Monday 26 November 2018

उर्दू अदब में बहुत बड़ा नाम है शीन काफ़ निज़ाम, आज इनके जन्‍मदिन पर पढ़िए उनकी गजलें

26 नवंबर 1947 को राजस्‍थान के जोधपुर में जन्‍मे शीन काफ़ निज़ाम का नाम उर्दू अदब में बहुत बड़ा है। उनका वास्तविक नाम शिव कुमार है जिसको वह उर्दू में शीन काफ़ लिखते हैं।
शिव किशन उर्दू में शीन काफ हो गए और उर्दू वालों को जिंदगी और इंसानियत की सलाहियत सिखा गए. निजाम साहब इस दौर के चुनिंदा शायरों में से हैं जो मंचीय हल्केपन से बचे रहे।
इनके द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता संग्रह गुमशुदा दैर की गूंजती घंटियाँ के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था|
पढ़िए शीन काफ़ निज़ाम की कुछ महत्‍वपूर्ण गजलें-
1.सफ़र में भी सहूलत चाहती है
मुहब्बत अब मुरव्वत चाहती है
तुम्हारा शौक है, ख्वाहिश भी होगी
मगर तखलीक हैरत चाहती है
तबीयत है कि ऐसे दौर में भी
बुजुर्गों जैसी बरकत चाहती है
ये कैसी नस्ल है अपने बड़ों से
बग़ावत की इजाजत चाहती है
बजा तुम ने लहू पानी किया है
मगर मिटटी मुहब्बत चाहती है
वरक खाली पड़े हैं रोजो-शब के
बजा-ए-दिल इबारत चाहती है
तसव्वुर के लिए ग़ालिब से हम तक
तबियत सिर्फ फुर्सत चाहती है
2. बात के कितने खरे थे पहले
किसको मालूम है कितने पहले
हम तो बचपन से सुना करते हैं
लोग ऐसे तो नहीं थे पहले
अब यहाँ हैं तो यहीं के हम हैं
क्या बताएँ कि कहाँ थे पहले
हम नहीं वैसे रहे, ये सच है
तुम भी ऐसे तो कहाँ थे पहले
इस तजबजुब में कटी उम्र तमाम
बात कीजे तो कहाँ थे पहले
बात वो समझें तो समझें कैसे
लोग पढ़ लेते हैं चेहरे पहले
मंजिलें उनको मिलें कैसे ‘निज़ाम’
पूछ लेते हैं जो रस्ते पहले
3. मैं इधर वो उधर अकेला है
हर कोई ख्वाब भर अकेला है
खोले किस किस दुआ को दरवाज़ा
उसके घर में असर अकेला है
हम कहीं भी रहें तुम्हारे हैं
वो इसी बात पर अकेला है
भीड़ में छोड़ कर गया क्यूँ था
क्या करूँ अब अगर अकेला है
ऐबजू सारे उसकी जानिब हैं
मेरे हक़ में हुनर अकेला है
कितने लोगों की भीड़ है लेकिन
राह तनहा सफ़र अकेला है
हो गई शाम मुझको जाने दो
मेरे कमरे में डर अकेला है।
प्रस्‍तुति: अलकनंदा सिंह

Thursday 22 November 2018

मेरठ बाेर्न पाकिस्तान की मशहूर शायरा फ़हमीदा रियाज़ का निधन

पाकिस्तान की मशहूर शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़
पाकिस्तान की मशहूर शायरा और मानवाधिकार कार्यकर्ता फ़हमीदा रियाज़ का लंबी बीमारी के बाद लाहौर में निधन हो गया है। एक दर्जन से ज्यादा किताबों की लेखिका रियाज़ का नाम साहित्य में एक ऊंचा दर्जा रखता है। उन्होंने अल्बेनियन लेखक इस्माइल कादरी और सूफ़ी संत रूमी की कविताओं को उर्दू में अनुवादित किया था।
फ़हमीदा का जन्म 28 जुलाई 1945 को उत्तर प्रदेश के मेरठ में हुआ था। चार साल की उम्र में ही पिता का साया खो देने के बाद उनका पालन-पोषण उनकी मां द्वारा किया गया।
बचपन से ही साहित्य में रुचि रखने वाली फ़हमीदा ने उर्दू, सिन्धी और फ़ारसी भाषाएं सीख लीं थीं। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने रेडियो पाकिस्तान में न्यूज़कास्टर के रूप में काम किया। शादी के बाद वह कुछ वर्ष यू. के. में रहीं और तलाक़ के बाद पाकिस्तान लौट आयीं, उनकी दूसरी शादी ज़फ़र अली उजान से हुई।
फ़हमीदा ने अपना पब्लिकेशन ‘आवाज़’ के नाम से शुरू किया लेकिन उदारवादी होने के कारण उसे बंद कर दिया गया और ज़फ़र को जेल भेज दिया गया। अपने राजनीतिक विचारों के कारण फ़हमीदा पर 10 से ज़्यादा केस चलाए गए। तब अमृता प्रीतम ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से बात कर उनके लिए भारत में रहने की व्यवस्था करवाई।
पाकिस्तान लौटने से पहले फ़हमीदा और उनके परिवार ने लगभग 7 साल निर्वासन की स्थिति में भारत में बिताए। इस दौरान वह दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में रहीं और उन्होंने हिन्दी पढ़ना सीखा।
72 साल की शायरा की निधन की ख़बर से साहित्य जगत में शोक व्याप्‍त है।
उनके कुछ मशहूर शेर
जो मुझ में छुपा मेरा गला घोंट रहा है
या वो कोई इबलीस है या मेरा ख़ुदा है
जो मेरे लब पे है शायद वही सदाक़त है
जो मेरे दिल में है उस हर्फ़-ए-राएगाँ पे न जा
ये किस के आँसुओं ने उस नक़्श को मिटाया
जो मेरे लौह-ए-दिल पर तू ने कभी बनाया
था दिल जब उस पे माइल था शौक़ सख़्त मुश्किल
तर्ग़ीब ने उसे भी आसान कर दिखाया

चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ

चार-सू है बड़ी वहशत का समाँ 
किसी आसेब का साया है यहाँ 

कोई आवाज़ सी है मर्सियाँ-ख़्वाँ 
शहर का शहर बना गोरिस्ताँ 

एक मख़्लूक़ जो बस्ती है यहाँ 
जिस पे इंसाँ का गुज़रता है गुमाँ 

ख़ुद तो साकित है मिसाल-ए-तस्वीर 
जुम्बिश-ए-ग़ैर से है रक़्स-कुनाँ 

कोई चेहरा नहीं जुज़ ज़ेर-ए-नक़ाब 
न कोई जिस्म है जुज़ बे-दिल-ओ-जाँ 

उलमा हैं दुश्मन-ए-फ़हम-ओ-तहक़ीक़ 
कोदनी शेवा-ए-दानिश-मंदाँ 

शाइ'र-ए-क़ौम पे बन आई है 
किज़्ब कैसे हो तसव्वुफ़ में निहाँ 

लब हैं मसरूफ़-ए-क़सीदा-गोई 
और आँखों में है ज़िल्लत उर्यां 

सब्ज़ ख़त आक़िबत-ओ-दीं के असीर 
पारसा ख़ुश-तन-ओ-नौ-ख़ेज़ जवाँ 

ये ज़न-ए-नग़्मा-गर-ओ-इश्क़-शिआ'र 
यास-ओ-हसरत से हुई है हैराँ 

किस से अब आरज़ू-ए-वस्ल करें 
इस ख़राबे में कोई मर्द कहाँ .


कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में

कभी धनक सी उतरती थी उन निगाहों में 
वो शोख़ रंग भी धीमे पड़े हवाओं में 

मैं तेज़-गाम चली जा रही थी उस की सम्त 
कशिश अजीब थी उस दश्त की सदाओं में 

वो इक सदा जो फ़रेब-ए-सदा से भी कम है 
न डूब जाए कहीं तुंद-रौ हवाओं में 

सुकूत-ए-शाम है और मैं हूँ गोश-बर-आवाज़ 
कि एक वा'दे का अफ़्सूँ सा है फ़ज़ाओं में 

मिरी तरह यूँही गुम-कर्दा-राह छोड़ेगी 
तुम अपनी बाँह न देना हवा की बाँहों में 

नुक़ूश पाँव के लिखते हैं मंज़िल-ए-ना-याफ़्त 
मिरा सफ़र तो है तहरीर मेरी राहों में.

ये पैरहन जो मिरी रूह का उतर न सका

ये पैरहन जो मिरी रूह का उतर न सका 
तो नख़-ब-नख़ कहीं पैवस्त रेशा-ए-दिल था 

मुझे मआल-ए-सफ़र का मलाल क्यूँ-कर हो 
कि जब सफ़र ही मिरा फ़ासलों का धोका था 

मैं जब फ़िराक़ की रातों में उस के साथ रही 
वो फिर विसाल के लम्हों में क्यूँ अकेला था 

वो वास्ते की तिरा दरमियाँ भी क्यूँ आए 
ख़ुदा के साथ मिरा जिस्म क्यूँ न हो तन्हा 

सराब हूँ मैं तिरी प्यास क्या बुझाऊँगी 
इस इश्तियाक़ से तिश्ना ज़बाँ क़रीब न ला 

सराब हूँ कि बदन की यही शहादत है 
हर एक उज़्व में बहता है रेत का दरिया 

जो मेरे लब पे है शायद वही सदाक़त है 
जो मेरे दिल में है उस हर्फ़-ए-राएगाँ पे न जा 

जिसे मैं तोड़ चुकी हूँ वो रौशनी का तिलिस्म 
शुआ-ए-नूर-ए-अज़ल के सिवा कुछ और न था.

प्रस्‍तुति:  अलकनंदा सिंह
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