तंद्रारहित रात्रि के अंधकार में
मुझे बुला रहा है कोई एक-
तेजपूर्ण शून्य सा
रश्मियों को बिखेरता
धमनियों में रेंगता सा
बढ़ रहा है मेरी ओर,
मानो मन: अभिसार के लिए,
पलक मूंद मैं उसे-देख रही थी
उसकी ऊंची तान मुरली की -
त्रियक हुआ जाता था शरीर
वो देख रहा था मेरी आंखें
अपनी त्रियक मुस्कान के संग
मैं ठिठकी - बोली ,
कुछ पल रुको ! हे रश्मिवाहक प्रेम के
क्यों क्षण क्षण में भ्रमित कर रहे हो
मुझे याचना नहीं करनी
उसकी ,जो तुम दे ही चुके हो
अब ये जान लो
ये तुम्हारी रश्मियां मैं सब
सोख लूंगी
सुनते ही घुलने लगा वो प्रकाशपुंज
सारी रश्मियां विलुप्त
होती जा रही थीं मेरे भीतर
तो क्या हे सखा ....हे कृष्ण ...ये तुम्हीं हो...
मेरा प्रेम बनकर मुझमें ही समाये हो
मैं पा रही हूं तुम्हारा वो ओझल स्पर्श
अशून्य से शून्य की ओर जाते हुये
तुम्हारे लौकिक सखाभाव ने
मुझे तृप्त कर दिया है
.....हे सखा....हे कृष्ण...।
- अलकनंदा सिंह
तेजपूर्ण शून्य सा
रश्मियों को बिखेरता
धमनियों में रेंगता सा
बढ़ रहा है मेरी ओर,
मानो मन: अभिसार के लिए,
पलक मूंद मैं उसे-देख रही थी
उसकी ऊंची तान मुरली की -
त्रियक हुआ जाता था शरीर
वो देख रहा था मेरी आंखें
अपनी त्रियक मुस्कान के संग
मैं ठिठकी - बोली ,
कुछ पल रुको ! हे रश्मिवाहक प्रेम के
क्यों क्षण क्षण में भ्रमित कर रहे हो
मुझे याचना नहीं करनी
उसकी ,जो तुम दे ही चुके हो
अब ये जान लो
ये तुम्हारी रश्मियां मैं सब
सोख लूंगी
सुनते ही घुलने लगा वो प्रकाशपुंज
सारी रश्मियां विलुप्त
होती जा रही थीं मेरे भीतर
तो क्या हे सखा ....हे कृष्ण ...ये तुम्हीं हो...
मेरा प्रेम बनकर मुझमें ही समाये हो
मैं पा रही हूं तुम्हारा वो ओझल स्पर्श
अशून्य से शून्य की ओर जाते हुये
तुम्हारे लौकिक सखाभाव ने
मुझे तृप्त कर दिया है
.....हे सखा....हे कृष्ण...।
- अलकनंदा सिंह