Saturday 9 November 2019

ड्रॉइंग रूम में बैठकर नहीं गढ़ी जातीं धूम‍िल जैसी कव‍ितायें

बड़ी बड़ी ड‍िग्र‍ियां हास‍िल कर लेना अच्छी कव‍िता गढ़ने से ब‍िल्कुल ही अलग है तभी तो सुदामा पाण्डेय धूम‍िल जैसे कव‍ि हमें ये रहस्य बताने को पैदा होते हैं क‍ि कव‍िता उच्चश‍िक्ष‍ितों की बपौती नहीं है। क‍िसी कव‍िता को क‍ितनी गहराई से गढ़ते रहे धूम‍िल यह तो उनकी कुछ रचनायें पढ़कर ही मालूम हो जाएगा। आज यान‍ि 9 नवंबर उनकी जन्म त‍िथ‍ि है , धूमिल का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी में हुआ था। वे अपनी क्रांतिकारी और प्रतिरोधी कविताओं के लिए जाने जाते हैं। आप उन्हें हिंदी कविता के ‘यंग एंग्री मैन’ कह सकते हैं –
शब्द किस तरह
कविता बनते हैं
इसे देखो
अक्षरों के बीच गिरे हुए
आदमी को पढ़ो
क्या तुमने सुना कि यह
लोहे की आवाज़ है या
मिट्टी में गिरे हुए ख़ून
का रंग।
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
घोड़े से पूछो
जिसके मुंह में लगाम है।
सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’ हिंदी की समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर हैं। उनकी कविताओं में आज़ादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था, जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानों धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है।
एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है।
‘संसद से सड़क तक’, ‘कल सुनना मुझे’, ‘सुदामा पांडेय का प्रजातंत्र’, उनके काव्य संग्रह हैं। 60 के बाद के दशक में हिंदी कविता के फलक पर धूमिल प्रमुखता से उभरकर सामने आते हैं। 10 फरवरी 1975 हिंदी के इस क्रांतिकारी कवि की ब्रेन ट्यूमर से मौत हो गई। उनके जीवन काल में एक ही काव्य संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ प्रकाशित हो सका, ‘कल सुनना मुझे’ का प्रकाशन तो उनके निधन के बाद ही संभव हो सका। 1979 में उन्हें मरणोपरांत साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया।
मैंने पहली बार महसूस किया है
कि नंगापन
अन्धा होने के खिलाफ़
एक सख़्त कार्यवाही है
उस औरत की बगल में लेटकर
मुझे लगा कि नफ़रत
और मोमबत्तियाँ जहाँ बेकार
साबित हो चुकी हैं और पिघले हुए
शब्दों की परछाईं
किसी खौफ़नाक जानवर के चेहरे में
बदल गयी है, मेरी कविताएँ
अँधेरा और कीचड़ और गोश्त की
खुराक़ पर ज़िन्दा है।
उनकी कविताओं में आक्रामकता है, व्यवस्था का विरोध है। धूमिल अपनी रचनाओं में एक ऐसी काव्य भाषा की इजाद करते हैं जो नई कविता के दौर की काव्य- भाषा की रुमानियत और अतिशय कल्पनाशीलता से मुक्त है। उनकी भाषा सहज और सरल है लेकिन कहन शैली में विद्रोह साफ तौर पर झलकता है –
उसकी सारी शख़्सियत
नखों और दाँतों की वसीयत है
दूसरों के लिए
वह एक शानदार छलांग है
अँधेरी रातों का
जागरण है, नींद के ख़िलाफ़
नीली गुर्राहट है
अपनी आसानी के लिए तुम उसे
कुत्ता कह सकते हो
उस लपलपाती हुई जीभ और हिलती हुई दुम के बीच
भूख का पालतूपन
हरकत कर रहा है
उसे तुम्हारी शराफ़त से कोई वास्ता
नहीं है, उसकी नज़र
न कल पर थी
न आज पर है
सारी बहसों से अलग
वह हड्डी के एक टुकड़े और
कौर-भर (सीझे हुए) अनाज पर है।
धूमिल अपनी कविताओं के माध्यम से उन तमाम शोषितों और वंचितों को आवाज़ देते हैं, जो आज भी अपने आपको ठगा हुआ महसूस करते हैं –
‘ठीक है, यदि कुछ नहीं तो विद्रोह ही सही’
हँसमुख बनिए ने कहा-
‘मेरे पास उसका भी बाज़ार है’
मगर आज दुकान बन्द है, कल आना
आज इतवार है। मैं ले लूँगा।
इसे मंच दूँगा और तुम्हारा विद्रोह
मंच पाते ही समारोह बन जाएगा
फिर कोई सिरफिर शौक़ीन विदेशी ग्राहक
आएगा। मैं इसे मुँहमाँगी क़ीमत पर बेचूँगा।
मैं होटल के तौलिया की तरह
सार्वजनिक हो गया हूँ
क्या ख़ूब, खाओ और पोंछो,
ज़रा सोचो,
यह भी क्या ज़िन्दगी है
जो हमेशा दूसरों के जूठ से गीली रहती है।
कटे हुए पंजे की तरह घूमते हैं अधनंगे बच्चे
गलियों में गोलियाँ खेलते हैं
मगर अव्वल यह कि
देश के नक़्शे की लकीरें इन पर निर्भर हैं
और दोयम यह कि
न सही मुझसे सही आदमी होने की उम्मीद
मगर आज़ादी ने मुझे यह तो सिखलाया है
कि इश्तहार कहाँ चिपकाना है
और पेशाब कहाँ करना है
और इसी तरह ख़ाली हाथ
वक़्त-बेवक़्त मतदान करते हुए
हारे हुओं को हींकते हुए
सफलों का सम्मान करते हुए
मुझे एक जनतान्त्रिक मौत मरना है।
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