं ना ऐसा करो...
उसे भी संग ले लो अपने, या फिर...
छोड़ दो मुझे...उसके ही पास
तुम्‍हें तो मिलेंगे मुझसे और भी बड़े
तिनकों के सम्राट...

मेरा तो जीवन ही धूल ने सींचा है
उसी ने सालों से अपने पहलू में
बिछाकर मुझमें रोपा है प्रेम का अंकुर
ऐ हवा... तुम क्‍या जानो मेरी सहयात्री
धूल के उस आंचल का सुख
उसकी हथेलियों से मिलता अभयदान
अब बारी मेरी है देने की प्रतिदान

ताकि....कोई और हवा,
अकेला पाकर न बना दे...चोखेरबाली या
आंखों की किरकिरी उसको...
ऐ हवा.....! मुझे बताना है उसको
भिन्‍न रूप हैं पर एक है अस्‍तित्‍व अपना
मेरा भी और तेरा भी...
यह भी बताना है उसको कि...
तू धूल है रहेगी जीवित मेरे ही साथ
मैं तिनका हूं उड़ आऊंगा तेरे ही पास
यही इच्‍छा है यही नीयति अपनी
यही अंत है यही आरंभ अपना

सो ऐ हवा...! जीवन की प्राण...
मुझे तुम यूं निस्‍पंदित मत करना
प्राणदायी कहलाकर अपनी
गरिमा से मुझे अभिसिंचित करना

सो...ऐ हवा...तुम साक्षी बन दे देना
चोखेरबाली नहीं... उसे तुम
मां होने का देना वरदान
जिससे धरती के सारे तिनके...
फलें फूलें और..
बनें किसी के सर की छांव,
यही तुम्‍हारा अभिनंदन है...
हे प्राणदायी तुम्‍हें वंदन है...
- अलकनंदा सिंह


Sunday 27 October 2013

मेरा छठा तत्‍व

देखो..
सखा आज तुमसे कहती हूं
सुनो और बूझो बतलाओ
तुम तो पढ़ लेते थे अंतस मेरा
फिर क्‍यों आज मेरे मन के...
आखर आखर बीन रहे हो,

देखो..
सब कहते ये पांच तत्‍व से
मिलकर बना शरीर...
पर छठे तत्‍व की बनी हूं मैं
इस छठे तत्‍व को कैसे भूलूं 
जिससे चले शरीर..!

देखो..
वो शरीर जिस पर तुमने... हे सखा
पिरो दिये हैं स्‍वर-श्‍वास के कुछ फूल
वो शरीर जिस पर गिर कर
रपट रहे हैं सारे जग के तीखे शूल

देखो..
पत्‍थर पर खुरच रही हूं कबसे
इस छठे तत्‍व का नाम पता
पर देह- भीतर जो भय बैठा है
नहीं लिख पा रहा इक आखर भी
कहो... तो, इस तरह कैसे होगा
मेरे छठे तत्‍व का साक्षात्‍कार

देखो..
यूं तो मुझमें क्षमता है इतनी,
कि पी जाऊं संसार, गरल का -
पर छठे तत्‍व ने रोका मुझको
तुम पर करने को आघात
ये जितने भी हैं गरल तुम्‍हारे
क्‍यों मैं ही पी कर दिखलाऊं
कुछ तेरा भी तो कंठ भिगोये
तुझको भी तो भान कराये
क्‍यों मेरे ही सब हिस्‍से आये
तू भी जाने गरिमा इसकी
इसका करे मान सम्‍मान
देह के भीतर ''मैं'' बैठी हूं
छठे तत्‍व का पल्‍लू थाम
- अलकनंदा सिंह

Monday 14 October 2013

दंगों पर..

पत्‍थर सी बेजान पड़ी लाशें
कहीं धड़ है तो कहीं सिर
खून से लबालब हैं सारे शहर की नालियां
बहते हूये खून में भी, अब तो कीड़े पड़ गये

बचाओ बचाओ की आवाजें और उनका खौफ
न रोटी बेटी का मसला है ना मान सम्‍मान का
फिर क्‍यों श्‍मसान में तब्‍दील कीं बस्‍तियां
ए सियासत के मरीजो ! ज़रा बताओ तो
क्‍या बेचारगी से मर रही ज़िंदगी के,
नाटक तुम्‍हारे लिए कम पड़ गये

कौन रोया है हक़ीकत दंगों की देखने के बाद,
तुम तो अब मुर्दों के बनाये मंच पर
ज़़िंदा लाशों की तरह नाचते हो
शमसीर को रख लो मयान में अभी,
बचे हुये बच्‍चों के सीने छोटे हैं अभी

अरे..सियासत के मरीजो !
जाओ, कुछ साल रुक कर आना
तब तक बस्‍तियां जवान हो लेंगीं
तुम्‍हारी शमसीर भी कुछ सांस ले लेगी
तुम फिर रचोगे एक नदी
बहते हुये खून की..क्‍योंकि-
हमनिवालों का शिकार तुम्‍हें भाता है
नया जवान खून जो मुंह को है लगा
तो छूटने को हर बार शमसीर ही मांगता है
खून से सने हाथों को खून से ही धोने की
ये अजब शर्त है इस ज़मीं पर जिंदगी की
खून में नहाया भी सफेदपोश ही कहलाता है

सालों से इस माज़रे के गवाह रहे
एक गिद्ध ने दूसरे से कहा-
छोड़ो, अब ये खून.. शमसीर और
आम आदमी के रोने की बातें
अमां हमें तो कबके खाने के लाले पड़ गये
जब से मंचों पर सजे हैं ये सफेदपोश
तभी से हमें अपने बच्‍चे भी गंवाने पड़ गये...
- अलकनंदा सिंह

Wednesday 9 October 2013

सूत्रधार शर्त का

कभी देखा है तुमने-
विश्‍वास को,
सांसों से घात करते हुये
उन्‍हें ठगते हुये ? मैंने देखा है,
विश्‍वास की असली रंगत को,
जिससे भयाक्रांत हैं सांसें कि-
विश्‍वास पर विश्‍वास कभी
न करना,वरना------
यही तो बनाता है---
दोस्‍तों को द़श्‍मन,
अपनों को पराया
खून को पानी
अल्‍हढ़ को संजीदा
समय की सार्थकता
यही सिद्ध करता है
यही परिभाषित करता है प्रेम
यही पालता है स्‍वार्थ के जंगल
जीवन के सारे युद्धों का
यही है सूत्रधार
फिर भी जीवन जीने की
पहली जरूरत है विश्‍वास
पहली शर्त है विश्‍वास
जीवन का विराम है विश्‍वास
तो आओ नकारा विश्‍वास को
कर दें पदावनत अपने विश्‍वास से
और बो दें नये विश्‍वास का अंकुर
जिसकी फसल से लहलहा जाये
ये पीढ़ी और इसकी रग रग
उसके मन की कोरों में भी
फिर जम जाये अपना विश्‍वास

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 1 October 2013

एक कदम शहर की ओर...

जा रही थी वह बेखबर
पगडंडी छोटी और
तमन्‍नायें हज़ार
निर्द्वंद प्‍यार का तूफान सांसों में
थामे आंचल में कांटे बेशुमार
वो बांटती थी प्‍यार
वो खोजती थी प्‍यार
चाहती थी ठंडी छांव
किसी की सांसों से हर बार
बस एक कदम चला शहर की ओर
और...और...और...अब तो
झोपड़ी को महल भी बनाकर देखा
मगर मिला उसे बस
दुखती रगों का अंबार
जो चाहा था नि:स्‍वार्थ प्रेम 
फिर देखा उसका रूप- विद्रूप
अंतस का स्‍वप्‍न
टूटा रहा है हर बार
क्‍यों अब भी बाकी है आशा
कि समेट ले उसके मन का भोजपत्र
कोई आकर जिस पर
टांका हुआ हो बस प्‍यार ही प्‍यार
- अलकनंदा सिंह

Tuesday 24 September 2013

अहिल्‍या - ना शबरी..

हे सखा...हे ईश्‍वर..क्षीर नीर करके
दुनिया को भरमाया तुमने
पर मुझे न यूं बहला पाओगे
सखी हूं तुम्‍हारी , कोई माटी का ढेर नहीं,
ना ही अहिल्‍या - ना शबरी मैं
जो पैरों पर आन गिरूंगी
मैं हूं - तुम्‍हारा आधा हिस्‍सा
ठीक ठीक समझ लो तुम, कि...
तुम्‍हारी आधी सांस में पूरी आस हूं
आधा तुम्‍हारे मन का पूरा संकल्‍प हूं,
संकल्‍प हूं जीवन का - स्‍व को सहेजने का
तुम्‍हारे कर्तव्‍य पर आधा अधिकार हूं
सपनों का समय नहीं बचा अब,
संग चलकर साथ कुछ बोना है,
बोनी हैं अस्‍तित्‍व की माटी में,
अपनी हकीकतें भी मुझको...
- अलकनंदा सिंह


Monday 9 September 2013

यूं चुकाया उसने अपने औरत होने का कर्ज़

मूक परछाईं सी- हठात बैठी वह,
कभी आंगन की उन ईंटों को कुरेदती -
 कभी आत्‍मा के चिथड़ों को समेटती
इधर उधर ताकती,दीवारों को तराशती

बूझती उनसे अगले पल की कहानी
ढूंढ़ती नजरें..  अपनी शुद्धता की निशानी
क्‍योंकि आज खून से खौलती आंखों को
उसने अपने शरीर का मोल देकर
खरीद ही लिया इस समय को --
उसकी आज़ादी वाली सोच को 
उसकी आधुनिकता को,

आज इस दंगे की हवस में
मांस मज्‍जा और अहं से बना शरीर
अगर काम न आता- तो वह
कैसे बचा पाती भला
उस कमसिन बच्‍ची की लाज
जिसने देखे थे बस तेरह बसंत,
गिद्धों के पंजों से  उसको बचाकर
स्‍वयं को उधेड़ कर, उस नन्‍हीं
बच्‍ची के बिखरे सपनों को  सींना
इस नश्‍वर शरीर का  दे गया मोल,
कर स्‍वयं को अनमोल- निभा दिया फ़र्ज़
कुछ यूं चुकाया उसने अपने औरत होने का कर्ज़

-अलकनंदा सिंह

Thursday 5 September 2013

अक्‍स दर अक्‍स

एक हथेली भर ज़िंदगी
एक मुट्ठीभर अहसास
नापने बैठी जब भी सुख
तिर गये वे सारे दुख
हर पल देता गया मुझे
तेरे होने का अहसास

तू है, तो फिर मुझे दिखना चाहिए
नहीं है, तो गायब होता क्‍यों नहीं
मेरी बेटी की हंसी और
मां की दुआ में मुझे
तू ही तू, अक्‍स दर अक्‍स
दिखता क्‍यूं है मेरे बरक्‍स



 - अलकनंदा सिंह

Sunday 1 September 2013

खुदाई को भी ऑक्‍सीजन चाहिये

आइना
खुद को इतना ऊंचा भी न उठा
न पाल खुदाई का फ़ितूर
ये इम्‍तिहान तेरा है, कि
दे अपने  होने का भी सबूत
कैसा खुदा है तू कि ना तो
बचा पाता है लाज किसीकी
न रख पाता है नाजो-ताज़

हरसूं बस नज़र आते रहना ही तो,
काम खुदा का नहीं होता
संभल जा अब भी वक्‍त है
ज़मीं की पेशानी पर पड़ रहे हैं बल
तेरे ही बंदे कर रहे हैं छल
हमारी तरह जीना भी सीख
ज़मीं पर पांव धरना भी सीख

खुदाई के नये पैमाने अब
गढ़ने का वक्‍त है
अभी तू है यहां, ये जहां खाली नहीं
 ये बताने का वक्‍त है
बता दे कि.. अभी तू बाकी है अहसासों में,
बता दे कि अभी तू है सिसकियों में- आवाज़ों में,
फिर.. फिर उठ खड़े होने वाले जज्‍़बों में
तेरा यूं मुंह छिपाना जायज़ नहीं
ए खुदा, सच कहती हूं
हर शै में हर पल,
इमरजेंसी के मरीज़ की तरह
अब तेरी खुदाई को भी
ऑक्‍सीजन चाहिये
खुदा बने रहना है तो
आ के देख, जी के देख ,
हंस के देख- तो साथ रो के भी देख
सिर्फ अपने होने का ही अहसास न करा।
- अलकनंदा सिंह

 

Wednesday 28 August 2013

टैटू

मां, बाबा, भाई, सब कहते थे..
चुपकर रहो अभी तुम, क्‍योंकि -
शरीर उसका सुख उसका
कैद उसकी उसी की रिहाई
...तो फिर तेरा क्‍या

मैं भी गढ़ती रही- इस सच को, कि
जो भी हैं वो चंद बातें
चंद रातें- चंद अहसास- चंद सांसें-
जब सब ही उसके हैं ...
..तो फिर मेरा क्‍या

पायलों की रुनझुन
चूड़ियों की खनखन
कलम की स्‍याही
पलों की इबारत
जब सब ही उसकी हैं
...तो फिर मेरा क्‍या

पर नहीं... तुम गलत सोचते हो,
मन मेरा है सोच मेरी
बात बात पर हंसकर
नीम को भी मिश्री बनाये
पत्‍थर में जो प्‍यार जगाये
वो तासीर मेरी है,
मां बाबा भाई सब देखो,
हूं ना मैं..बहुत खूब
मैं हूं मन के भीतर की खुश्‍बू,
मैं हूं नींवों तक समाई हुई दूब
जो निगल जाये मन का अंधेरा
मैं हूं जीवन की वो धूप

अब बोलो, क्‍या कहते हो
तेरा मेरा करके तुमने जीवन-
का आधा भाग जिया है
अमृत अपने हाथों में रखा
मुझको गरल दिया है
संततियों के माथे पर तुमने
क्‍यों भेद का टैटू छाप दिया है

अभी समय है देखो तुमको
राह अगर लंबी चलनी है
साथ मेरा ही लेना होगा
नई वृष्‍टि हो अहसासों की,
नई सृष्‍टि हो जज्‍़बातों की
नया जगत भी गढ़ना होगा
फिर मैं से हम में परिवर्तन का
नया राग भी बन जायेगा
कह न सकोगे तुम फिर ऐसा
कि तेरा क्‍या है...मेरा क्‍या..

- अलकनंदा सिंह




Monday 26 August 2013

बंजर कब्रें

सोचों की कब्र से यूं
धूल झाड़कर उठते
नया जन्‍म लेते रिश्‍ते
कभी देखे हैं तुमने
नहीं ना, तो...फिर अब देखो

मांस के लोथड़ों पर टपकती
पल पल ये लारें, ये निगाहें
किस तरह पूरे वज़ूद को
बदल देती हैं एक ज़िंदा कब्र में
फिर कोई रिश्‍ता नहीं जन्‍मता ,
बंजर सोच की ज़मीन में।

- अलकनंदा सिंह

Tuesday 20 August 2013

अपने भीतर की सड़क

''सखी, मैं तुम्‍हारे शहर से होकर गुजरूंगा...''  जब भी ये शब्‍द उसके कानों में पड़ते तभी उसे अहसास हो जाता कि कितनी छोटी है ये दुनिया। गोल गोल घूम कर उसके ही गिर्द अपना घेरा कस लेती है हर बार। 
अरे, ये भी कोई बात हुई...भला कोई कहीं से भी गुजरे...शहर की सड़क तो साझा होती है सबकी...जिस सड़क से उसे गुज़रना है वो कहने को तो शहर के बदन को छूती होगी मगर जिस सड़क को उसके सखा के पांव छुयेंगे वो कोई और नहीं उसके शरीर में रेंगती एक एक धमनी और धमनी में जुड़ती तमाम कोशिकाओं से मिलकर बनी सड़क ही है या फिर ऐसी कई सड़कों का जंजाल जो उसके दिल को जकड़े हुये हैं। मगर अच्‍छी तरह जानती थी वो कि सखा महज उसके शहर की सड़क से गुजरने वाला नहीं वह तो पूरे वज़ूद से रिसता हुआ मन में बह रहा है, और उसे यूं नचाये ही जा रहा है...पता ही नहीं चला कब से ...हर बार की तरह इस बार भी ऐसा ही होने वाला है...जब वो गुजर रहा होगा इसी बाहरी या फिर भीतरी सड़क से।

आंख मिचौनी के खेल में वो माहिर है, आज तक जिसने भी उसे चाहा, इसी भ्रम में रहा कि वो उसी को सबसे ज्‍यादा मान देता है ,उसे भी यही भ्रम था;.. भ्रम ही रहा और भ्रम ही रहेगा ... पलक झपकते ही हवा हो जाने की आदत जो थी उसकी .... कोई हवा को पकड़ पाया है भला, फिर वो किसतरह उसकी पकड़ में आता ।

वो अच्‍छी तरह से जानता था कि दुनिया के गोल गोल चक्‍करों में घिरी उसकी सखी न तो उसे ढूढ़ने सड़कों पर घूमेगी और न ही किसी मंदिर - मठ में उसका पता पूछेगी फिर वो बार बार क्‍यों ये जताना चाहता था कि वो मेरे शहर से होकर गुजरेगा तो सखी खुशी से उछल पड़ेगी, वो जानता था कि उसके अंतरमन पर उसका काबू अच्‍छा था, इसीलिए कहीं वो उसे चिढ़ाता तो नहीं ....।
''मैं तुम्‍हारे शहर से होकर गुजरूंगा'' की पगडंडी पर गुजरते हुये एक तलाश सी आंखों में लिए समय पल पल अपनी उम्र घटाता जा रहा था.. जब भी ये वाक्‍य उसके वज़ूद से टकराते तो लगता अभी और ना जाने कितने साल ऐसे ही गुजरने वाले हैं...उसकी बाट जोहते हुये... कि कभी तो मिलेगा...बहुतेरे लोगों के दिन ऐसे ही उसे तलाशते हुये गुज़र गये, सखी के भी गुज़र ही जायेंगे। फिर वो कोई अनोखी तो ना थी  ...मगर वह खुद को अनोखी समझती जरूर थी। वह अपने पर गुस्‍सा भी करती और गुमान भी...करे भी क्‍यों ना .. वो होगा किसी के लिए अप्राप्‍य ...उसका तो सखा था..है..रहेगा। ओह!  तो सताने के लिए ही वह कहता था कि आज या कल या फ़लां दिन मैं तुम्‍हारे शहर से होकर गुजरूंगा। पता नहीं क्‍यों वो यह बताते हुये थकता न था...आज तक ना उसने बताना बंद किया और न सखी के ज़हन से ये ख्‍याल जाता कि आज नहीं तो कल वह यहीं कहीं से गुज़र रहा होगा तो ? क्‍या पता कहीं किसी ठौर वह मिल भी सकता है।
आज वो सोच रही थी...और मन ही मन सखा को सराह भी रही थी कि अप्राप्‍य को कैसे प्राप्‍त किया जा सकता है। किसी ने यूं ही नहीं कह दिया कि मोकूं कहां ढूढ़े रे बंदे मैं तो तेरे पास में...
आज तक तो वह नहीं मिला- सखी अब भी खोज रही है, हर सड़क- हर तिराहे- हर चौराहे पर उसके मिलने की आस में... जब भी शहर में निकलती है.. आंखें उसे ही खोजती रहतीं..वो ऐसा होगा वो वैसा होगा..वो मुझे देखेगा तो क्‍या सोचेगा..कि मेरी सखी ऐसी मलिन...? वो झट से बिना एक भी पल गंवाये कह देगी- ''ना ना सखा मैं इतनी मलिन नहीं, वो तो तुम्‍हें खोजते हुये ये हाल हुआ है मेरा या तुम्‍हारे सांवले रूप की छाया ने घेर लिया था मुझे..या फिर कह देगी कि तुम्‍हारी आंखों में जो देख ले वह तुम जैसा ही होने लगता है..एकदम सांवला सा.. या फिर कह देगी कि तुम्‍हारी आंखें उनींदी हो रही हैं मेरे शहर की सड़कों पर घूमते हुये शायद थक गये हो इसीलिए मैं भी तुम्‍हें थकी और मलिन दिख रही हूं या फिर कह देगी कि तुम्‍हारी इन आंखों में जो थकान के लालिमा उतरी है उसीसे मेरा चेहरा भी तप कर सांवला हुआ है..इसी लिए मैं तुम्‍हें मलिन नजर आती हूं...या...।''
उफ ! ऐसे कितने ही सवाल उसके मन में जवाब देने को तैयार हो रहे थे...लेकिन नहीं, वो ऐसा क्‍यों सोचेगा, वह तो मन में झांक लेता है, फिर मन तो उजला है ना। हर बार की तरह इस बार भी यही सब सोचते हुये वक्‍त उड़ता जा रहा है मगर उसकी तलाश अब भी जारी है ...कि कभी तो भेंट होगी सखा से ...तब वो उसे पकड़ कर पूछ ही लेगी कि हर बार उसके ही शहर से गुजरने की... और गुजरते हुये उसे बताने की...क्‍या जरूरत थी...क्‍या वह यह बताते समय उसके सखा से रूपांतरित हो फिर से वही निष्‍ठुर मंदिर वाला काला पत्‍थर बन जाता है। जरूर ऐसा ही होता होगा तभी तो वह सिर्फ बताता है मिलता नहीं...तभी तो वह सिर्फ पागल बनाता है... इलाज नहीं करता...तभी तो उसने सांसों को मुट्ठी में भींच रखा है...इस बार मिलते ही वह कह ही देगी कि वो भी तो उसी की सखी है, कोई पुतुल नहीं ....वो आज़ादी नहीं चाहती...बस हर वक्‍त हर जगह हर एक में उसी सखा को ही तो खोजती रहती है कि क्‍या पता उसका वो शहर जिसकी सड़कों से उसे गुज़रना है कहीं सखी के मन से होते हुये उसकी रगों में तो नहीं समा गया....कई सवाल हैं जिनके उत्‍तर अनंतकाल से ढूढ़े जा रहे हैं । कोई तो है जो इनके जवाब जानता है। सखी हमेशा से पूछती आई है और सखा के चेहरे पर हमेशा की तरह विस्‍मयकारी मुस्‍कान के रहस्‍य...मौज़ूद हैं। वो तो चेतना के हर उस शहर से गुज़र कर आया है जो सखी तक पहुंचती है फिर क्‍यों शहर से गुजरने की इत्‍तिला पर वह बेचैन है...आज तक। आगे भी उसकी सड़क तो अंतहीन ही है।
- अलकनंदा सिंह

Friday 16 August 2013

कि...कोई नहीं समझ पाया है

कि...कोई नहीं समझ पाया है

बाईं ओर उसी छाती में
दर्द का इक सैलाब आया है
रिश्‍तों की जकड़न कैसी थी कि...
कोई नहीं समझ पाया है

तितली के पंखों से झड़कर
टपक रही थी जो तेरी आहें
उनका सदका यूं मैंने पाया कि...
कोई नहीं समझ पाया है

आइने से मुझ तक पहुंची
उसकी आवाज़ सुनी जैसे ही
खुश्‍बू तैर गई ज़ख्‍मों पर कि...
कोई नहीं समझ पाया है

नापजोख के व्‍यवहारों में
मित्र कहां मिल पाते ऐसे
नाव तुमने साधी ये कैसे कि....
कोई नहीं समझ पाया है।
- अलकनंदा सिंह







Wednesday 31 July 2013

मन-स्‍पंदन में तुम.

नहीं जानते क्‍या सखा तुम..
जिस धड़कन में तुम बसते हो
नित नये बहानों से डसते हो
दिल के टुकड़े टुकड़े करते हो..
छाती की वो उड़ती किरचें
नभ को छूने जाती हैं
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,

पायल और तुम्‍हारी साजिश
खूब समझ आती है सखा
वो चुप हैं.. तुम हंसते हो
क्‍या घोला है मन-स्‍पंदन में,

आज तुम्‍हारी साजिश्‍ा का मैं
हिस्‍सा नहीं बनने वाली
पीठ दिखाकर कहते हो ये
आदत तो मेरी बचपन वाली,

कुंती- कुब्‍जा- रुकमणी नहीं मैं
याचक बनकर नहीं जिऊंगी
तेरे हर स्‍पंदन में घुलकर
उन किरचों के संग बहूंगी...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में,

धारा संग तो सब बहते हैं
उल्‍टी जो बहती - वही सखी मैं 
पग से बहकर मन तक पहुंचूं
मुझे कामना नहीं रास की
मैं तो उन किरचों में ही खुश हूं...
सखाभाव से जिनको तुमने
थाम लिया था सांसों में।
-अलकनंदा सिंह

Tuesday 16 July 2013

हे जनता के ईश्‍वर ...संभलो..!

हे जनता के ईश्‍वर ! 
क्‍या तुम अब भी यहीं हो ...इसी धरती पर
क्‍या तुम भी लेते हो श्‍वास...इसी धरती पर
तो, क्‍या तुम देख नहीं पा रहे
ये चीत्‍कार ये कोलाहल..इच्‍छाओं का
ये घंटे-- ये घड़ियाल--ये व्रत--ये उपवास,
छापा टीका वालों का नाद निनाद
काश ! तुम पढ़ पाते वे कालेकाले अक्षर
जो पुराणों से निकाल तुम्‍हें
कण कण में बैठा गये
और ऐसा करने का प्रतिदान भी-
मिल गया इन अक्षरों को,
कहा गया इन्‍हें ब्रह्म का स्‍वरूप,
इन्‍हीं से मिला इतना मान कि -
तुम्‍हें अभिमान हो गया ईश्‍वरत्‍व का ।
यदि तुम ईश्‍वर होते - कण कण में बैठे
तो क्‍या बन पाते तुम
भेड़ियों से उधेड़ी जा रही
उस औरत की चीख,
तो क्‍या तुम सुन नहीं पा रहे थे
वीभत्‍स क्षणों का वो आर्तनाद,
नहीं सुना होगा उस औरत का -
करुण क्रंदन तुमने
कैसे सुनते...तुम तो ईश्‍वर भी उसके जो
पहले तुम्‍हें अर्पण सब कर दे
बदले में तुम तिनका बन कर
कर डालो अहसान और पा लो ईश्‍वरत्‍व का
एक और मान
फिर कैसे ईश्‍वर तुम...
ईश्‍वर व्‍यापार नहीं करता
तुम तो ठेठ व्‍यापारी हो, भावनाओं का करते हो धंधा
देवालय में नहीं बैठ...
पीठ से चिपके पेटों को
भोजन दिलवाते...
पर नहीं कर सके ऐसा तुम
उस उधड़ती औरत से ..इन भूखे पेटों से..हुई भूल
जो तुमको नहीं सके पूज
बचाते रहे अपना स्‍वाभिमान
चूर करते रहे तुम्‍हारा अभिमान
अब भी समझो...ऐसा बहुत दिनों न चलने वाला
हे जनता के ईश्‍वर
संभलो...अभी भी वक्‍त है बाकी
देवालयों से निकलकर तो देखो
पीड़ाओं को देख जो हो रहे आनंदित
किसी हृदय तक पहुंचकर तो  देखो
किसी की चीत्‍कार बन कर तो देखो
किसी आंसू बन ढलक कर तो देखो
किसी का स्‍पंदन बनकर तो देखो
..देखो तुम सच के ईश्‍वर बनकर
कि आज समय है कितना दुष्‍कर
आओ और सिद्ध कर दो कि
अब भी ईश्‍वर आता है ...
लाज बचाने, मान तोड़ने, दो जून की रोटी देने
आओ...और देखो कैसे बना जाता है ईश्‍वर..
देवालयों में नहीं,  
हे जनता के ईश्‍वर ...दिलों में बैठ सको...
 कुछ ऐसे आओ...वरना तुम समझ सकते हो ...
जब तक पूजा जाता है वह तब तक ही ईश्‍वर रहता है।
- अलकनंदा सिंह



Friday 7 June 2013

....यूं ही ठगनी

निश्‍छल है वो छलिया,
क्‍या बोलूं मैं अब..
शब्‍द कहां बचते हैं ....
इस तरह रोम रोम जब
बतियाता है कान्‍हां से...
मेरे हैं वो मेरे हैं ....
ये कहकर भ्रम हम पाले रहते हैं ....
उसकी एक झलक को हम
सबकुछ बिसराये रहते हैं ....
यही तो हैं कृष्‍ण प्‍यारे
फिर राधा का क्‍या दोष
उसको तो हम यूं ही ठगनी
माने बैठे हैं ।
- अलकनंदा सिंह

Sunday 12 May 2013

दिनों में बंटते रिश्‍ते और मां

वसुधैव कुटुम्‍बकम की मूल अवधारणा के साथ चलने वाले इस देश में जीवन को मात्र 'ये दिन' 'वो दिन' में बांटकर उसकी समग्रता का अहसास कैसे किया जा सकता है । ये हमारा जीवन है कोई गुड़ की डली नहीं जिसे तोड़कर बांटा जा सके मगर ऐसा हो नहीं पा रहा संभवत: इसीलिए कुछ आयातित शब्‍दों के सहारे हम अपने संबंधों को नये रूप में परिभाषित करने में लगे हैं और इसी मुगालते को थामे चल रहे हैं कि लो जी हम भी आधुनिक हो गये।
सभी कुछ इंस्‍टेंट चाहने की आदत ने रिश्‍तों को भी इंस्‍टेंट बना दिया है तभी तो जिस एक शब्‍द की धुरी पर पूरा जीवन-उसका अस्‍तित्‍व, व्‍यवहार व विकास टिका है उसी एक शब्‍द 'मां' के लिए भी इसी कथित आधुनिकता ने एक दिन बांट कर दे दिया कि...लो ये रहा बस एक दिन....तुम्‍हारे नाम मां....अब इसी से पा लो वह खुशी जो तुम मुझे सूंघकर पाया करतीं थीं....अब वो तो डियो ने हड़प ली है मां... डिब्‍बों में बंद हो गई तुम्‍हारे बनाये खाने की खुश्‍बू....ने तुम्‍हें भी तो बख्‍श दिया है ये एक दिन....इसी की पूंछ पकड़कर तुम भी चलो और मैं भी...। गोया कि रिश्‍तों को भी ग्‍लैमराइज़ करने का नया फंडा तो हमारी मुठ्ठी में है लेकिन हम तो सिमटते गये सारी दुनिया की मुठ्ठी में...
हमने इसी कथित आधुनिकता की खातिर अपने जीवन की धुरी उस औरत को, जिसे गनीमत है कि अभी भी हम ''मां'' के नाम से ही जानते हैं, इन्‍हीं डे'ज की भीड़ में खड़ा कर दिया है।
आज मदर्स डे पर सोशल साइट्स से लेकर मीडिया की हर रौ में मां बह रही है। अचानक से इतनी मातृभक्‍ति उड़ेली जा रही है कि बस...जी ऊबने लगा है ये सोचकर कि प्रोपेगंडा से बढ़कर अगर ऐसा सचमुच हो जाये तो देश की संसद को महिला सुरक्षा के लिए यूं माथापच्‍ची ना करनी पड़े।
मैंने ऐसी कई औरतों को ''मां'' पर कसीदे गढ़ते और उस पर वाहवाही भी पाते देखा है जिन्‍होंने खुद अपने बच्‍चे क्रैचे'ज में डाल रखे हैं या फिर मेड की गोद में थमा रखे हैं । ये कोई मजबूरी नहीं बल्‍कि ये चलन है नये तरह के मातृत्‍व का जो अपने बच्‍चे को भी कमोडिटी के तौर भुनाने का हुनर ईज़ाद कर चुका है।
रिश्‍ता कोई भी हो खुद को बांटकर उसे जिया नहीं जा सकता, हर रिश्‍ता अपने हिस्‍से का पूरा वजूद चाहता है फिर मां को हम सिर्फ एक दिन कैसे याद कर सकते हैं वो हमारी रगों में बहती रहती है खून बनकर..दिल बन कर धड़कती है। फिर वसुधा को उसकी महत्‍ता बताने के लिए एक ही दिन क्‍यों मुकर्रर किया जाये , क्‍यों हम रिश्‍तों को बांटकर जीने को अपनी शैली मान बैठे हैं । आज तो बस महसूस करें कि जो हमारे भीतर धड़क रहा है उसका कोई कर्ज़ न आज तक उतार पाया है और न उतार पायेगा।

मशहूर शायर मुनव्‍वर राणा साहब के शब्‍दों में .....नई मांओं को सबक देती ये लाइनें..

सर फिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं

मुझे बस इस लिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह ख़ुशगवार लगती है

मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना .....
         
                                 - अलकनंदा सिंह

Wednesday 1 May 2013

शज़र के नीचे

बीन रही हूं चिंदी चिंदी उसी शाख के नीचे
जिस पर सोये थे सपने अपनी आंखें मींचे

वही शाख जो मन पर मां के
आंचल सी बिछ जाती
आज उसी ने झाड़ दिये हैं
यादों के सब पत्‍ते नीचे

मिट्टी मिट्टी में घुल जाये
वही मुहब्‍बत बसती है मुझमें
जो सर से पांव तक दौड़ रही है
कोई शिकवों के फिर द्वार ना खींचे

बूंद बूंद झर जड़ बनती जाऊं
ठहरूं उसी शज़र के नीचे
ठांव छांह से चुन लूं उनको
जिन सपनों ने पांव थे खींचे
          - अलकनंदा सिंह

बात इतनी सी है .....

courtesy-google
क़तरा क़तरा सांसों में बहती
घुली महक वो भीनी सी है

फूटे जिस ज़र्रे से आलम
क्‍यों वही इबारत झीनी सी है
उसकी आंखें बता रही हैं
रात की बाकी नरमी सी है

जुगनुओं की रोशनी से भी
अब यूं चुंधिया रहे हैं रिश्‍ते
मत बांधो चमकीले पर उनके 
उनसे ही तो रफ्ता रफ्ता
चटक रही रोशनी सी है

जी करता है चुपके से जाकर
उसके अहसासों में घुल जाऊं
सोचों की घाटी में उतरूं
पलकों की कोरों में मेरी
बहती खुश्‍बू उसकी सी है

कांपती उंगलियों के पोरों में
कोई तो शरारत बच्‍चों सी है।
                                    
                                        
-अलकनंदा सिंह

Tuesday 16 April 2013

ईटों की दराजें....

courtsey : Google
कोई काल कोठरी तो नहीं
वो दीवारें थीं मेरे घर की,
जिस पर छपे हुये थे पंजे
प्रेम और वियोग...के
स्‍वागत और विदाई... के
जन्‍म और बधाई... के

ये तो उन्‍हीं ईटों की दराजें हैं जिनमें
रहता था अम्‍मा के घर का राशन
तीन पुश्‍तों के मुकद्दमे की रद्दी
समाये हुये घर का इतिहास

पर आज सभी अपनों के-
संबंधों की चटकन से
चटक रही हैं यही ईटें और दीवारें,
क्‍योंकि....

उस खून के रंग के बीच
गर्व और अहंकार के बीच
अपने और पराये के बीच
छल और आडंबर के बीच
घर और चारदीवारी के बीच

दीवारों की रंगत
काल कोठरी से भी भयानक
नज़र आती है अब

                                          -अलकनंदा सिंह

रूठो ना सखा यूं...

चित्र : साभार-गूगल
रूठने की तरकीबें तुम्‍हें
खूब आती हैं सखा...
नहीं रखो तुम मान मेरा
ये कैसे मैं होने दूंगी

मत भूलो तुम, मेरे होते
रूठकर बैठ नहीं सकते
यूं ही तुम्‍हारी कोशिशें
परवान नहीं चढ़ने दूंगी

अम्‍बर की हर शै से जाकर
चुन कर लाऊंगी वो पल
मेरे और तुम्‍हारे धागे की
गिरह कभी नहीं बनने दूंगी

तुम्‍हारे सभी उलाहने मैंने
टांक दिए हैं उस तकिये में
जिस पर सपने बोये थे तुमने
हर सपने का जाल बनाकर
नये वादे मैं वहीं टांक दूंगी

चुप क्‍यों हो, बोलो हे सखा...
रूठने की हर कला की
अपनी सीमायें होती हैं
जाने भी दो,मत नापो इनको
तुम्‍हारी एक न चलने दूंगी

जब भी आओ मेरे पास तुम
भुलाकर आना अपना मान
छोड़ आना गुस्‍से के हिज्‍जे
तजकर आना अपना ज्ञान
वरना गोपी बनकर मैं भी
मान तुम्‍हारा चूर कर दूंगी
      -अलकनंदा सिंह

Wednesday 10 April 2013

क्‍या तुम्‍हीं हो ये...हे सखा....

तंद्रारहित  रात्रि   के   अंधकार में

मुझे  बुला  रहा  है  कोई एक-
तेजपूर्ण  शून्‍य सा
रश्‍मियों को बिखेरता
धमनियों  में रेंगता सा
बढ़ रहा है  मेरी  ओर,
मानो मन: अभिसार के लिए,


पलक मूंद  मैं उसे-देख रही थी
उसकी ऊंची तान मुरली की -
 त्रियक हुआ जाता था शरीर
 वो देख रहा था मेरी आंखें
अपनी त्रियक मुस्‍कान के संग

 मैं ठिठकी - बोली ,
कुछ पल रुको ! हे रश्‍मिवाहक प्रेम के
क्‍यों क्षण क्षण में भ्रमित कर रहे हो
मुझे याचना नहीं करनी
उसकी ,जो तुम दे ही चुके हो

अब ये जान लो
ये तुम्‍हारी रश्‍मियां मैं सब
सोख लूंगी
सुनते ही घुलने लगा वो प्रकाशपुंज
सारी रश्‍मियां विलुप्‍त
होती जा रही थीं मेरे भीतर
             
                             तो क्‍या हे सखा ....हे कृष्‍ण ...ये तुम्‍हीं हो...
                              मेरा प्रेम बनकर मुझमें ही समाये हो
                              मैं पा रही हूं तुम्‍हारा वो ओझल स्‍पर्श
                              अशून्‍य से शून्‍य की ओर जाते हुये
                             तुम्‍हारे लौकिक सखाभाव ने
                             मुझे तृप्‍त कर दिया है
                              .....हे सखा....हे कृष्‍ण...।
                                                                        - अलकनंदा सिंह

                   

Tuesday 9 April 2013

ख्‍वाब और रूह का वज़ूद

कोई आवाज सुनाई देती है मेरे आइने को
दिख रहा जो अक्‍स मुझसे वो बेगाना क्‍यों है,

रूह से निकल बर्फ होते जा रहे वज़ूद का
उसकी आवाज़ से रिश्‍ता पुराना क्‍यों है,
थामी है उसकी याद किसी हिज़्र की तरह
हथेलियों में वक्‍त इतना सहमा सा क्‍यों है,

थरथराते कदम और उखड़ते हुये लम्‍हों ने
शिकवों के गठ्ठर को कांधे पै ढोया क्‍यों है,
थरथराती हुई सांस और धड़कन के सफ़र को
मेरी मुट्ठी में बंद करके वो रोया क्‍यों है,

गिरते एतबार को थामने की कोशिश्‍ा में
किरणों के रेले से वो मुझे बहलाता क्‍यों है,
अब मैंने बुन लिया ऐसे ख्‍वाब का मंज़र
बीती तमाम उम्र का वो वास्‍ता देता क्‍यों है
                        -अलकनंदा सिंह

Sunday 7 April 2013

बार का संस्‍कार

प्रश्‍नों में घिरी है आस्‍था  आज
क्‍योंकि-
इस सूचनाई जमात में,
सभ्‍यता के सूरज को -
हथेली में छुपाकर,
ज्ञान को बाजार में
बदलने चली है
हमारी आपकी नई पीढ़ी ।

इसीलिए अपनों की
संवेदना को 'बार' में
और 'बार' को,
संस्‍कार में
घोलने चली है
हमारी आपकी नई पीढ़ी।
-अलकनंदा सिंह

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