Sunday 14 July 2019

इक्कीस साल बाद आया अरुंधति रॉय का दूसरा उपन्यास

इक्कीस साल बाद अरुंधति रॉय अपना दूसरा उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ लेकर आयी हैं. वर्ष 1997 में अपने पहले ही उपन्यास ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ के लिए उन्हें बुकर पुरस्कार मिला था. उसके बाद उन्होंने अपनी सक्रियता सामाजिक जन आंदोलनों से जूझने में लगा दी. अब इसका हिंदी अनुवाद प्रख्यात कवि मंगलेश डबराल ने ‘अपार खुशी का घराना’ शीर्षक से किया है.


राजकमल प्रकाशन से आये इस उपन्यास को पढ़ने से पहले यह ध्यान रखना जरूरी है कि बीते इक्कीस सालों के दौरान अरुंधति रॉय लगातार राजनीति और पर्यावरण पर लिखती रहीं. नर्मदा बचाओ आंदोलन के पक्ष में खड़ी हुईं, माओवादियों के साथ रहीं और कश्मीर पर अपने विचारों को लेकर आलोचना की शिकार हुईं. इन सब हलचलों का प्रभाव ‘अपार खुशी का घराना’ के पन्नों पर दर्ज भी हुआ है.


यह उपन्यास परिवार, वर्ग और जाति की कहानी तो कहता ही है, साथ ही कश्मीर में आतंकवाद, हिंदू राष्ट्रवाद की बढ़ती सक्रियता का भी जिक्र करता है.


और यह भी कि भारत और उसके जनसंख्या पर अंधाधुंध औद्योगिकीकरण के दुष्प्रभाव एवं एक प्रतिकूल वातावरण में एक हिजड़े के जीवन जीने का क्या अर्थ है?


इसका कथानक बहुत विस्तृत है. इसके दो छोर हैं. एक छोर पर अंजुम हिजड़ा है. जन्म के समय उसका नाम आफताब था, वह अपना जीवन चलाने के लिए दिल्ली में संघर्षरत है. संघर्ष का परिणाम इतना ही आया है कि वह एक कब्रिस्तान के निकट गेस्ट हाउस की मालकिन है, जिसकी पनाहगाह में आसपास के खोये हुए, टूटे हुए और अपने समाज से बहिष्कृत लोगों की बस्ती है, जो निरंतर बड़ी होती जा रही है.


दूसरे छोर पर तिलो है, जो अत्यंत सम्मोहक आर्किटेक्ट है. वह अपने लिए एक्टिविस्ट की भूमिका चुनती है. उसके तीन पुरुष मित्र हैं. तिलो एक बच्ची को गोद ले लेती है. तिलो की सोच का एक अंश- ‘बच्चे का पिता कौन है. उसने सोचा. ऐसे ही चलने दिया जाए. क्यों नहीं? अगर लड़का हुआ तो गुलरेज. अगर लड़की हुई तो जबीन. उसने कभी न मां के रूप में अपनी कल्पना की थी और न दुल्हन के रूप में, हालांकि वह दुल्हन रह चुकी थी, बन चुकी थी और बची हुई रही थी. फिर यह भी क्यों नहीं?’


इस ‘क्यों नहीं?’ के प्रश्नवाचक चिह्न को डीकोड करने के लिए उपन्यास पढ़ा जाना जरूरी है.
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